tag:blogger.com,1999:blog-1526896146944635772024-02-18T18:12:56.877-08:00Abhivyakti [ अभिव्यक्ति ]ABHIVYAKTIhttp://www.blogger.com/profile/11939926628758225099noreply@blogger.comBlogger98125tag:blogger.com,1999:blog-152689614694463577.post-36468527774489370892012-12-02T20:56:00.001-08:002012-12-02T20:56:22.285-08:00भोपाल गैस त्रासदी: ज़ख्म के 28 बरस, मरहम से मरहूम पीड़ित<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
भोपाल (कमल सोनी) >>>> ठीक 28 साल पहले दो-तीन दिसंबर 1984 की दरमियानी रात भोपाल में मौत का कहर बरसाने वाली रात थी। तब से लेकर अब तक इस भीषण भोपाल गैस त्रासदी को गुजरे हुए 28 वर्ष हो गए हैं, लेकिन आज भी इस इलाके में जाने पर लगता है मानों कल की ही बात हो. आज 28 साल बाद भी हर सुबह दुर्घटना वाले दिन की अगली सुबह ही नजर आती है. यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री से ज़हरीले गैस रिसाव और रसायनिक कचरे के कहर का प्रभाव आज भी बना हुआ है. बच्चे अपंग होते रहे, मां के दूध में ज़हरीले रसायन पाये जाने की बात भी सामने आई, चर्म रोग, दमा, कैंसर और न जाने कितनी बीमारियां धीमा ज़हर बनकर आज भी गैस प्रभावितों को अपनी चपेट में ले रही हैं. मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में आज से 28 वर्ष पहले हुए दुनिया के सबसे बड़े औद्योगिक हादसे को लोग अभी तक नहीं भूल पाए हैं.<br /><br />क्या थी त्रासदी :- मध्य प्रदेश के भोपाल शहर मे 2-3 दिसम्बर सन् 1984 की रात भोपाल वासियों के लिए काल की रात बनकर सामने आई। इस दिन एक भयानक औद्योगिक दुर्घटना हुई। इसे भोपाल गैस कांड, या भोपाल गैस त्रासदी के नाम से जाना जाता है. 2-3 दिसम्बर 1984 को युनियन कार्बाइड कारखाने से अकस्मात मिथाइल आइसोसायनाईट अन्य रसायनों के रिसाव होने से कई जाने गईं थी. इस त्रासदी को 28 साल पूरे होने आए हैं, उस त्रासदी के वक्त जो जख्म यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री से निकली जहरीली हत्यारी गैस ने दिए थे वह आज भी ताजा हैं. हजारों लोगों को आधी रात हत्यारी गैस ने मौत की नींद सुला दिया, सैंकड़ो को जानलेवा बीमारी के आगोश में छोड़ गई यह जहरीली गैस. आज भी गैस के प्रभाव उन लोगों में साफ देखे और महसूस किए जा सकते हैं. उनकी यादों में वह आधी रात दहशत और दर्द की काली स्याही से इतिहास बनकर अंकित हो गई है. उसे न अब कोई बदल सकता है और न ही मिटा सकता.<br /><br />पीछा छोड़ रहा जहर :- भोपाल गैस त्रासदी के 2 साल बाद भी यूनियन कार्बाइड का जहरीला प्रदूषण पीछा नहीं छोड़ रहा है। सेंटर फॉर साइंस एंड इंवायरंमेंट द्वारा किए गए परीक्षण में इस बात की पुष्टि हुई है कि फैक्ट्री और इसके आसपास के 3 किमी क्षेत्र के भूजल में निर्धारित मानकों से 40 गुना अधिक जहरीले तत्व मौजूद हैं। मध्य प्रदेश प्रदूषण बोर्ड के अलावा कई सरकारी और ग़ैरसरकारी एजेंसियों ने पाया है कि फैक्ट्री के अंदर पड़े रसायन के लगातार ज़मीन में रिसते रहने के कारण इलाक़े का भूजल प्रदूषित हो गया है. कारखाने के आस-पास बसी लगभग 17 बस्तियों के ज़्यादातर लोग आज भी इसी पानी के इस्तेमाल को मजबूर हैं. एक सर्वेक्षण के मुताबिक़ इसी इलाक़े में रहने वाले कई लोग शारीरिक और मानसिक कमजोरी से पीड़ित है. गैस पीड़ितों के इलाज और उन पर शोध करने वाली संस्थाओं के मुताबिक़ लगभग तीन हज़ार परिवारों के बीच करवाए गए एक सर्वेक्षण में पाया गया है कि इस तरह के 141 बच्चे हैं जो या तो शारीरिक, मानसिक या दोनों तरह की कमजोरियों के शिकार हैं कई के होंठ कटे हैं, कुछ के तालू नहीं हैं या फिर दिल में सुराख हैं, इनमें से काफ़ी सांस की बीमारियों के शिकार हैं. दूसरी और इसे एक विडम्बना ही कहेंगे कि अब तक किसी सरकारी संस्था ने कोई अध्ययन भी शुरू नहीं किया है या न ये जानने की कोशिश की है कि क्या जन्मजात विकृतियों या गंभीर बीमारियों के साथ पैदा हो रही ये पीढियां गैस कांड से जुड़े किन्ही कारणों का नतीजा हैं या कुछ और. और ना ही शासन ने अब तक इस तरह के बच्चों को लेकर कोई कार्रवाई नहीं की है. इन बस्तियों में नज़र दौडाने पर अधूरा पडा सरकारी काम अपने ढुलमुल रवैये की कहानी खुद बताता है.<br /><br />कितने हुए प्रभावित :- जिस वख्त यह हादसा हुआ उस समय भोपाल की आबादी कुल 9 लाख के आसपास थी और उस समय लगभग 6 लाख के आसपास लोग युनियन कार्बाइड कारखाने की जहरीली गैस से प्रभावित हुए थे सरकारी आंकड़ों के मुताबिक़ लगभग 3000 लोग मारे गए थे. खैर ये थे सरकारी आंकड़े लेकिन यदि गैर सरकारी आंकड़ों की बात की जाए तो अब तक इस त्रासदी में मरने वालों की संख्या 20 हज़ार से भी ज़्यादा है. और लगभग 6 लाख लोग आज भी स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं से जूझ रहे हैं.<br /><br />क्या है सरकारी क़वायद :- 2-3 दिसंबर 1984 की दरमियानी रात हुई गैस के रिसाव के बाद 1985 में भारत सरकार ने भोपाल गैस विभीषिका अधिनियम पारित कर जिसके बाद अमेरिका में यूनियन कार्बाइड के खिलाफ अदालती कार्यवाही शुरू हुई. लेकिन इससे पूर्व ही यूनियन कार्बाइड के मुखिया वारेन एंडरसन को 5 दिसंबर 1984 को ही भोपाल आने पर ज़मानत दे दी गई थी साथ देश से बाहर जाने अनुमति भी. अमेरिकी अदालत ने इसे क्षेत्राधिकार की बात करते हुए अदालती कार्यवाही भारत में ही चलाने के बात कही. जिसके पश्चात भारत सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर फरवरी 1989 को यूनियन कार्बाइड से 470 मिलियन डालर यानि उस वख्त के हिसाब से लगभग सात सौ दस करोड़ इक्कीस लाख रूपए लेना स्वीकार कर लिया. उसमें से मवेशियों के लिए 113 करोड़ और बाकी की राशी लगभग 1 लाख 5 लज़ार पीडितो के लिए अनुमानित थी जिनको 1989 के आदेशों के मुताबिक़ 57 हज़ार रुपये प्रति व्यक्ति मिलाने वाले थे. जबकि उस दौरान तक पीड़ितों की संख्या बढाकर 5 लाख पहुँच गई थी सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 31 अक्टूबर 2009 तक पांच हज़ार चौहत्तर हज़ार तीन सौ बहत्तर गई पीड़ितों को मुआवजा दिया जा चुका है वह भी सिर्फ 200 रुपये प्रतिमाह अंतरिम राहत के तौर पर. कुछ लोगों का यह कहना है कि गैस पीड़ितों को मुआवजे में कम राशि दी गई है मृतकों के परिवार को महज़ 1 लाख रुपये की दो किस्त देकर मामला दबा दिया गया. तो कुछ पीड़ितों को मात्र 25 हज़ार रुपये दे दिए गए.