December 2, 2012

भोपाल गैस त्रासदी: ज़ख्म के 28 बरस, मरहम से मरहूम पीड़ित

भोपाल (कमल सोनी) >>>> ठीक 28 साल पहले दो-तीन दिसंबर 1984 की दरमियानी रात भोपाल में मौत का कहर बरसाने वाली रात थी। तब से लेकर अब तक इस भीषण भोपाल गैस त्रासदी को गुजरे हुए 28 वर्ष हो गए हैं, लेकिन आज भी इस इलाके में जाने पर लगता है मानों कल की ही बात हो. आज 28 साल बाद भी हर सुबह दुर्घटना वाले दिन की अगली सुबह ही नजर आती है. यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री से ज़हरीले गैस रिसाव और रसायनिक कचरे के कहर का प्रभाव आज भी बना हुआ है. बच्चे अपंग होते रहे, मां के दूध में ज़हरीले रसायन पाये जाने की बात भी सामने आई, चर्म रोग, दमा, कैंसर और न जाने कितनी बीमारियां धीमा ज़हर बनकर आज भी गैस प्रभावितों को अपनी चपेट में ले रही हैं. मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में आज से 28 वर्ष पहले हुए दुनिया के सबसे बड़े औद्योगिक हादसे को लोग अभी तक नहीं भूल पाए हैं.

क्या थी त्रासदी :- मध्य प्रदेश के भोपाल शहर मे 2-3 दिसम्बर सन् 1984 की रात भोपाल वासियों के लिए काल की रात बनकर सामने आई। इस दिन एक भयानक औद्योगिक दुर्घटना हुई। इसे भोपाल गैस कांड, या भोपाल गैस त्रासदी के नाम से जाना जाता है. 2-3 दिसम्बर 1984 को युनियन कार्बाइड कारखाने से अकस्मात मिथाइल आइसोसायनाईट अन्य रसायनों के रिसाव होने से कई जाने गईं थी. इस त्रासदी को 28 साल पूरे होने आए हैं, उस त्रासदी के वक्त जो जख्म यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री से निकली जहरीली हत्यारी गैस ने दिए थे वह आज भी ताजा हैं. हजारों लोगों को आधी रात हत्यारी गैस ने मौत की नींद सुला दिया, सैंकड़ो को जानलेवा बीमारी के आगोश में छोड़ गई यह जहरीली गैस. आज भी गैस के प्रभाव उन लोगों में साफ देखे और महसूस किए जा सकते हैं. उनकी यादों में वह आधी रात दहशत और दर्द की काली स्याही से इतिहास बनकर अंकित हो गई है. उसे न अब कोई बदल सकता है और न ही मिटा सकता.

पीछा छोड़ रहा जहर :- भोपाल गैस त्रासदी के 2 साल बाद भी यूनियन कार्बाइड का जहरीला प्रदूषण पीछा नहीं छोड़ रहा है। सेंटर फॉर साइंस एंड इंवायरंमेंट द्वारा किए गए परीक्षण में इस बात की पुष्टि हुई है कि फैक्ट्री और इसके आसपास के 3 किमी क्षेत्र के भूजल में निर्धारित मानकों से 40 गुना अधिक जहरीले तत्व मौजूद हैं। मध्य प्रदेश प्रदूषण बोर्ड के अलावा कई सरकारी और ग़ैरसरकारी एजेंसियों ने पाया है कि फैक्ट्री के अंदर पड़े रसायन के लगातार ज़मीन में रिसते रहने के कारण इलाक़े का भूजल प्रदूषित हो गया है. कारखाने के आस-पास बसी लगभग 17 बस्तियों के ज़्यादातर लोग आज भी इसी पानी के इस्तेमाल को मजबूर हैं. एक सर्वेक्षण के मुताबिक़ इसी इलाक़े में रहने वाले कई लोग शारीरिक और मानसिक कमजोरी से पीड़ित है. गैस पीड़ितों के इलाज और उन पर शोध करने वाली संस्थाओं के मुताबिक़ लगभग तीन हज़ार परिवारों के बीच करवाए गए एक सर्वेक्षण में पाया गया है कि इस तरह के 141 बच्चे हैं जो या तो शारीरिक, मानसिक या दोनों तरह की कमजोरियों के शिकार हैं कई के होंठ कटे हैं, कुछ के तालू नहीं हैं या फिर दिल में सुराख हैं, इनमें से काफ़ी सांस की बीमारियों के शिकार हैं. दूसरी और इसे एक विडम्बना ही कहेंगे कि अब तक किसी सरकारी संस्था ने कोई अध्ययन भी शुरू नहीं किया है या न ये जानने की कोशिश की है कि क्या जन्मजात विकृतियों या गंभीर बीमारियों के साथ पैदा हो रही ये पीढियां गैस कांड से जुड़े किन्ही कारणों का नतीजा हैं या कुछ और. और ना ही शासन ने अब तक इस तरह के बच्चों को लेकर कोई कार्रवाई नहीं की है. इन बस्तियों में नज़र दौडाने पर अधूरा पडा सरकारी काम अपने ढुलमुल रवैये की कहानी खुद बताता है.

कितने हुए प्रभावित :- जिस वख्त यह हादसा हुआ उस समय भोपाल की आबादी कुल 9 लाख के आसपास थी और उस समय लगभग 6 लाख के आसपास लोग युनियन कार्बाइड कारखाने की जहरीली गैस से प्रभावित हुए थे सरकारी आंकड़ों के मुताबिक़ लगभग 3000 लोग मारे गए थे. खैर ये थे सरकारी आंकड़े लेकिन यदि गैर सरकारी आंकड़ों की बात की जाए तो अब तक इस त्रासदी में मरने वालों की संख्या 20 हज़ार से भी ज़्यादा है. और लगभग 6 लाख लोग आज भी स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं से जूझ रहे हैं.

