February 26, 2010

खंड-खंड होते देश में सुरक्षा के बढ़ते खतरे ?



(कमल सोनी)>>>> पूरी दुनिया में शायद भारत ही एक मात्र ऐसा देश है. जहाँ धर्मवाद, क्षेत्रवाद, जातिवाद, नक्सलवाद और आतंकवाद अपने पैर पसार रहा है. और आज स्थिति यह है कि इसका नियंत्रण एक चुनौती बन गया है. परिणामस्वरूप एक ओर जहां देश टुकड़ों में बाँट रहा है. तो दूसरी ओर आतंरिक और बाहरी सुरक्षा के खतरे भी देश में बढ़ रहे हैं. एक तरफ चीन भारत में घुसपैठ की कोशिशों को अंजाम देता है तो दूसरी तरफ पकिस्तान सीमा पर गोलीबारी की आड लेकर आतंकवादी गतिविधियों को अंजाम दे रहा है. इस मामले में बाग्लादेश भी पीछे नहीं है. इन सबके बावजूद देश के राजनेता सिवाय खोखली राजनीती के अलावा कोई ठोस कदम नहीं उठा रहे. बल्कि इसी धर्मवाद, क्षेत्रवाद, जातिवाद, नक्सलवाद और आतंकवाद का सहारा ले अपने राजनैतिक स्वार्थ की रोटियां सेंकने में लगे हुए हैं. देश की जनता भी सब जानती है. अब वह जागरूक हो रही है. यही वजह है कि मुंबई में हुए आतंकी हमले के बाद जिस तरह से जनता इन राजनेताओं के खिलाफ सड़क पर उतरकर आई. लेकिन राजनेताओं ने इससे कोई सबक लिया इसके कोई प्रमाण अब तक नहीं मिले. धर्मवाद, क्षेत्रवाद, जातिवाद पर राजनीती होती रही. आज भले ही वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने आतंरिक और बाहरी सुरक्षा के मद्देनज़र सिर्फ चार फीसदी बढ़ोतरी करते हुए बजट 2010-11 में रक्षा के लिए 1,47,344 करोड़ रुपये आवंटित किए हैं. लेकिन सुरक्षा के दृष्टिकोण से बजट निर्धारित कर देना ही काफी नहीं होता. इसमें कोई दो मत नहीं कि आज हम जिस दुनिया में जी रहे हैं. वह पूरी तरह से अस्थिर है. और हम भी इस अस्थिरता के साये में जीने को मजबूर हैं.

आजादी के बाद 1947 में जिस नए भारत की कल्पना की गई थी. क्या आज हम उस कल्पना पर खरे उतरे हैं ? यह एक अहम सवाल है. इतने लंबे अरसे के बाद देश में 'एकता की भावना' खोती हुई नज़र आ रही है. परिणाम स्वरुप धर्मवाद, क्षेत्रवाद, जातिवाद, नक्सलवाद जैसी समस्याएँ बढ़ीं हैं. लेकिन इनके समाधान के लिए ज़्यादा से ज़्यादा बंद कमरे में बैठकें आयोजित कर फैसले कर लिए जाते हैं. लेकिन इन फैसलों पर अमल नहीं किया जाता. बाबरी विध्वंस और गोधरा कांड जैसे गंभीर मामलों पर आयोग गठित कर दिए जाते हैं. और सालों की जाँच प्रक्रिया के बाद इन आयोगों की रिपोर्ट ही कटघरे में खड़ी हो जाती है. इन समस्याओं का एक मुख्य कारण यह भी रहा कि देश में जातीय और भाषाई अस्मिता पुनः सतह पर आ गई. जिसके बाद महाराष्ट्र में जातिवाद से प्रेरित नारे, जाती और क्षेत्रीयता के आधार पर लोगों से मारपीट, तेलंगाना मुद्दा इत्यादि उभर कर सामने आये. इन सबके बीच पड़ोसी मुल्कों से जेहाद के नाम पर देश में आतंकवाद को बढ़ावा देने से देश की आतंरिक और बाहरी सुरक्षा पर कई सवाल खड़े कर दिए हैं. जिस विषय पर गंभीर चिंतन की आवश्यकता है. देश में हिंदूवादी संगठनों का जन्म हों और उनका राजनितिक सपोर्ट होना भी कई सवाल जन्म लेता है. कुछ राजनेताओं का मानना है कि हिन्हुवादी संगठनो के जन्म के पीछे मुस्लिम आबादी में बढोत्तरी, पड़ोसी मुल्कों से गैरकानूनी घुसपैठ, और मुस्लिम अलगाववाद कारण रहे हैं. लेकिन इन सब का क्या ? कहीं न कहीं देश आतंरिक रूप से बंटता और कमजोर होता जा रहा है. धर्मवाद, क्षेत्रवाद, जातिवाद को बढ़ावा मिल रहा है. और वोट बैंक की राजनीती अभी भी जारी है. कोई राजनैतिक दल प्रत्यक्ष रूप से धर्म, क्षेत्र और जाति का सहारा लेकर वोट बैंक की राजनीती कर रहा है. तो कोई अप्रत्यक्ष रूप से. लेकिन इसका खामियाजा भुगतना पड़ रहा है देश के उस जनता को जो कमाने-खाने और आगे बढकर देश हित में कुछ करना चाहते हैं.