<br /><br />न्याय को तरस रहे हैं पीड़ित :- सदी की सबसे बडी औद्योगिक त्रासदी 'भोपाल गैस कांड' के मामले में सीजेएम कोर्ट ने आखिरकार 25 साल बाद सभी आठ दोषियों को दो साल की कैद की सजा सुनाई. सभी दोषियों पर एक-एक लाख रूपए और यूनियन कार्बाइड इंडिया पर पांच लाख रूपए का जुर्माना ठोका गया. इतना ही नहीं सजा का ऎलान होने के बाद ही सभी दोषियों को 25-25 हजार रूपए के मुचलके पर जमानत भी दे दी गई. अब इसे अंधे क़ानून का अधुरा इंसाफ न कहें तो और क्या कहें. क्योंकि न्याय का इन्तेज़ार कर रहे गैस पीड़ितों को फिर निराशा ही हाथ लगी है. ये वही गैस पीड़ित हैं जो पिछले 28 सालों से जांच एजेंसियों, सरकार और राजनीतिक दलों द्वारा ठगते आ रहे हैं. आज उन्हें न्याय की उम्मीद थी लेकिन वो भी पूरा नहीं मिला. त्रासदी का मुख्य गुनहगार वारेन एंडरसन अभी भी फरार है. सरकार एंडरसन के प्रत्यर्पण में सफल नहीं हो पाई है. अदालत ने आठों आरोपियों को धारा 304 ए के तहत लापरवाही का दोषी करार दिया था. कोर्ट के फैसले पर गैस पीड़ितों में जमकर रोष है. गैस पीड़ितों ने दोषियों के लियी फांसी की सज़ा की मांग की है. आश्चर्य जनक तथ्य यह है कि गैस त्रासदी में 25000 से ज़्यादा लोग मारे गए थे. और उनके दोषियों को महज़ 2 साल की सज़ा दी गई. जबकि कंपनी पर 5 लाख का जुर्माना लगाया गया. क्या 25000 लोगों की मौत के जिम्मेदारों के लिए यह सज़ा काफी है. 25 साल पहले 2/3 दिसंबर 1984 की दरमियानी रात को भोपाल स्थित यूनियन कार्बाइड कारखाने से रिसी जहरीली मिथाइल आइसोसायनेट गैस के कारण 25000 से ज़्यादा लोग मारे गए थे. और अनेक लोग स्थायी रूप से विकलांग हो गए थे. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक इस दुर्घटना के कुछ ही घंटों के भीतर तीन हज़ार लोग मारे गए थे. अब एक अहम सवाल यह उठता है कि क्या इस फैसले से पीड़ितों को न्याय मिला है ? फैसले के बाद चारों तरफ से तीखी प्रतिक्रियाएं सामने आ रही हैं. लोग इसे अंधे क़ानून का अधूरा इंसाफ कह रहे हैं. जब छह दिसंबर 1984 को यह मामला सीबीआई को जांच के मिला था. तब गैस त्रासदी की जांच कर रही सीबीआई ने विवेचना पूरी कर एक दिसंबर 1987 को यूनियन कार्बाइड के खिलाफ यहां जिला अदालत में आरोप पत्र पेश किया था, जिसके आधार पर सीजेएम ने भारतीय दंड संहिता की धारा 304 एवं 326 तथा अन्य संबंधित धाराओं में आरोप तय किए थे. इन आरोपों के खिलाफ कार्बाइड ने उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाया और शीर्ष अदालत ने 13 सितंबर 1996 को धारा 304, 326 के तहत दर्ज आरोपों को कम करके 304 (ए), 336, 337 एवं अन्य धाराओं में तब्दील कर दिया. जिससे केस कमज़ोर हो गया. एक अहम सवाल यह भी है कि क्या जान बूझकर केस को कमज़ोर करने के कोशिश की गई. धारा 304 (ए) के तहत अधिकतम दो वर्ष के कारावास का ही प्रावधान है. 25 बरस न्याय का इन्तेज़ार करने वाले गैस पीड़ित छले गए हैं. 25 बरस राजनीतिक दांवपेंच का शिकार होते रहे. अफसोस की बात तो यह है कि इतना बड़ा हादसा होने के बाद इसके ज़िम्मेदारों को कड़े से कड़ी सजा मिले इसके लिए पीड़ितों को न्याय के लिए 25 बरस का इन्तेज़ार करना पड़ा. इस हादसे में सबसे ज़्यादा प्रभावित ऐसे लोग थे जो रोज़ कुआ खोदने और रोज़ पानी पीने का काम किया करते थे. आज 25 साल बाद जब कोर्ट ने फैसला दिया तो दोषियों को 25 हज़ार के मुचलके पर ज़मानत भी दे दी गई. और न्याय को तरसते पीड़ित अपनी विवशता और लाचारी दोहराने को मजबूर दिखाई दिए. इसे हमारे देश की विडम्बना कहें या फिर इस देश के निवासियों का दुर्भाग्य, सरकार 11 करोड़ रुपये खर्च कर स्मारक बनाने की बात तो करती है लेकिन भ्रष्टाचार में डूबे सरकारी तंत्र और न्याय प्रक्रिया में सुधार लाकर वास्तविक गैस पीड़ितों न्याय दिलाने की दिशा में कोई सकारात्मक कदम नहीं उठा सकती.<br /><br />केंद्र नहीं दे रहा मदद :- नगरिय प्रशासन मंत्री बाबूलाल गौर का कहना है कि गैस त्रासदी एक्ट 1985 के अंतर्गत केंद्र सरकार ने गैस पीड़ितों को मदद देने की पूरी जिम्मेदारी ली थी. इसके बावजूद 1999 से अब तक कोई राशि केंद्र सरकार ने नहीं दी है. राज्य सरकार गैस पीड़ितों पर 250 करोड़ रुपए खर्च कर चुकी है. राज्य सरकार ने 982 करोड़ रुपए की कार्य योजना केंद्र को भेजी है जो मंजूर की जानी चाहिए. उन्होंने कहा कि राज्य सरकार एक स्मारक भी बनाना चाहती है. इसके लिए राज्य सरकार ने 11 करोड़ रुपए भी मंजूर किए हैं.<br /><br />बहरहाल अफसोस की बात तो यह है कि इतना बड़ा हादसा होने के बाद इसके ज़िम्मेदारों को कोई सजा नहीं मिली सज़ा तो दूर इस हादसे से प्रभावित हुए लोगों की सही न्याय भी नहीं मिला. जबकि इस हादसे में सबसे ज़्यादा प्रभावित ऐसे लोग थे जो रोज़ कुआ खोदने और रोज़ पानी पीने का काम किया करते थे. काफ़ी विरोध के बाद 1992 में भोपाल की एक अदालत ने वारेन एंडरसन के खिलाफ वारंट जारी कर सीबीआई से इस मामले में कार्यवाही करने को कहा था. 2001 से यूनियन कार्बाइड पर मालिकाना डाओ केमिकल्स अमेरिका का है जिसने अभी तक कारखाना परिसर से जहरीला रासायनिक कचरा हटाने में भी कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई. और आज भी 28 वर्षों से गैस पीड़ित इस ज़ख्म के साथ दर्द भरा जीवन जीने को मजबूर है और मरहम को तरस रहे हैं इसे हमारे देश की विडम्बना कहें या फिर इस देश के निवासियों का दुर्भाग्य, की सरकार भ्रष्टाचार में डूबे सरकारी तंत्र में सुधार लाकर वास्तविक गैस पीड़ितों न्याय दिलाने की दिशा में कोई सकारात्मक कदम नहीं उठा सकती.<br /><br /></div>