क्या है सरकारी क़वायद :- 2-3 दिसंबर 1984 की दरमियानी रात हुई गैस के रिसाव के बाद 1985 में भारत सरकार ने भोपाल गैस विभीषिका अधिनियम पारित कर जिसके बाद अमेरिका में यूनियन कार्बाइड के खिलाफ अदालती कार्यवाही शुरू हुई. लेकिन इससे पूर्व ही यूनियन कार्बाइड के मुखिया वारेन एंडरसन को 5 दिसंबर 1984 को ही भोपाल आने पर ज़मानत दे दी गई थी साथ देश से बाहर जाने अनुमति भी. अमेरिकी अदालत ने इसे क्षेत्राधिकार की बात करते हुए अदालती कार्यवाही भारत में ही चलाने के बात कही. जिसके पश्चात भारत सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर फरवरी 1989 को यूनियन कार्बाइड से 470 मिलियन डालर यानि उस वख्त के हिसाब से लगभग सात सौ दस करोड़ इक्कीस लाख रूपए लेना स्वीकार कर लिया. उसमें से मवेशियों के लिए 113 करोड़ और बाकी की राशी लगभग 1 लाख 5 लज़ार पीडितो के लिए अनुमानित थी जिनको 1989 के आदेशों के मुताबिक़ 57 हज़ार रुपये प्रति व्यक्ति मिलाने वाले थे. जबकि उस दौरान तक पीड़ितों की संख्या बढाकर 5 लाख पहुँच गई थी सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 31 अक्टूबर 2009 तक पांच हज़ार चौहत्तर हज़ार तीन सौ बहत्तर गई पीड़ितों को मुआवजा दिया जा चुका है वह भी सिर्फ 200 रुपये प्रतिमाह अंतरिम राहत के तौर पर. कुछ लोगों का यह कहना है कि गैस पीड़ितों को मुआवजे में कम राशि दी गई है मृतकों के परिवार को महज़ 1 लाख रुपये की दो किस्त देकर मामला दबा दिया गया. तो कुछ पीड़ितों को मात्र 25 हज़ार रुपये दे दिए गए.

न्याय को तरस रहे हैं पीड़ित :- सदी की सबसे बडी औद्योगिक त्रासदी 'भोपाल गैस कांड' के मामले में सीजेएम कोर्ट ने आखिरकार 25 साल बाद सभी आठ दोषियों को दो साल की कैद की सजा सुनाई. सभी दोषियों पर एक-एक लाख रूपए और यूनियन कार्बाइड इंडिया पर पांच लाख रूपए का जुर्माना ठोका गया. इतना ही नहीं सजा का ऎलान होने के बाद ही सभी दोषियों को 25-25 हजार रूपए के मुचलके पर जमानत भी दे दी गई. अब इसे अंधे क़ानून का अधुरा इंसाफ न कहें तो और क्या कहें. क्योंकि न्याय का इन्तेज़ार कर रहे गैस पीड़ितों को फिर निराशा ही हाथ लगी है. ये वही गैस पीड़ित हैं जो पिछले 28 सालों से जांच एजेंसियों, सरकार और राजनीतिक दलों द्वारा ठगते आ रहे हैं. आज उन्हें न्याय की उम्मीद थी लेकिन वो भी पूरा नहीं मिला. त्रासदी का मुख्य गुनहगार वारेन एंडरसन अभी भी फरार है. सरकार एंडरसन के प्रत्यर्पण में सफल नहीं हो पाई है. अदालत ने आठों आरोपियों को धारा 304 ए के तहत लापरवाही का दोषी करार दिया था. कोर्ट के फैसले पर गैस पीड़ितों में जमकर रोष है. गैस पीड़ितों ने दोषियों के लियी फांसी की सज़ा की मांग की है. आश्चर्य जनक तथ्य यह है कि गैस त्रासदी में 25000 से ज़्यादा लोग मारे गए थे. और उनके दोषियों को महज़ 2 साल की सज़ा दी गई. जबकि कंपनी पर 5 लाख का जुर्माना लगाया गया. क्या 25000 लोगों की मौत के जिम्मेदारों के लिए यह सज़ा काफी है. 25 साल पहले 2/3 दिसंबर 1984 की दरमियानी रात को भोपाल स्थित यूनियन कार्बाइड कारखाने से रिसी जहरीली मिथाइल आइसोसायनेट गैस के कारण 25000 से ज़्यादा लोग मारे गए थे. और अनेक लोग स्थायी रूप से विकलांग हो गए थे. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक इस दुर्घटना के कुछ ही घंटों के भीतर तीन हज़ार लोग मारे गए थे. अब एक अहम सवाल यह उठता है कि क्या इस फैसले से पीड़ितों को न्याय मिला है ? फैसले के बाद चारों तरफ से तीखी प्रतिक्रियाएं सामने आ रही हैं. लोग इसे अंधे क़ानून का अधूरा इंसाफ कह रहे हैं. जब छह दिसंबर 1984 को यह मामला सीबीआई को जांच के मिला था. तब गैस त्रासदी की जांच कर रही सीबीआई ने विवेचना पूरी कर एक दिसंबर 1987 को यूनियन कार्बाइड के खिलाफ यहां जिला अदालत में आरोप पत्र पेश किया था, जिसके आधार पर सीजेएम ने भारतीय दंड संहिता की धारा 304 एवं 326 तथा अन्य संबंधित धाराओं में आरोप तय किए थे. इन आरोपों के खिलाफ कार्बाइड ने उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाया और शीर्ष अदालत ने 13 सितंबर 1996 को धारा 304, 326 के तहत दर्ज आरोपों को कम करके 304 (ए), 336, 337 एवं अन्य धाराओं में तब्दील कर दिया. जिससे केस कमज़ोर हो गया. एक अहम सवाल यह भी है कि क्या जान बूझकर केस को कमज़ोर करने के कोशिश की गई. धारा 304 (ए) के तहत अधिकतम दो वर्ष के कारावास का ही प्रावधान है. 25 बरस न्याय का इन्तेज़ार करने वाले गैस पीड़ित छले गए हैं. 25 बरस राजनीतिक दांवपेंच का शिकार होते रहे. अफसोस की बात तो यह है कि इतना बड़ा हादसा होने के बाद इसके ज़िम्मेदारों को कड़े से कड़ी सजा मिले इसके लिए पीड़ितों को न्याय के लिए 25 बरस का इन्तेज़ार करना पड़ा. इस हादसे में सबसे ज़्यादा प्रभावित ऐसे लोग थे जो रोज़ कुआ खोदने और रोज़ पानी पीने का काम किया करते थे. आज 25 साल बाद जब कोर्ट ने फैसला दिया तो दोषियों को 25 हज़ार के मुचलके पर ज़मानत भी दे दी गई. और न्याय को तरसते पीड़ित अपनी विवशता और लाचारी दोहराने को मजबूर दिखाई दिए. इसे हमारे देश की विडम्बना कहें या फिर इस देश के निवासियों का दुर्भाग्य, सरकार 11 करोड़ रुपये खर्च कर स्मारक बनाने की बात तो करती है लेकिन भ्रष्टाचार में डूबे सरकारी तंत्र और न्याय प्रक्रिया में सुधार लाकर वास्तविक गैस पीड़ितों न्याय दिलाने की दिशा में कोई सकारात्मक कदम नहीं उठा सकती.