वोट बैंक की राजनीती का ही नतीजा है, कि पिछले दो दशकों में मुस्लिम समुदाय में से सबसे ज़्यादा संख्या में आतंकवादी और अलगाववादी उभरकर सामने आये हैं. मालेगांव धमाको के बाद एटीएस ने हिंदू आतंकवाद की बात कही थी. हिंदू आतंकवाद जैसी कोई चीज़ इस देश में है, या नहीं इस पर संदेह अभी भी बरकरार है. लेकिन कहीं न कहीं यह भी वोट बैंक की राजनीती का ही नतीज़ा है. इस बात में कोई संदेह नहीं कि देश में कुछ लोग जेहादी विचारधारा से प्रभावित हुए हैं. और देश में अपनी गतिविधियां चला रहे हैं. सिमी जैसे संगठन ऐसी ही विचारधारा की उपज है. लेकिन देश के आम मुस्लिम और इन जेहादियों में ज़मीन-आसमान का फर्क दिखता है. लेकिन इन सबसे दोनों समुदायों के बीच जो दरार पैदा हुई है. भले ही वह आतंकवाद न हो. लेकिन देश में सम्प्रदायिक विभाजन जैसी संभावनाएं ज़रूर उत्पन्न हुई हैं. इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता.

यहाँ बात हिंदू या मुस्लिम की ही नहीं है. भारत के ऊतर पूर्व के नगा क्षेत्रों में सबसे पहले अलगाववाद की आग लगी थी. जिसके बाद यह आसाम, त्रिपुरा और पश्चिम बंगाल तक फ़ैली. इन क्षेत्रों में अलगाववाद के पीछे यहाँ के निवासियों की उपेक्षा तो है ही साथ ही पड़ोसी मुल्कों से इस चिंगारी को भडकाने में मदद भी हैं. आसाम भी वर्षों तक बंगलादेशी घुसपैठ, अल्फा विद्रोह और उसके विदेशी संबंधो के चलते अशांत रहा है. अब जम्मू काश्मीर है. हालांकि भारत-बंगलादेश के बीच हुए समझौते के बाद आसाम में स्थिति में कुछ सुधार हुआ है.

भारत के अंदर एक अलग भारत नहीं होना चाहिए. यह समस्या धीरे-धीरे विकराल रूप धारण करती जा रही है. इस समस्या का निदान नौकरशाही से नहीं हो सकता. अराजकता का क्रम अगर आगे चलता रहा. तो आने वाले समय में हमें और भी कई परेशानियों का सामना करना पड़ेगा, इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता. आज भी भारत आर्थिक और सामाजिक तौर पर विभाजित है. दो धर्मो के बीच की खाई, शहरी और ग्रामीण जनता के बीच की खाई तथा क्षेत्रवाद की खाई को पाटना इतना आसान नहीं होगा. भारत में भले ही हाल ही के वर्षों में आर्थिक सुधारों ने रफ़्तार पकड़ी हो. लेकिन इसके अलावा दूसरे मोर्चे पर पर आतंरिक अराजकता के साथ बाहरी खतरे ने नई चिंताओं को जन्म दे दिया है. इन सभी समस्याओं का समाधन तभी संभव है जब कुशल राजनीतिक नेतृत्व, आर्थिक वृद्धी तथा सैन्य ताकत में बढोत्तरी के साथ-साथ नागरिकों की एकजुटता जो क्षेत्रवाद, धर्मवाद, और जातिवाद से परे हो.

1 comment:

Dinbandhu Vats said...

bahut achhi prastuti hai.aaj desh ko kai kahndo me batane ki koshish ho rahi hai.hame aise chalon ko samajhna hoga.