ABHIVYAKTIhttp://www.blogger.com/profile/11939926628758225099noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-152689614694463577.post-30566111090728787002010-06-24T05:59:00.001-07:002010-06-24T05:59:39.053-07:00आनर किलिंग: रूढीवादी समाज को एक दिन स्वीकार करना ही होगा प्रेम विवाह<div style="text-align: justify;"><br />(कमल सोनी)>>>> सम्मान के नाम पर के जाने वाली हत्याओं के पीछे समाज की घटिया रुढीवादी मानसिकता ही है. और इसकी तीखी आलोचना की जानी चाहिए. हैरत की बात तो यह है कि इस रूढीवादी मानसिकता से पीड़ित आज के युवा भी हैं. दिल्ली में आनर किलिंग के नाम पर हुई तीन हत्याओं के बाद पकडे गए तीन युवकों से तो यही पता चलता है. प्रेम के नाम पर सदियों से इस तरह की कारगुजारियों को अंजाम दिया जाता रहा है. लेकिन क्या कभी प्रेम कम हुआ नहीं. इतना सब कुछ होने के बाद अब प्रेम विवाह को गलत मानने वाले समाज के चंद ठेकेदारों को यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि वे अंतरजातीय या सामान गोत्र में होने वाले प्रेम विवाह को रोक नहीं सकते. आनर किलिंग के नाम पर की जाने वाली हत्याओं को जघन्य अपराध की श्रेणी में रखा जाना चाहिए. इसके लिए सिर्फ ह्त्या का दोषी मानकर अपराधी को सज़ा दे दी जाए तो यह कम होगा. सम्मान के नाम पर प्रेमी प्रेमिका की ह्त्या और उसके बाद हत्या के आरोप में घर का ही कोई सदस्य को सज़ा मिले निश्चित रूप से इससे पूरा परिवार ही बिखर जाता है. समाज के ठेकेदारों को इस झूटी शान के लिए इन हत्याओं को बंद करना होगा. और आज नहीं तो वह दिन भी दूर नहीं जब समाज इस सच को स्वीकारेगा.<br /></div>ABHIVYAKTIhttp://www.blogger.com/profile/11939926628758225099noreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-152689614694463577.post-71486545624561961432010-06-07T06:52:00.000-07:002010-06-07T06:53:52.924-07:00भोपाल गैस त्रासदी: दर्दनाक जख्म के 25 बरस, सज़ा महज़ 2 साल ? क्या इतने से ही मिल गया गैस पीड़ितों को न्याय ?<div style="text-align: justify;">(कमल सोनी)>>>> सदी की सबसे बडी औद्योगिक त्रासदी 'भोपाल गैस कांड' के मामले में सीजेएम कोर्ट ने आखिरकार 25 साल बाद सभी आठ दोषियों को दो साल की कैद की सजा सुनाई है. सभी दोषियों पर एक-एक लाख रूपए और यूनियन कार्बाइड इंडिया पर पांच लाख रूपए का जुर्माना ठोका गया है. इतना ही नहीं सजा का ऎलान होने के बाद ही सभी दोषियों को 25-25 हजार रूपए के मुचलके पर जमानत भी दे दी गई. अब इसे अंधे क़ानून का धुरा इंसाफ न कहीं तो और क्या कहें. क्योंकि 25 साल तक न्याय का इन्तेज़ार कर रहे गैस पीड़ितों को फिर निराशा ही हाथ लगी है. ये वही गैस पीड़ित हैं जो पिछले 25 सालों से जांच एजेंसियों, सरकार और राजनीतिक दलों द्वारा ठगते आ रहे हैं. आज उन्हें न्याय की उम्मीद थी लेकिन वो भी पूरा नहीं मिला. त्रासदी का मुख्य गुनहगार वारेन एंडरसन अभी भी फरार है. सरकार एंडरसन के प्रत्यर्पण में सफल नहीं हो पाई है. अदालत ने आठों आरोपियों को धारा 304 ए के तहत लापरवाही का दोषी करार दिया था. कोर्ट के फैसले पर गैस पीड़ितों में जमकर रोष है. गैस पीड़ितों ने दोषियों के लियी फांसी की सज़ा की मांग की है. आश्चर्य जनक तथ्य यह है कि गैस त्रासदी में 25000 से ज़्यादा लोग मारे गए थे. और उनके दोषियों को महज़ 2 साल की सज़ा दी गई. जबकि कंपनी पर 5 लाख का जुर्माना लगाया गया. क्या 25000 लोगों की मौत के जिम्मेदारों के लिए यह सज़ा काफी है. 25 साल पहले 2/3 दिसंबर 1984 की दरमियानी रात को भोपाल स्थित यूनियन कार्बाइड कारखाने से रिसी जहरीली मिथाइल आइसोसायनेट गैस के कारण 25000 से ज़्यादा लोग मारे गए थे. और अनेक लोग स्थायी रूप से विकलांग हो गए थे. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक इस दुर्घटना के कुछ ही घंटों के भीतर तीन हज़ार लोग मारे गए थे. अब एक अहम सवाल यह उठता है कि क्या इस फैसले से पीड़ितों को न्याय मिला है ? फैसले के बाद चारों तरफ से तीखी प्रतिक्रियाएं सामने आ रही हैं. लोग इसे अंधे क़ानून का अधूरा इंसाफ कह रहे हैं. जब छह दिसंबर 1984 को यह मामला सीबीआई को जांच के मिला था. तब गैस त्रासदी की जांच कर रही सीबीआई ने विवेचना पूरी कर एक दिसंबर 1987 को यूनियन कार्बाइड के खिलाफ यहां जिला अदालत में आरोप पत्र पेश किया था, जिसके आधार पर सीजेएम ने भारतीय दंड संहिता की धारा 304 एवं 326 तथा अन्य संबंधित धाराओं में आरोप तय किए थे. इन आरोपों के खिलाफ कार्बाइड ने उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाया और शीर्ष अदालत ने 13 सितंबर 1996 को धारा 304, 326 के तहत दर्ज आरोपों को कम करके 304 (ए), 336, 337 एवं अन्य धाराओं में तब्दील कर दिया. जिससे केस कमज़ोर हो गया. एक अहम सवाल यह भी है कि क्या जान बूझकर केस को कमज़ोर करने के कोशिश की गई. धारा 304 (ए) के तहत अधिकतम दो वर्ष के कारावास का ही प्रावधान है. 