केंद्र नहीं दे रहा मदद :- नगरिय प्रशासन मंत्री बाबूलाल गौर का कहना है कि गैस त्रासदी एक्ट 1985 के अंतर्गत केंद्र सरकार ने गैस पीड़ितों को मदद देने की पूरी जिम्मेदारी ली थी. इसके बावजूद 1999 से अब तक कोई राशि केंद्र सरकार ने नहीं दी है. राज्य सरकार गैस पीड़ितों पर 250 करोड़ रुपए खर्च कर चुकी है. राज्य सरकार ने 982 करोड़ रुपए की कार्य योजना केंद्र को भेजी है जो मंजूर की जानी चाहिए. उन्होंने कहा कि राज्य सरकार एक स्मारक भी बनाना चाहती है. इसके लिए राज्य सरकार ने 11 करोड़ रुपए भी मंजूर किए हैं.

बहरहाल अफसोस की बात तो यह है कि इतना बड़ा हादसा होने के बाद इसके ज़िम्मेदारों को कोई सजा नहीं मिली सज़ा तो दूर इस हादसे से प्रभावित हुए लोगों की सही न्याय भी नहीं मिला. जबकि इस हादसे में सबसे ज़्यादा प्रभावित ऐसे लोग थे जो रोज़ कुआ खोदने और रोज़ पानी पीने का काम किया करते थे. काफ़ी विरोध के बाद 1992 में भोपाल की एक अदालत ने वारेन एंडरसन के खिलाफ वारंट जारी कर सीबीआई से इस मामले में कार्यवाही करने को कहा था. 2001 से यूनियन कार्बाइड पर मालिकाना डाओ केमिकल्स अमेरिका का है जिसने अभी तक कारखाना परिसर से जहरीला रासायनिक कचरा हटाने में भी कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई. और आज भी 28 वर्षों से गैस पीड़ित इस ज़ख्म के साथ दर्द भरा जीवन जीने को मजबूर है और मरहम को तरस रहे हैं इसे हमारे देश की विडम्बना कहें या फिर इस देश के निवासियों का दुर्भाग्य, की सरकार भ्रष्टाचार में डूबे सरकारी तंत्र में सुधार लाकर वास्तविक गैस पीड़ितों न्याय दिलाने की दिशा में कोई सकारात्मक कदम नहीं उठा सकती.

June 24, 2010

आनर किलिंग: रूढीवादी समाज को एक दिन स्वीकार करना ही होगा प्रेम विवाह


(कमल सोनी)>>>> सम्मान के नाम पर के जाने वाली हत्याओं के पीछे समाज की घटिया रुढीवादी मानसिकता ही है. और इसकी तीखी आलोचना की जानी चाहिए. हैरत की बात तो यह है कि इस रूढीवादी मानसिकता से पीड़ित आज के युवा भी हैं. दिल्ली में आनर किलिंग के नाम पर हुई तीन हत्याओं के बाद पकडे गए तीन युवकों से तो यही पता चलता है. प्रेम के नाम पर सदियों से इस तरह की कारगुजारियों को अंजाम दिया जाता रहा है. लेकिन क्या कभी प्रेम कम हुआ नहीं. इतना सब कुछ होने के बाद अब प्रेम विवाह को गलत मानने वाले समाज के चंद ठेकेदारों को यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि वे अंतरजातीय या सामान गोत्र में होने वाले प्रेम विवाह को रोक नहीं सकते. आनर किलिंग के नाम पर की जाने वाली हत्याओं को जघन्य अपराध की श्रेणी में रखा जाना चाहिए. इसके लिए सिर्फ ह्त्या का दोषी मानकर अपराधी को सज़ा दे दी जाए तो यह कम होगा. सम्मान के नाम पर प्रेमी प्रेमिका की ह्त्या और उसके बाद हत्या के आरोप में घर का ही कोई सदस्य को सज़ा मिले निश्चित रूप से इससे पूरा परिवार ही बिखर जाता है. समाज के ठेकेदारों को इस झूटी शान के लिए इन हत्याओं को बंद करना होगा. और आज नहीं तो वह दिन भी दूर नहीं जब समाज इस सच को स्वीकारेगा.

June 7, 2010

भोपाल गैस त्रासदी: दर्दनाक जख्म के 25 बरस, सज़ा महज़ 2 साल ? क्या इतने से ही मिल गया गैस पीड़ितों को न्याय ?