25 बरस न्याय का इन्तेज़ार करने वाले गैस पीड़ित छले गए हैं. 25 बरस राजनीतिक दांवपेंच का शिकार होते रहे. अफसोस की बात तो यह है कि इतना बड़ा हादसा होने के बाद इसके ज़िम्मेदारों को कड़े से कड़ी सजा मिले इसके लिए पीड़ितों को न्याय के लिए 25 बरस का इन्तेज़ार करना पड़ा. इस हादसे में सबसे ज़्यादा प्रभावित ऐसे लोग थे जो रोज़ कुआ खोदने और रोज़ पानी पीने का काम किया करते थे. आज 25 साल बाद जब कोर्ट ने फैसला दिया तो दोषियों को 25 हज़ार के मुचलके पर ज़मानत भी दे दी गई. और न्याय को तरसते पीड़ित अपनी विवशता और लाचारी दोहराने को मजबूर दिखाई दिए. इसे हमारे देश की विडम्बना कहें या फिर इस देश के निवासियों का दुर्भाग्य, सरकार 11 करोड़ रुपये खर्च कर स्मारक बनाने की बात तो करती है लेकिन भ्रष्टाचार में डूबे सरकारी तंत्र और न्याय प्रक्रिया में सुधार लाकर वास्तविक गैस पीड़ितों न्याय दिलाने की दिशा में कोई सकारात्मक कदम नहीं उठा सकती.<br /><br />इस भीषण त्रासदी के गुनाहगार :- यूका के मालिक वारेन एंडरसन, यूसीआईएल भोपाल के चेयरमेन केशव महिन्द्रा, मैनेजिंग डायरेक्टर विजय गोखले, वाइस प्रेसिडेंट किशोर कामदार, वर्क्स मैनेजर जे मुकुंद, असिस्टेंड वर्क्स मैनेजर डॉ. आरपीएस चौधरी, प्रोडक्शन मैनेजर एसपी चौधरी, प्लांट सुप्रीटेंडेंट केपी शेट्टी, प्रोडक्शन असिस्टेंट एमआर कुरैशी सहित यूका कार्पोरेशन लि. यूएसए, यूसीसी ईस्टर्न इंडिया हांगकांग और यूका इंडिया लि. कोलकाता पर मुकदमा चल रहा है. भोपाल गैस कांड के आरोपियों में से मुख्य आरोपी वारेन एंडरसन, यूका कार्पोरेशन लि. यूएसए और यूसीसी ईस्टर्न इंडिया हांगकांग फरार घोषित हैं. जबकि आरपीएस चौधरी की मौत हो चुकी है.<br /><br /></div>ABHIVYAKTIhttp://www.blogger.com/profile/11939926628758225099noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-152689614694463577.post-27048562449548208692010-06-05T02:06:00.000-07:002010-06-05T02:09:17.563-07:00प्रकृति का 'दोहन' नहीं 'संरक्षण' की ज़रूरत (5 जून विश्व पर्यावरण विशेष)<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhOoh0qeHeROgHcGjLdNFZmuJdKvbVqKdTXlboTYVU2zg9g-p6H_uGC-6lt98AiRuUmIrxGtssUCqX-mIw3IQyIbB0BIVEEmO-1nQNHZYjBbb3FNrbviyZl4-LSgBz469WVkYp7Z260xNxQ/s1600/wed.jpg"><img style="float: right; margin: 0pt 0pt 10px 10px; cursor: pointer; width: 310px; height: 320px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhOoh0qeHeROgHcGjLdNFZmuJdKvbVqKdTXlboTYVU2zg9g-p6H_uGC-6lt98AiRuUmIrxGtssUCqX-mIw3IQyIbB0BIVEEmO-1nQNHZYjBbb3FNrbviyZl4-LSgBz469WVkYp7Z260xNxQ/s400/wed.jpg" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5479213680245380738" border="0" /></a><br /><br /><div style="text-align: justify;">वृक्ष धरा का हैं श्रंगार.<br />इनसे करो सदा तुम प्यार.<br />इनकी रक्षा धर्म तुम्हारा.<br />ये हैं जीवन का आधार..<br />(कमल सोनी)>>>> 5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस है. प्रकृति के अंधाधुंध दोहन ने हालात ख़राब कर दिया है, हम अपने स्वार्थ में आने वाली पीढ़ी की चिंता नहीं कर रहे हैं. साल-दर-साल बारिश का कम होना, भूजल स्तर कम होना और इसके विपरीत गर्मी की तपन बढ़ते जाना आदि चीजें सीधे-सीधे इसी पर्यावरण से जुड़ी हैं. जब इसके दृष्टिगोचर होते परिणामों के बाद अब तो हमें चेत ही जाना चाहिए कि यह पर्यावरण हमारे लिए जीवन के लिए अत्यंत उपयोगी है. और इसके दोहन नहीं संरक्षण की ज़रूरत है. तो क्यों न सर्वप्रथम इसकी रक्षा की जाए और समय रहते ग्लोबल वार्मिंग के दुष्प्रभावों से बचा जाए. सच पूछें तो पर्यावरण की सुरक्षा के लिए हमे कुछ ज्यादा करना भी नहीं है. सिर्फ एक पहल करनी है यानी खुद को एक मौका देना है. हमारी छोटी-छोटी, समझदारी भरी पहल पर्यावरण को बेहद साफ-सुथरा और तरो-ताजा कर सकती है. प्रदूषण न केवल राष्ट्रीय अपितु अन्तर्राष्ट्रीय भयानक समस्या है. मनुष्य के आसपास जो वायुमंडल है वो पर्यावरण कहलाता है. पर्यावरण का जीवजगत के स्वास्थ्य एवं कार्यकुशलता से गहरा सम्बन्ध है. पर्यावरण को पावन बनाए रखने में प्रकृति का विशेष महत्व है. प्रकृति का संतुलन बिगड़ा नहीं कि पर्यावरण दूषित हुआ नहीं. पर्यावरण के दूषित होते ही जीव- जगत रोग ग्रस्त हो जाता है. वातावरण में संतुलन बनाए रखने वाला माध्यम अर्थात् पेड़- पौधे उपेक्षा का शिकार बनाए जा रहे हैं. समय रहते यह क्रम यदि रुका नही, वृक्षारोपण अभियान तीव्रता से तथा सुरक्षात्मक ढंग से यदि चलाया नही गया, तो प्रदूषण असाध्य रोग बन जाएगा. मनुष्य तथा अन्य वन जीवों को अपने जीवन के प्रति संकट का सामना करना पड़ रहा है. प्रदूषित पर्यावरण का प्रभाव पेड़ पौधे एवं फसलों पर पड़ा है. समय के अनुसार वर्षा न होने पर फसलों का चक्रीकरण भी प्रभावित हुआ है. प्रकृति के विपरीत जाने से वनस्पति एवं जमीन के भीतर के पानी पर भी इसका बुरा प्रभाव देखा जा रहा है. जमीन में पानी के श्रोत कम हो गए हैं. इस पृथ्वी पर कई प्रकार के अनोखे एवं विशेष नस्ल की तितली, वन्य जीव, पौधे गायब हो चुके हैं. कहा भी जाता है कि एक पेड़ लगाने से एक यज्ञ के बराबर पुण्य फल प्राप्त होता है. कम से कम एक पेड़ जरूर लगाएँ और इसकी देखभाल भी करें. कुछ वर्षों बाद यह बड़ा होगा देखकर दिल को सुकून देगा. हर साल या 2 साल में या 5 साल में भी 1-1 वृक्ष आपने लगाया तो मैं समझता हूँ प्रकृति भी इसका तहेदिल से जरूर शुक्रिया अदा करेगी और आगे चलकर इससे निश्चित रूप से हम लाभान्वित होंगे.