(कमल सोनी)>>>> सदी की सबसे बडी औद्योगिक त्रासदी 'भोपाल गैस कांड' के मामले में सीजेएम कोर्ट ने आखिरकार 25 साल बाद सभी आठ दोषियों को दो साल की कैद की सजा सुनाई है. सभी दोषियों पर एक-एक लाख रूपए और यूनियन कार्बाइड इंडिया पर पांच लाख रूपए का जुर्माना ठोका गया है. इतना ही नहीं सजा का ऎलान होने के बाद ही सभी दोषियों को 25-25 हजार रूपए के मुचलके पर जमानत भी दे दी गई. अब इसे अंधे क़ानून का धुरा इंसाफ न कहीं तो और क्या कहें. क्योंकि 25 साल तक न्याय का इन्तेज़ार कर रहे गैस पीड़ितों को फिर निराशा ही हाथ लगी है. ये वही गैस पीड़ित हैं जो पिछले 25 सालों से जांच एजेंसियों, सरकार और राजनीतिक दलों द्वारा ठगते आ रहे हैं. आज उन्हें न्याय की उम्मीद थी लेकिन वो भी पूरा नहीं मिला. त्रासदी का मुख्य गुनहगार वारेन एंडरसन अभी भी फरार है. सरकार एंडरसन के प्रत्यर्पण में सफल नहीं हो पाई है. अदालत ने आठों आरोपियों को धारा 304 ए के तहत लापरवाही का दोषी करार दिया था. कोर्ट के फैसले पर गैस पीड़ितों में जमकर रोष है. गैस पीड़ितों ने दोषियों के लियी फांसी की सज़ा की मांग की है. आश्चर्य जनक तथ्य यह है कि गैस त्रासदी में 25000 से ज़्यादा लोग मारे गए थे. और उनके दोषियों को महज़ 2 साल की सज़ा दी गई. जबकि कंपनी पर 5 लाख का जुर्माना लगाया गया. क्या 25000 लोगों की मौत के जिम्मेदारों के लिए यह सज़ा काफी है. 25 साल पहले 2/3 दिसंबर 1984 की दरमियानी रात को भोपाल स्थित यूनियन कार्बाइड कारखाने से रिसी जहरीली मिथाइल आइसोसायनेट गैस के कारण 25000 से ज़्यादा लोग मारे गए थे. और अनेक लोग स्थायी रूप से विकलांग हो गए थे. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक इस दुर्घटना के कुछ ही घंटों के भीतर तीन हज़ार लोग मारे गए थे. अब एक अहम सवाल यह उठता है कि क्या इस फैसले से पीड़ितों को न्याय मिला है ? फैसले के बाद चारों तरफ से तीखी प्रतिक्रियाएं सामने आ रही हैं. लोग इसे अंधे क़ानून का अधूरा इंसाफ कह रहे हैं. जब छह दिसंबर 1984 को यह मामला सीबीआई को जांच के मिला था. तब गैस त्रासदी की जांच कर रही सीबीआई ने विवेचना पूरी कर एक दिसंबर 1987 को यूनियन कार्बाइड के खिलाफ यहां जिला अदालत में आरोप पत्र पेश किया था, जिसके आधार पर सीजेएम ने भारतीय दंड संहिता की धारा 304 एवं 326 तथा अन्य संबंधित धाराओं में आरोप तय किए थे. इन आरोपों के खिलाफ कार्बाइड ने उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाया और शीर्ष अदालत ने 13 सितंबर 1996 को धारा 304, 326 के तहत दर्ज आरोपों को कम करके 304 (ए), 336, 337 एवं अन्य धाराओं में तब्दील कर दिया. जिससे केस कमज़ोर हो गया. एक अहम सवाल यह भी है कि क्या जान बूझकर केस को कमज़ोर करने के कोशिश की गई. धारा 304 (ए) के तहत अधिकतम दो वर्ष के कारावास का ही प्रावधान है. 25 बरस न्याय का इन्तेज़ार करने वाले गैस पीड़ित छले गए हैं. 25 बरस राजनीतिक दांवपेंच का शिकार होते रहे. अफसोस की बात तो यह है कि इतना बड़ा हादसा होने के बाद इसके ज़िम्मेदारों को कड़े से कड़ी सजा मिले इसके लिए पीड़ितों को न्याय के लिए 25 बरस का इन्तेज़ार करना पड़ा. इस हादसे में सबसे ज़्यादा प्रभावित ऐसे लोग थे जो रोज़ कुआ खोदने और रोज़ पानी पीने का काम किया करते थे. आज 25 साल बाद जब कोर्ट ने फैसला दिया तो दोषियों को 25 हज़ार के मुचलके पर ज़मानत भी दे दी गई. और न्याय को तरसते पीड़ित अपनी विवशता और लाचारी दोहराने को मजबूर दिखाई दिए. इसे हमारे देश की विडम्बना कहें या फिर इस देश के निवासियों का दुर्भाग्य, सरकार 11 करोड़ रुपये खर्च कर स्मारक बनाने की बात तो करती है लेकिन भ्रष्टाचार में डूबे सरकारी तंत्र और न्याय प्रक्रिया में सुधार लाकर वास्तविक गैस पीड़ितों न्याय दिलाने की दिशा में कोई सकारात्मक कदम नहीं उठा सकती.

इस भीषण त्रासदी के गुनाहगार :- यूका के मालिक वारेन एंडरसन, यूसीआईएल भोपाल के चेयरमेन केशव महिन्द्रा, मैनेजिंग डायरेक्टर विजय गोखले, वाइस प्रेसिडेंट किशोर कामदार, वर्क्स मैनेजर जे मुकुंद, असिस्टेंड वर्क्स मैनेजर डॉ. आरपीएस चौधरी, प्रोडक्शन मैनेजर एसपी चौधरी, प्लांट सुप्रीटेंडेंट केपी शेट्टी, प्रोडक्शन असिस्टेंट एमआर कुरैशी सहित यूका कार्पोरेशन लि. यूएसए, यूसीसी ईस्टर्न इंडिया हांगकांग और यूका इंडिया लि. कोलकाता पर मुकदमा चल रहा है. भोपाल गैस कांड के आरोपियों में से मुख्य आरोपी वारेन एंडरसन, यूका कार्पोरेशन लि. यूएसए और यूसीसी ईस्टर्न इंडिया हांगकांग फरार घोषित हैं. जबकि आरपीएस चौधरी की मौत हो चुकी है.

June 5, 2010

प्रकृति का 'दोहन' नहीं 'संरक्षण' की ज़रूरत (5 जून विश्व पर्यावरण विशेष)



वृक्ष धरा का हैं श्रंगार.
इनसे करो सदा तुम प्यार.
इनकी रक्षा धर्म तुम्हारा.
ये हैं जीवन का आधार..
(कमल सोनी)>>>> 5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस है. प्रकृति के अंधाधुंध दोहन ने हालात ख़राब कर दिया है, हम अपने स्वार्थ में आने वाली पीढ़ी की चिंता नहीं कर रहे हैं. साल-दर-साल बारिश का कम होना, भूजल स्तर कम होना और इसके विपरीत गर्मी की तपन बढ़ते जाना आदि चीजें सीधे-सीधे इसी पर्यावरण से जुड़ी हैं. जब इसके दृष्टिगोचर होते परिणामों के बाद अब तो हमें चेत ही जाना चाहिए कि यह पर्यावरण हमारे लिए जीवन के लिए अत्यंत उपयोगी है. और इसके दोहन नहीं संरक्षण की ज़रूरत है. तो क्यों न सर्वप्रथम इसकी रक्षा की जाए और समय रहते ग्लोबल वार्मिंग के दुष्प्रभावों से बचा जाए. सच पूछें तो पर्यावरण की सुरक्षा के लिए हमे कुछ ज्यादा करना भी नहीं है. सिर्फ एक पहल करनी है यानी खुद को एक मौका देना है. हमारी छोटी-छोटी, समझदारी भरी पहल पर्यावरण को बेहद साफ-सुथरा और तरो-ताजा कर सकती है. प्रदूषण न केवल राष्ट्रीय अपितु अन्तर्राष्ट्रीय भयानक समस्या है. मनुष्य के आसपास जो वायुमंडल है वो पर्यावरण कहलाता है. पर्यावरण का जीवजगत के स्वास्थ्य एवं कार्यकुशलता से गहरा सम्बन्ध है. पर्यावरण को पावन बनाए रखने में प्रकृति का विशेष महत्व है. प्रकृति का संतुलन बिगड़ा नहीं कि पर्यावरण दूषित हुआ नहीं. पर्यावरण के दूषित होते ही जीव- जगत रोग ग्रस्त हो जाता है. वातावरण में संतुलन बनाए रखने वाला माध्यम अर्थात् पेड़- पौधे उपेक्षा का शिकार बनाए जा रहे हैं. समय रहते यह क्रम यदि रुका नही, वृक्षारोपण अभियान तीव्रता से तथा सुरक्षात्मक ढंग से यदि चलाया नही गया, तो प्रदूषण असाध्य रोग बन जाएगा. मनुष्य तथा अन्य वन जीवों को अपने जीवन के प्रति संकट का सामना करना पड़ रहा है. प्रदूषित पर्यावरण का प्रभाव पेड़ पौधे एवं फसलों पर पड़ा है. समय के अनुसार वर्षा न होने पर फसलों का चक्रीकरण भी प्रभावित हुआ है. प्रकृति के विपरीत जाने से वनस्पति एवं जमीन के भीतर के पानी पर भी इसका बुरा प्रभाव देखा जा रहा है. जमीन में पानी के श्रोत कम हो गए हैं. इस पृथ्वी पर कई प्रकार के अनोखे एवं विशेष नस्ल की तितली, वन्य जीव, पौधे गायब हो चुके हैं. कहा भी जाता है कि एक पेड़ लगाने से एक यज्ञ के बराबर पुण्य फल प्राप्त होता है. कम से कम एक पेड़ जरूर लगाएँ और इसकी देखभाल भी करें. कुछ वर्षों बाद यह बड़ा होगा देखकर दिल को सुकून देगा. हर साल या 2 साल में या 5 साल में भी 1-1 वृक्ष आपने लगाया तो मैं समझता हूँ प्रकृति भी इसका तहेदिल से जरूर श‍ुक्रिया अदा करेगी और आगे चलकर इससे निश्चित रूप से हम लाभान्वित होंगे.

संयुक्त राष्ट्र महासभा की पहल :- विश्व पर्यावरण दिवस की शुरुआत संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 1972 में की थी. इसी साल मानव पर्यावरण पर स्टॉकहोम कॉन्फ्रंस आयोजित की गई. विश्व पर्यावरण दिवस दरअसल, इसके प्रतीक के रूप में ही निर्धारित किया गया था. तभी से यह हर साल पांच जून को मनाया जाता है. विश्व पर्यावरण दिवस के माध्यम से संयुक्त राष्ट्र दुनियाभर में पर्यावरण के प्रति जागरूकता कायम करने का प्रयास करता है. इसी दिन विभिन्न देशों में पर्यावरण सुरक्षा से जुड़े कई सरकारी कार्यक्रम भी शुरू किए जाते हैं. संयुक्त राष्ट्र का मानना है कि पर्यावरण की सुरक्षा आम आदमी की कोशिशों से ही संभव हो सकती है. सभी को समझाना होगा कि इस काम के लिए वह कितने ज्यादा महत्वपूर्ण हैं. पूरी दुनिया को पर्यावरण बचाने के लिए लोगों के साथ देशों को भी आपस में मिलकर काम करना होगा, जिससे दुनियाभर के लोग सुरक्षित और संपन्न भविष्य का लाभ ले सकें. लेकिन इस वर्ष हम 38 वां विश्व पर्यावरण दिवस मना रहे हैं पिछले 38 सालों से इस परम्परा का बखूबी पालन कर रहे हैं लेकिन इसके कितने बेहतर परिणाम मिले वे हमारे सामने ही है. हालाकि इस दिशा में कुछ हद तक सफलता ज़रूर मिली लेकिन क्या इसे सराहनीय कहा जा सकता है... .. ? क्या आज जो परिणाम हमारे सामने है उन्हें आशानुरूप कहा जा सकता है... .. ? नहीं