<br /><br />संयुक्त राष्ट्र महासभा की पहल :- विश्व पर्यावरण दिवस की शुरुआत संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 1972 में की थी. इसी साल मानव पर्यावरण पर स्टॉकहोम कॉन्फ्रंस आयोजित की गई. विश्व पर्यावरण दिवस दरअसल, इसके प्रतीक के रूप में ही निर्धारित किया गया था. तभी से यह हर साल पांच जून को मनाया जाता है. विश्व पर्यावरण दिवस के माध्यम से संयुक्त राष्ट्र दुनियाभर में पर्यावरण के प्रति जागरूकता कायम करने का प्रयास करता है. इसी दिन विभिन्न देशों में पर्यावरण सुरक्षा से जुड़े कई सरकारी कार्यक्रम भी शुरू किए जाते हैं. संयुक्त राष्ट्र का मानना है कि पर्यावरण की सुरक्षा आम आदमी की कोशिशों से ही संभव हो सकती है. सभी को समझाना होगा कि इस काम के लिए वह कितने ज्यादा महत्वपूर्ण हैं. पूरी दुनिया को पर्यावरण बचाने के लिए लोगों के साथ देशों को भी आपस में मिलकर काम करना होगा, जिससे दुनियाभर के लोग सुरक्षित और संपन्न भविष्य का लाभ ले सकें. लेकिन इस वर्ष हम 38 वां विश्व पर्यावरण दिवस मना रहे हैं पिछले 38 सालों से इस परम्परा का बखूबी पालन कर रहे हैं लेकिन इसके कितने बेहतर परिणाम मिले वे हमारे सामने ही है. हालाकि इस दिशा में कुछ हद तक सफलता ज़रूर मिली लेकिन क्या इसे सराहनीय कहा जा सकता है... .. ? क्या आज जो परिणाम हमारे सामने है उन्हें आशानुरूप कहा जा सकता है... .. ? नहीं<br /><br />ग्लोबल वार्मिंग पर सामाजिक और राजनीतिक बहस :- वैज्ञानिक निष्कर्षों के प्रचार के कारण दुनिया में राजनीतिक और आर्थिक बहस छिड़ गई है. गरीब क्षेत्रों, खासकर अफ्रीका, पर बडा जोखिम दिखाई देता है जबकि उनके उत्सर्जन विकसित देशों की तुलना में काफी कम रहे हैं. इसके साथ ही, विकासशील देश की क्योटो प्रोटोकॉल के प्रावधानों से छूट संयुक्त राज्य अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया, द्वारा नकारी गई है और इसको अमेरिका के अनुसमर्थन का एक मुद्दा बनाया गया है. जलवायु परिवर्तन का मुद्दा एक नया विवाद ले आया है कि ग्रीनहाउस गैस के औद्योगिक उत्सर्जन को कम करना फाइदेमंद है या उस पर होने वाला खर्च ज्यादा नुकसानदेह है कई देशों में चर्चा की गई है कि वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों को अपनाने में कितना खर्च आएगा और उसका कितना लाभ होगा. प्रतियोगी संस्थान और जैसी कंपनियों ने यह कहा है कि हमें जलवायु की ज्यादा बुरी हालत की कल्पना करके ऐसे कदम नही उठाने हैं जो बहुत ज्यादा खर्चीले हों. इसी तरह, पर्यावरण की विभिन्न सार्वजनिक लॉबी और कई लोगों ने अभियान शुरू किए हैं जो जलवायु परिवर्तन के जोखिम पर ज़ोर डालते हैं और कड़े नियंत्रण करने की वकालत करते हैं. जीवाश्म ईंधन की कुछ कंपनियों ने अपने प्रयासों को हाल के वर्षों में कम किया है या ग्लोबल वार्मिंग के लिए नीतियों की वकालत की है. विवाद का एक और मुद्दा है कि उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं जैसे भारत और चीन से कैसी उम्मीद की जानी चाहिए कि वे अपने उत्सर्जन को कितना कम करें. हाल की रिपोर्ट के अनुसार, चीन के सकल राष्ट्रीय उत्सर्जन अमरीका से ज्यादा हो सकते हैं, पर चीन ने कहा है कि प्रति व्यक्ति उत्सर्जन अमरीका से पाँच गुना कम है इसलिए उस पर यह बंदिश नही होनी चाहिए. भारत ने भी इसी बात को दोहराया है जिसे क्योटो प्रतिबंधों से छूट प्राप्त है और जो औद्योगिक उत्सर्जन का सबसे बड़ा स्रोत है.<br /><br />पूरी दुनिया के मुकाबले हिमालय ज्यादा तेज़ गति से गर्म हो रहा है एक आंकड़े के मुताबिक गत 100 वर्षों में हिमालय के पश्चिमोत्तर हिस्से का तापमान 1.4 डिग्री सेल्सियस बढ़ा है. जो कि शेष विश्व के तापमान में हुए औसत इजाफे (0.5-1.1 डिग्री सेल्सियस) से अधिक है. रक्षा शोध एवं विकास संस्थान (डीआरडीओ) और पुणे विश्वविद्यालय के भूगर्भ विज्ञान विभाग के वैज्ञानिकों ने क्षेत्र में बर्फबारी और बारिश की विविधता का अध्ययन किया था वैज्ञानिकों ने पाया कि एक और बढ़ती गर्मी के कारण सर्दियों की शुरुआत अपेक्षाकृत देर से हो रही है तो दूसरी और बर्फबारी में भी कमी आ रही है. शोधकर्ताओं का कहना है कि पश्चिमोत्तर हिमालय का इलाका पिछली शताब्दी में 1.4 डिग्री सेल्सियस गर्म हुआ है जबकि दुनिया भर में तापमान बढ़ने की औसत दर 0.5 से 1.1 डिग्री सेल्सियस रही है. “अध्ययन का सबसे रोचक निष्कर्ष यह रहा कि पिछले तीन दशकों के दौरान पश्चिमोत्तर हिमालय क्षेत्र के अधिकतम और न्यूनतम तापमान में तेज इजाफा हुआ जबकि दुनिया के अन्य पर्वतीय क्षेत्रों जैसे कि आल्प्स और रॉकीज में न्यूनतम तापमान में अधिकतम तापमान की अपेक्षा अधिक तेजी से वृद्धि हुई है.” अध्ययन के लिए इस क्षेत्र से संबंधित आंकड़े भारतीय मौसम विभाग (आईएमडी) स्नो एंड अवलांच स्टडी इस्टेब्लिशमेंट (एसएएसई) मनाली और इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ ट्रॉपिकल मीटरोलॉजी से जुटाए गए थे. जलवायु परिवर्तन के कारण अनेक दुष्परिणाम सामने आ रहे है. यदि यह सब ऐसे ही चलता रहा, तो हमारी पृथ्वी को आग का गोला बनते देर न लगेगी. और तब क्या होगा इसकी तो कल्पना भी नहीं की जा सकती जिस तरह जलवायु परिवर्तन के कारण डायनासोर धरती से अचानक विलुप्त हो गए. ठीक उसी तरह जलवायु परिवर्तन के कारण अन्य जीव-जंतुओं पर भी ऐसा ही खतरा मंडरा रहा है. एक अनुमान के मुताबिक, 2050 तक पृथ्वी के 40 फीसदी जीव-जंतुओं का खात्मा हो जाएगा! इतना ही नहीं जलवायु परिवर्तन का खासा असर इंसानों पर भी पड़ने वाला है जिससे हम अनभिज्ञ नहीं है लेकिन हाँ सतर्क भी नहीं.