ग्लोबल वार्मिंग पर सामाजिक और राजनीतिक बहस :- वैज्ञानिक निष्कर्षों के प्रचार के कारण दुनिया में राजनीतिक और आर्थिक बहस छिड़ गई है. गरीब क्षेत्रों, खासकर अफ्रीका, पर बडा जोखिम दिखाई देता है जबकि उनके उत्सर्जन विकसित देशों की तुलना में काफी कम रहे हैं. इसके साथ ही, विकासशील देश की क्योटो प्रोटोकॉल के प्रावधानों से छूट संयुक्त राज्य अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया, द्वारा नकारी गई है और इसको अमेरिका के अनुसमर्थन का एक मुद्दा बनाया गया है. जलवायु परिवर्तन का मुद्दा एक नया विवाद ले आया है कि ग्रीनहाउस गैस के औद्योगिक उत्सर्जन को कम करना फाइदेमंद है या उस पर होने वाला खर्च ज्यादा नुकसानदेह है कई देशों में चर्चा की गई है कि वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों को अपनाने में कितना खर्च आएगा और उसका कितना लाभ होगा. प्रतियोगी संस्थान और जैसी कंपनियों ने यह कहा है कि हमें जलवायु की ज्यादा बुरी हालत की कल्पना करके ऐसे कदम नही उठाने हैं जो बहुत ज्यादा खर्चीले हों. इसी तरह, पर्यावरण की विभिन्न सार्वजनिक लॉबी और कई लोगों ने अभियान शुरू किए हैं जो जलवायु परिवर्तन के जोखिम पर ज़ोर डालते हैं और कड़े नियंत्रण करने की वकालत करते हैं. जीवाश्म ईंधन की कुछ कंपनियों ने अपने प्रयासों को हाल के वर्षों में कम किया है या ग्लोबल वार्मिंग के लिए नीतियों की वकालत की है. विवाद का एक और मुद्दा है कि उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं जैसे भारत और चीन से कैसी उम्मीद की जानी चाहिए कि वे अपने उत्सर्जन को कितना कम करें. हाल की रिपोर्ट के अनुसार, चीन के सकल राष्ट्रीय उत्सर्जन अमरीका से ज्यादा हो सकते हैं, पर चीन ने कहा है कि प्रति व्यक्ति उत्सर्जन अमरीका से पाँच गुना कम है इसलिए उस पर यह बंदिश नही होनी चाहिए. भारत ने भी इसी बात को दोहराया है जिसे क्‍योटो प्रतिबंधों से छूट प्राप्त है और जो औद्योगिक उत्सर्जन का सबसे बड़ा स्रोत है.

पूरी दुनिया के मुकाबले हिमालय ज्यादा तेज़ गति से गर्म हो रहा है एक आंकड़े के मुताबिक गत 100 वर्षों में हिमालय के पश्चिमोत्तर हिस्से का तापमान 1.4 डिग्री सेल्सियस बढ़ा है. जो कि शेष विश्व के तापमान में हुए औसत इजाफे (0.5-1.1 डिग्री सेल्सियस) से अधिक है. रक्षा शोध एवं विकास संस्थान (डीआरडीओ) और पुणे विश्वविद्यालय के भूगर्भ विज्ञान विभाग के वैज्ञानिकों ने क्षेत्र में बर्फबारी और बारिश की विविधता का अध्ययन किया था वैज्ञानिकों ने पाया कि एक और बढ़ती गर्मी के कारण सर्दियों की शुरुआत अपेक्षाकृत देर से हो रही है तो दूसरी और बर्फबारी में भी कमी आ रही है. शोधकर्ताओं का कहना है कि पश्चिमोत्तर हिमालय का इलाका पिछली शताब्दी में 1.4 डिग्री सेल्सियस गर्म हुआ है जबकि दुनिया भर में तापमान बढ़ने की औसत दर 0.5 से 1.1 डिग्री सेल्सियस रही है. “अध्ययन का सबसे रोचक निष्कर्ष यह रहा कि पिछले तीन दशकों के दौरान पश्चिमोत्तर हिमालय क्षेत्र के अधिकतम और न्यूनतम तापमान में तेज इजाफा हुआ जबकि दुनिया के अन्य पर्वतीय क्षेत्रों जैसे कि आल्प्स और रॉकीज में न्यूनतम तापमान में अधिकतम तापमान की अपेक्षा अधिक तेजी से वृद्धि हुई है.” अध्ययन के लिए इस क्षेत्र से संबंधित आंकड़े भारतीय मौसम विभाग (आईएमडी) स्नो एंड अवलांच स्टडी इस्टेब्लिशमेंट (एसएएसई) मनाली और इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ ट्रॉपिकल मीटरोलॉजी से जुटाए गए थे. जलवायु परिवर्तन के कारण अनेक दुष्परिणाम सामने आ रहे है. यदि यह सब ऐसे ही चलता रहा, तो हमारी पृथ्वी को आग का गोला बनते देर न लगेगी. और तब क्या होगा इसकी तो कल्पना भी नहीं की जा सकती जिस तरह जलवायु परिवर्तन के कारण डायनासोर धरती से अचानक विलुप्त हो गए. ठीक उसी तरह जलवायु परिवर्तन के कारण अन्य जीव-जंतुओं पर भी ऐसा ही खतरा मंडरा रहा है. एक अनुमान के मुताबिक, 2050 तक पृथ्वी के 40 फीसदी जीव-जंतुओं का खात्मा हो जाएगा! इतना ही नहीं जलवायु परिवर्तन का खासा असर इंसानों पर भी पड़ने वाला है जिससे हम अनभिज्ञ नहीं है लेकिन हाँ सतर्क भी नहीं.

समस्या :- यूं तो ५ जून को सारा विश्व ''विश्व पर्यावरण दिवस'' के रूप में मनाता हैं इस दिन हम संकल्प लेते है पर्यावरण को संरक्षित करने का व प्रकृति का दोहन रोकने का. पर्यावरण संरक्षण की बातें संस्थाओं, राजनेताओं द्वारा खूब प्रचारित की जाती है. लेकिन धरातल पर लाने के प्रयास न के बराबर है. देशभर में हजारों संस्थाएं है जो पर्यारण संरक्षण पर कार्य कर रही है जिन्हें प्रत्येक वर्ष करोड़ों रूपये का अनुदान भी मिल रहा है. कागजी आंकड़ों और आसमानी योजनाओं के रिकार्ड को खंगाले तो ऐसा लगता है मानों इन्हीं के कारण पूरी दुनिया हरी-भरी है. जबकि हकीकत में देखा जाए तो तस्वीर दूसरी है. पर्यारण संरक्षण के लिए उठाए जाने वाले दूरगामी कदम व योजनाओं के प्रति उदारता नहीं दिखाई जाती. पिछले वर्ष दुनिया भर के देशों ने एक जगह बैठक ग्लोबल वार्मिंग पर मंथन किया. खूब हंगामा हुआ, खूब आरोप-प्रत्यारोप मड़े गए, नतीजा में क्या निकला? न पर्यावरण के प्रति कोई चिंतित दिखा और न ही कोई आगे आकर अपने देश में कार्वन उत्सर्जन को कम करने पर राजी हुआ. जहां तक भारत देश की बात की जाए तो यहां भी सरकारी योजनाएं खूब बनती है. अरबों का बजट भी होता है. लेकिन योजनाएं अमल में आने से पहले या तो भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाती है या फिर सही संरक्षण न हो पाने से विफल हो जाती है. दूसरे पहलुओं में प्रकृति के दोहन की भी देश में योजनाएं निर्माणाधीन है. बड़े-बड़े बांध, उद्योग निर्माण कार्यों के चलते प्रकृति से खिलवाड़ किया जा रहा है. विकास की अंधी रफ्तार में प्रकृति को भी पहली सीढ़ी बनाया जा रहा है. जिसका ही नतीजा है कि आज प्राकृतिक असंतुलल पैदा हो गया है. बिन मौसम बरसात, बाढ़, प्रकोप, कम बारिश होना, झुलसने वाली गर्मी, सूखा जैसी स्थितियां प्रकृति से की जा रही छेड़खानी का ही नतीजा है. धरती के वस्त्र और आभूषण, नदियां, जंगल, पहाड़ है. लालच की पराकाष्ठा को अपनाने वाले विकास ने इन्हें नष्ट करके धरती को नंगा कर दिया है. जिंदा रहने के लिए सांस लेना जरूरी है, लेकिन फैक्ट्रियों और वाहनों की रासायनिक धुँए से हवा में लगातार कार्बन डाई आक्साइड की मात्रा बढ़ रही है जो जलवायु परिवर्तन का प्रमुख कारण है. एक रिसर्च के मुताबिक आने वाले सौ सालों में वायुमंडल में कार्बन डाई ऑक्साइड की मात्रा मौजूदा स्तर की तीन गुना हो जाएगी. तब हर किसी को ऑक्सीजन मास्क पहनने की ज़रुरत पड़ेगी दूसरी और सडकों के निर्माण और उद्योगों के विस्तार के चलते अंधाधुंध पेड़ों की कटाई से वर्षा का प्रभावित होना भी जलवायु परिवर्तन का एक विशेष कारण रहा है परिणाम स्वरुप धरती के जलस्तर में भी गिरावट आ रही है पूरे देश में मौजूदा पानी किल्लत यही दर्शाती है. हरे-भरे वातावरण के प्रति लोगों में चेतना आने के बावजूद हालात बद से बदतर हुए है. सामाजिक रूप से हमारे अंदर पर्यारण से जुड़े मुद्दों के प्रति चिंता बढ़ी है. या अच्छा है, लेकिन हमें यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि हम पर्यावरण प्रबंधन को लेकर विफल हो रहे है. समाज के रूप में हमें न केवल पर्यावरण के प्रति जागरूक होना है, बल्कि उसके लिए कुछ करना भी हैं इस समस्या का समाधान आसान नहीं हैं मगर पर्यावरण की चुनौती आज भी कायम है.

पर्यावरण संरक्षण के प्रयास :-
* जंगलों को न काटे.
* जमीन में उपलब्ध पानी का उपयोग तब ही करें जब आपको जरूरत हो.
* कार्बन जैसी नशीली गैसों का उत्पादन बंद करे.
* उपयोग किए गए पानी का चक्रीकरण करें.
* ज़मीन के पानी को फिर से स्तर पर लाने के लिए वर्षा के पानी को सहेजने की व्यवस्था करें.
* ध्वनि प्रदूषण को सीमित करें.
* प्लास्टिक के लिफाफे छोड़ें और रद्दी कागज के लिफाफे या कपड़े के थैले इस्तेमाल करें.
* जिस कमरे मे कोई ना हो उस कमरे का पंखा और लाईट बंद कर दें.
* पानी को फालतू ना बहने दें.
* आज के इंटरनेट के युग मे, हम अपने सारे बिलों का भुगतान आनलाईन करें तो इससे ना सिर्फ हमारा समय बचेगा बल्कि कागज के साथ साथ पैट्रोल डीजल भी बचेगा.
* ज्यादा पैदल चलें और अधिक साइकिल चलाएंगे.
* प्रकृति से धनात्मक संबंध रखने वाली तकनीकों का उपयोग करें. जैसे :- जैविक खाद का प्रयोग, डिब्बा-बंद पदार्थो का कम इस्तेमाल.
* जलवायु को बेहतर बनाने की तकनीकों को बढ़ावा दें.
* पहाड़ खत्म करने की साजिशों का विरोध करें.