<br /><br />समस्या :- यूं तो ५ जून को सारा विश्व ''विश्व पर्यावरण दिवस'' के रूप में मनाता हैं इस दिन हम संकल्प लेते है पर्यावरण को संरक्षित करने का व प्रकृति का दोहन रोकने का. पर्यावरण संरक्षण की बातें संस्थाओं, राजनेताओं द्वारा खूब प्रचारित की जाती है. लेकिन धरातल पर लाने के प्रयास न के बराबर है. देशभर में हजारों संस्थाएं है जो पर्यारण संरक्षण पर कार्य कर रही है जिन्हें प्रत्येक वर्ष करोड़ों रूपये का अनुदान भी मिल रहा है. कागजी आंकड़ों और आसमानी योजनाओं के रिकार्ड को खंगाले तो ऐसा लगता है मानों इन्हीं के कारण पूरी दुनिया हरी-भरी है. जबकि हकीकत में देखा जाए तो तस्वीर दूसरी है. पर्यारण संरक्षण के लिए उठाए जाने वाले दूरगामी कदम व योजनाओं के प्रति उदारता नहीं दिखाई जाती. पिछले वर्ष दुनिया भर के देशों ने एक जगह बैठक ग्लोबल वार्मिंग पर मंथन किया. खूब हंगामा हुआ, खूब आरोप-प्रत्यारोप मड़े गए, नतीजा में क्या निकला? न पर्यावरण के प्रति कोई चिंतित दिखा और न ही कोई आगे आकर अपने देश में कार्वन उत्सर्जन को कम करने पर राजी हुआ. जहां तक भारत देश की बात की जाए तो यहां भी सरकारी योजनाएं खूब बनती है. अरबों का बजट भी होता है. लेकिन योजनाएं अमल में आने से पहले या तो भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाती है या फिर सही संरक्षण न हो पाने से विफल हो जाती है. दूसरे पहलुओं में प्रकृति के दोहन की भी देश में योजनाएं निर्माणाधीन है. बड़े-बड़े बांध, उद्योग निर्माण कार्यों के चलते प्रकृति से खिलवाड़ किया जा रहा है. विकास की अंधी रफ्तार में प्रकृति को भी पहली सीढ़ी बनाया जा रहा है. जिसका ही नतीजा है कि आज प्राकृतिक असंतुलल पैदा हो गया है. बिन मौसम बरसात, बाढ़, प्रकोप, कम बारिश होना, झुलसने वाली गर्मी, सूखा जैसी स्थितियां प्रकृति से की जा रही छेड़खानी का ही नतीजा है. धरती के वस्त्र और आभूषण, नदियां, जंगल, पहाड़ है. लालच की पराकाष्ठा को अपनाने वाले विकास ने इन्हें नष्ट करके धरती को नंगा कर दिया है. जिंदा रहने के लिए सांस लेना जरूरी है, लेकिन फैक्ट्रियों और वाहनों की रासायनिक धुँए से हवा में लगातार कार्बन डाई आक्साइड की मात्रा बढ़ रही है जो जलवायु परिवर्तन का प्रमुख कारण है. एक रिसर्च के मुताबिक आने वाले सौ सालों में वायुमंडल में कार्बन डाई ऑक्साइड की मात्रा मौजूदा स्तर की तीन गुना हो जाएगी. तब हर किसी को ऑक्सीजन मास्क पहनने की ज़रुरत पड़ेगी दूसरी और सडकों के निर्माण और उद्योगों के विस्तार के चलते अंधाधुंध पेड़ों की कटाई से वर्षा का प्रभावित होना भी जलवायु परिवर्तन का एक विशेष कारण रहा है परिणाम स्वरुप धरती के जलस्तर में भी गिरावट आ रही है पूरे देश में मौजूदा पानी किल्लत यही दर्शाती है. हरे-भरे वातावरण के प्रति लोगों में चेतना आने के बावजूद हालात बद से बदतर हुए है. सामाजिक रूप से हमारे अंदर पर्यारण से जुड़े मुद्दों के प्रति चिंता बढ़ी है. या अच्छा है, लेकिन हमें यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि हम पर्यावरण प्रबंधन को लेकर विफल हो रहे है. समाज के रूप में हमें न केवल पर्यावरण के प्रति जागरूक होना है, बल्कि उसके लिए कुछ करना भी हैं इस समस्या का समाधान आसान नहीं हैं मगर पर्यावरण की चुनौती आज भी कायम है.<br /><br />पर्यावरण संरक्षण के प्रयास :-<br />* जंगलों को न काटे.<br />* जमीन में उपलब्ध पानी का उपयोग तब ही करें जब आपको जरूरत हो.<br />* कार्बन जैसी नशीली गैसों का उत्पादन बंद करे.<br />* उपयोग किए गए पानी का चक्रीकरण करें.<br />* ज़मीन के पानी को फिर से स्तर पर लाने के लिए वर्षा के पानी को सहेजने की व्यवस्था करें.<br />* ध्वनि प्रदूषण को सीमित करें.<br />* प्लास्टिक के लिफाफे छोड़ें और रद्दी कागज के लिफाफे या कपड़े के थैले इस्तेमाल करें.<br />* जिस कमरे मे कोई ना हो उस कमरे का पंखा और लाईट बंद कर दें.<br />* पानी को फालतू ना बहने दें.<br />* आज के इंटरनेट के युग मे, हम अपने सारे बिलों का भुगतान आनलाईन करें तो इससे ना सिर्फ हमारा समय बचेगा बल्कि कागज के साथ साथ पैट्रोल डीजल भी बचेगा.<br />* ज्यादा पैदल चलें और अधिक साइकिल चलाएंगे.<br />* प्रकृति से धनात्मक संबंध रखने वाली तकनीकों का उपयोग करें. जैसे :- जैविक खाद का प्रयोग, डिब्बा-बंद पदार्थो का कम इस्तेमाल.<br />* जलवायु को बेहतर बनाने की तकनीकों को बढ़ावा दें.<br />* पहाड़ खत्म करने की साजिशों का विरोध करें.<br /><br />आज ज़रुरत है 5 जून के वास्तविक महत्व को समझने की और पर्यावरण के संरक्षण के प्रति खुद को संकल्पित करने की पर्यावरण संरक्षण दिवस साल में एक बार महज़ एक औपचारिकता के रूप में मनाने का दिन नहीं है बल्कि स्वयं को दूसरों को पर्यावरण संरक्षण के प्रति प्रेरित करने का है किसी ने सच ही कहा है "हम बदलेंगे जग बदलेगा, हम सुधरेंगे जग सुधरेगा" यदि पूरे साल पर्यावरण संरक्षण की दिशा में काम किया जाय ऐसे आयोजन किये जाएँ जहां आमजनमानस में पर्यावरण संरक्षण के प्रति जागरूकता लाइ जा सके पेड़ों की कटाई करने की अपेक्षा ज़्यादा से ज्यादा मात्रा में नए पेड़ और उद्यान लगाये जाएँ, धरती के जल स्तर को संतुलित करने के लिए इमारतों, घरों और सडकों का निर्माण "वाटर हारवेस्टिंग" प्रणाली के तहत किया जाये उद्योगों का रासायनिक कचरा नष्ट करने की विधी विकसित की जाए जो सीधे तौर पर पर्यावरण को इतना नुकसान न पहुंचा सकें. सामान्य तौर पर हो वाहनों के प्रयोग में कमी लाई जाये तो जलवायु में होने वाले इस क्रमिक परिवर्तन को रोका जा सकता है. आज वास्तविक ज़रूरत है प्रकृति का 'दोहन' नहीं बल्कि 'संरक्षण' किया जाए. ताकि ग्लोबल वार्मिंग जैसी गंभीर समस्या पर विजय हासिल हो सके.