आज ज़रुरत है 5 जून के वास्तविक महत्व को समझने की और पर्यावरण के संरक्षण के प्रति खुद को संकल्पित करने की पर्यावरण संरक्षण दिवस साल में एक बार महज़ एक औपचारिकता के रूप में मनाने का दिन नहीं है बल्कि स्वयं को दूसरों को पर्यावरण संरक्षण के प्रति प्रेरित करने का है किसी ने सच ही कहा है "हम बदलेंगे जग बदलेगा, हम सुधरेंगे जग सुधरेगा" यदि पूरे साल पर्यावरण संरक्षण की दिशा में काम किया जाय ऐसे आयोजन किये जाएँ जहां आमजनमानस में पर्यावरण संरक्षण के प्रति जागरूकता लाइ जा सके पेड़ों की कटाई करने की अपेक्षा ज़्यादा से ज्यादा मात्रा में नए पेड़ और उद्यान लगाये जाएँ, धरती के जल स्तर को संतुलित करने के लिए इमारतों, घरों और सडकों का निर्माण "वाटर हारवेस्टिंग" प्रणाली के तहत किया जाये उद्योगों का रासायनिक कचरा नष्ट करने की विधी विकसित की जाए जो सीधे तौर पर पर्यावरण को इतना नुकसान न पहुंचा सकें. सामान्य तौर पर हो वाहनों के प्रयोग में कमी लाई जाये तो जलवायु में होने वाले इस क्रमिक परिवर्तन को रोका जा सकता है. आज वास्तविक ज़रूरत है प्रकृति का 'दोहन' नहीं बल्कि 'संरक्षण' किया जाए. ताकि ग्लोबल वार्मिंग जैसी गंभीर समस्या पर विजय हासिल हो सके.


May 24, 2010

क्या आम आदमी के लिहाज़ से केंद्र सरकार के कार्यकाल का पहला साल संतोषजनक है ?



भारत के प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह ने केन्द्र सरकार के दूसरे कार्यकाल के एक वर्ष पूर्ण होने पर आज नई दिल्ली में केंद्र सरकार की उपलब्धियां गिनाईं और इस कार्यकाल को 'अहम उपलब्धियों' भरा कार्यकाल बताया. तमाम मुद्दों पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने सरकार की उपलब्धियां तो गिनाई पर उन्होंने यूपीए सरकार के कामकाज की समीक्षा के संबंध में अपनी ओर से स्वयं कोई नम्बर नहीं दिया और इसका फैसला जनता तथा मीडिया पर छोड़ दिया. उन्होंने कहा कि पिछले चंद दिनों से मीडिया में सरकार की नीतियों पर काफी बहस हुई है और मीडिया ने नम्बर भी दिए हैं. उन्होंने अपनी ही सरकार के कार्यकाल पर नंबर नहीं दिए जाने को अनुचित बताया. अब यदि यह अनुचित था तो पिछले साल उन्होंने यूपीए सरकार को १० में से छः नंबर क्यों दिए थे. और इस बार वे अपनी की सरकार को नंबर देने से क्यों कतराए. उन्होंने कहा नंबर देने का फैसला भारत की जनता और मीडिया करेगी. अब चूँकि यूपीए सरकार के कार्यकाल के एक वर्ष पूर्ण हो चुके हैं ऐसे में एक अहम सवाल यह उठता है. कि क्या आम आदमी के लिहाज़ से यह कार्यकाल संतोषजनक रहा. हालांकि बीजेपी ने नक्सलवाद और महंगाई जैसे मुद्दों पर प्रधानमंत्री से अपनी नीति स्पष्ट करने को कहा है. बीजेपी नेता अरूण जेटली ने कहा है कि आमतौर पर किसी भी सरकार का पहला साल बहुत आसानी से बीतता है. इस सरकार का कार्यकाल बीएसपी, एसपी और आरजेडी के अवसरवादी समर्थन से शुरू हुआ जिसके चलते सरकार को लगा मानो उसने चांद को हासिल कर लिया हो. इसके बाद से ही उसकी राजनीति में अहंकार पैदा हो गया. दूसरे कार्यकाल के पहले साल में सरकार को अपने कई मंत्रियों को लाल आंखें भी दिखानी पड़ी. आईपीएल विवाद के चलते शशि थरूर को विदेश राज्यमंत्री पद से हटा दिया गया तो चीन को लेकर गृह मंत्रालय के रुख पर टिप्पणी के मामले में जयराम रमेश भी बाल बाल बचे. संसद में कटौती प्रस्ताव के दौरान सरकार संकट में घिरी नजर आ रही थी लेकिन विपक्ष की एकता में ऐसी सेंध लगी कि कटौती प्रस्ताव लाने वाली भारतीय जनता पार्टी को शर्मसार होना पड़ा और सरकार ने विरोध आसानी से किनारे कर दिया. सुरक्षा के मोर्चे पर भारत को मुंबई के बाद से पुणे में जर्मन बेकरी को छोड़ कर किसी अन्य बड़े आतंकवादी हमले का सामना नहीं करना पड़ा है. लेकिन माओवादियों की चुनौती सरकार के माथे पर पसीना ला रही है. हाल के दिनों में माओवादियों ने सीआरपीएफ जवानों पर हमले तेज किए हैं जिसमें 110 जवानों की मौत हो चुकी है. यूपीए सरकार ने इस कार्यकाल में महिला आरक्षण बिल राज्यसभा में पेश किया तो शिक्षा के अधिकार को मौलिक अधिकार में शामिल करने का भी श्रेय हासिल किया. लेकिन महंगाई के मुद्दे पर सरकार की कड़ी आलोचना होती रही, तो आर्थिक मोर्चे पर देश को बेहतर स्थिति में रखने के मामले पर केंद्र सरकार अपनी पीठ थपथपाती रही. अब यह देखना दिलचस्प होगा कि लंबे-चौड़े वादों पर ज़बरदस्त जीत के साथ दोबारा सत्ता में आई यूपीए सरकार का रिपोर्ट कार्ड क्या कहता है. और जनता जितने नंबर देती है उसमें सरकार पास होगी या फेल ?

क्या आपके लिए यह कार्यकाल संतोषजनक रहा ?