<br /><br /><br /></div>ABHIVYAKTIhttp://www.blogger.com/profile/11939926628758225099noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-152689614694463577.post-15519226951069959822010-05-24T05:29:00.001-07:002010-05-24T05:31:00.614-07:00क्या आम आदमी के लिहाज़ से केंद्र सरकार के कार्यकाल का पहला साल संतोषजनक है ?<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg6ZeTnQ5OOLiFga0e32MxsGz3GUGKgFXWEnOOWpeULnifDiCCVe9pQObrnMKCyKssOJiqMZLEvq1WxvWTmDjXaAvdhsfAh0u9ijb9FUdTRKjRBXIPfuzhD11keQ0Hud_ZbWa_qHNrYE9rQ/s1600/upariportcard.jpg"><img style="float: right; margin: 0pt 0pt 10px 10px; cursor: pointer; width: 350px; height: 350px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg6ZeTnQ5OOLiFga0e32MxsGz3GUGKgFXWEnOOWpeULnifDiCCVe9pQObrnMKCyKssOJiqMZLEvq1WxvWTmDjXaAvdhsfAh0u9ijb9FUdTRKjRBXIPfuzhD11keQ0Hud_ZbWa_qHNrYE9rQ/s400/upariportcard.jpg" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5474812877524157714" border="0" /></a><br /><br /><div style="text-align: justify;">भारत के प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह ने केन्द्र सरकार के दूसरे कार्यकाल के एक वर्ष पूर्ण होने पर आज नई दिल्ली में केंद्र सरकार की उपलब्धियां गिनाईं और इस कार्यकाल को 'अहम उपलब्धियों' भरा कार्यकाल बताया. तमाम मुद्दों पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने सरकार की उपलब्धियां तो गिनाई पर उन्होंने यूपीए सरकार के कामकाज की समीक्षा के संबंध में अपनी ओर से स्वयं कोई नम्बर नहीं दिया और इसका फैसला जनता तथा मीडिया पर छोड़ दिया. उन्होंने कहा कि पिछले चंद दिनों से मीडिया में सरकार की नीतियों पर काफी बहस हुई है और मीडिया ने नम्बर भी दिए हैं. उन्होंने अपनी ही सरकार के कार्यकाल पर नंबर नहीं दिए जाने को अनुचित बताया. अब यदि यह अनुचित था तो पिछले साल उन्होंने यूपीए सरकार को १० में से छः नंबर क्यों दिए थे. और इस बार वे अपनी की सरकार को नंबर देने से क्यों कतराए. उन्होंने कहा नंबर देने का फैसला भारत की जनता और मीडिया करेगी. अब चूँकि यूपीए सरकार के कार्यकाल के एक वर्ष पूर्ण हो चुके हैं ऐसे में एक अहम सवाल यह उठता है. कि क्या आम आदमी के लिहाज़ से यह कार्यकाल संतोषजनक रहा. हालांकि बीजेपी ने नक्सलवाद और महंगाई जैसे मुद्दों पर प्रधानमंत्री से अपनी नीति स्पष्ट करने को कहा है. बीजेपी नेता अरूण जेटली ने कहा है कि आमतौर पर किसी भी सरकार का पहला साल बहुत आसानी से बीतता है. इस सरकार का कार्यकाल बीएसपी, एसपी और आरजेडी के अवसरवादी समर्थन से शुरू हुआ जिसके चलते सरकार को लगा मानो उसने चांद को हासिल कर लिया हो. इसके बाद से ही उसकी राजनीति में अहंकार पैदा हो गया. दूसरे कार्यकाल के पहले साल में सरकार को अपने कई मंत्रियों को लाल आंखें भी दिखानी पड़ी. आईपीएल विवाद के चलते शशि थरूर को विदेश राज्यमंत्री पद से हटा दिया गया तो चीन को लेकर गृह मंत्रालय के रुख पर टिप्पणी के मामले में जयराम रमेश भी बाल बाल बचे. संसद में कटौती प्रस्ताव के दौरान सरकार संकट में घिरी नजर आ रही थी लेकिन विपक्ष की एकता में ऐसी सेंध लगी कि कटौती प्रस्ताव लाने वाली भारतीय जनता पार्टी को शर्मसार होना पड़ा और सरकार ने विरोध आसानी से किनारे कर दिया. सुरक्षा के मोर्चे पर भारत को मुंबई के बाद से पुणे में जर्मन बेकरी को छोड़ कर किसी अन्य बड़े आतंकवादी हमले का सामना नहीं करना पड़ा है. लेकिन माओवादियों की चुनौती सरकार के माथे पर पसीना ला रही है. हाल के दिनों में माओवादियों ने सीआरपीएफ जवानों पर हमले तेज किए हैं जिसमें 110 जवानों की मौत हो चुकी है. यूपीए सरकार ने इस कार्यकाल में महिला आरक्षण बिल राज्यसभा में पेश किया तो शिक्षा के अधिकार को मौलिक अधिकार में शामिल करने का भी श्रेय हासिल किया. लेकिन महंगाई के मुद्दे पर सरकार की कड़ी आलोचना होती रही, तो आर्थिक मोर्चे पर देश को बेहतर स्थिति में रखने के मामले पर केंद्र सरकार अपनी पीठ थपथपाती रही. अब यह देखना दिलचस्प होगा कि लंबे-चौड़े वादों पर ज़बरदस्त जीत के साथ दोबारा सत्ता में आई यूपीए सरकार का रिपोर्ट कार्ड क्या कहता है. और जनता जितने नंबर देती है उसमें सरकार पास होगी या फेल ?<br /><br />क्या आपके लिए यह कार्यकाल संतोषजनक रहा ?<br /><br /></div>ABHIVYAKTIhttp://www.blogger.com/profile/11939926628758225099noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-152689614694463577.post-74435000202855725412010-05-06T02:52:00.000-07:002010-05-06T02:53:16.392-07:00कसाब को फांसी: फांसी की सजा तो अफजल गुरु को भी मिली पर अब तक फांसी क्यों नहीं हुई ?<div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">(कमल सोनी)>>>> आज आर्थर रोड जेल की विशेष अदालत ने मुंबई हमलों के दोषी पाकिस्तानी आतंकवादी अजमल आमिर कसाब को 4 मामलों में फांसी की सजा का ऐलान तो कर दिया. निश्चित रूप से यह भारतवासियों के लिए हर्ष का विषय है. पूरे देश में हर्ष का माहौल है. फटाखे फोड़े जा रहे हैं मिठाइयां भी बांटी जा रही हैं. भारत माता की जय और वन्देमातरम जैसे देशभक्ति नारों की गूँज भे सुनाई देने लगी. लेकिन एक अहम सवाल यहाँ यह उठाता है कि संसद पर हमले के दोषी अफसल गुरू को भी फांसी की सजा सुनाई गई थी. लेकिन अब तक उसे फांसी क्यों नहीं दी गई. मुंबई हमले के मामले में जिस तेजी से विशेष अदालत ने चार मामलों में कसाब को फांसी और पांच अन्य मामलों में उम्रकैद की सजा सुनाई. वह भी काबिले तारीफ़ है. लेकिन कसाब को फांसी के फंदे तक पहुचने में अभी काफी वक्त है. कसाब को सजा दिलवाने वाले सरकारी वकील उज्जवल निकम भी मानते हैं कि कसाब को मौत की सजा को अंजाम तक पंहुचाने के लिए अभी लंबा सफर तय करना होगा. निकम ने कहा कि कसाब को भी अपील का अधिकार है और जिस तरह का प्रोसिजर है, मुझे लगता है अंजाम तक पंहुचने में डेढ़ से दो साल तो लगेगा ही. विशेष कोर्ट की ओर से सुनाई गई सजा की पुष्टि हाईकोर्ट से करानी होगी. हाईकोर्ट में अपील के लिए कसाब को 90 दिन का वक्त मिलेगा. अगर कसाब अपनी सजा के खिलाफ अपील कर देता है, तो हाईकोर्ट फिर पूरे मामले की सुनवाई करेगा. हाईकोर्ट की सजा के बाद कसाब सुप्रीम कोर्ट जा सकता है. अगर सुप्रीम कोर्ट भी उसकी सजा पर मुहर लगा दे, तो इन सबके बाद राष्ट्रपति के यहां आवेदन देने का अधिकार भी है. राष्ट्रपति के पास करीब 28 मर्सी पेटिशन पहले से लंबित है. अगर ये मान भी लें कि सरकार 26/11 मुकदमे को प्राथमिकता देते हुए आगे बढ़ाए, तो भी उसे इस हिसाब से अंजाम तक पंहुचने में साल भर का समय तो लगेगा ही. ऐसे में यदि यह मान भी लिया जाय कि उपरी अदालते विशेष अदालत के फैसले को सही करार देते हुए कसाब की फांसी की सज़ा बरकरार रखती है. तो कहीं कसाब का मामला भी राष्ट्रपति तक पहुँच कर पिछले पेंडिंग मामलों की सूची में शामिल न हो जाए. अफजल गुरु को 13 दिसंबर,2001 को संसद पर हुए हमले में कसूरवार करार देते हुए फांसी की सजा सुनाई गई थी. लेकिन अभी तक उसे फांसी नहीं दी गई. कई बार यह मामला संसद में भे गूंजा. खुद अफजल गुरू ने भी स्वयं ही अपने बारे में जल्द फैसला लेने की बात कही हैं ऐसे में उसे अब तक फांसी पर क्यों नहीं लटकाया गया. वैसे कसाब मामले में जो सजा सुनाई गई है उससे एक बात तो साफ हो गई है कि भारत विरोधी कार्रवाइयों को अंजाम देने वालों का यही हश्र होगा. अब यह सरकार पर है कि वह इस सजा को जल्द से जल्द अमल में लाए, यह मामला संसद हमले के दोषी अफजल गुरु की तरह राजनीतिक कारणों से लटकना नहीं चाहिए, नहीं तो देश के खिलाफ साजिश करने वालों के हौसले बुलंद होंगे. कसाब किसी भी लिहाज से दया का पात्र नहीं है. कसाब मामले में जो सजा सुनाई गई है, उसका हर भारतीय स्वागत कर रहा है. आज हम इस हमले के दौरान शहीद हुए पुलिसकर्मियों, एनएसजी जवानों और सुरक्षा गार्डों को कोटि-कोटि नमन करते हैं और शपथ लेते हैं कि वह अपने पीछे अदम्य साहस और देशभक्ति की जो विरासत छोड़ कर गये हैं, उसे हम आगे बढ़ाएंगे साथ ही हमले के दौरन शिकार बनी मासूम जनता को अपनी श्रद्धांजलि देते हुए यह शपथ भी लेते हैं कि आतंकवाद का नामोनिशां मिटा कर रहेंगे, भारत के खिलाफ उठने वाला हर कदम किसी भी सूरत में सफल नहीं होने दिया जाएगा.</div><div style="text-align: justify;"><br /></div>ABHIVYAKTIhttp://www.blogger.com/profile/11939926628758225099noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-152689614694463577.post-65533700788955273942010-05-05T07:28:00.000-07:002010-05-05T07:31:02.003-07:00नार्को टेस्ट: सुप्रीम कोर्ट का फैसला जाँच एजेंसियों के लिए जबरदस्त झटका<div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">भोपाल 05/मई/2010/(ITNN)>>>> सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले पर देश की जांच एजेंसियों को करारा झटका लगा है जिसमें कोर्ट ने नार्को टेस्ट को असंवैधानिक करार देते हुए कहा है कि बिना आरोपी की मर्जी के नार्को टेस्ट नहीं किया जा सकेगा. मुख्य न्यायाधीश के.जी. बालाकृष्णन. न्यायमर्ति जे.एम. पंचाल और न्यायमूर्ति बी.एस. चौहान की खंडपीठ ने अपने ऐतिहासिक फैसले में कहा कि अभियुक्त की सहमति के बगैर नार्को टेस्ट, ब्रेन मैपिंग या पॉलीग्राफी टेस्ट नहीं किया जा सकता. खंडपीठ की ओर से न्यायमूर्ति बालाकृष्णन ने फैसला सुनाते हुए कहा कि किसी अभियुक्त का जबरन नार्को टेस्ट उसके मानवाधिकारों एवं उसकी निजता के अधिकारों का उल्लंघन है. बुधवार को सुनाए गए फ़ैसले में सर्वोच्च न्यायालय का कहना था कि दवा के प्रभाव में अभियुक्त या संदिग्ध अभियुक्त से लिए गए बयान से उसकी निजता के अधिकार का हनन होता है. यानि अब नार्को टेस्ट के लिए किसी भी अपराधी या आरोपी को बाध्य नहीं किया जा सकेगा. नार्को टेस्ट को लेकर अब तक की स्थिति भी यही थी कि नार्को टेस्ट से लिया गया बयान एक पुख़्ता सबूत के तौर पर पेश नहीं हो सकता था लेकिन उसे अदालत में मुख्य सबूत के साथ जोड़कर देखा जा सकता था. साथ ही नार्को टेस्ट के द्वारा हासिल की गई जानकारी को जांच का एक हिस्सा माना जाता था. अब अपने फैसले में कोर्ट ने यह भी कहा है कि यदि कोई अपराधी या आरोपी नार्को टेस्ट को तैयार हो जाता है तब भी उसके बयान को सबूत के तौर पर पेश नहीं किया जा सकता. </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">गौरतलब है कि नार्को टेस्ट को लेकर पूरे देश में अभियुक्तों ने इसके ख़िलाफ़ अलग अलग अदालतों में अपील दायर की थी और सुप्रीम कोर्ट ने इन सब मामलों पर सुनवाई के बाद अपना फ़ैसला सुनाया है. अंडरवल्र्ड की दुनिया में गॉडमदर के नाम से मशूहर संतोकबेन जडेजा और माफिया सरगना अरूण गवली ने इन परीक्षणों की वैधता को चुनौती दी थी. दोनों की याचिकाओं पर न्यायालय ने अपना फैसला सुरक्षित रखा है. अदालत ने यह भी कहा कि बलपूर्वक ऎसे परीक्षण संविधान की धारा 20 (3) का उल्लंघन है. इसके तहत प्रावधान है कि किसी मामले में किसी भी आरोपी को स्वयं के खिलाफ गवाही देने को बाध्य नहीं किया जा सकता है. सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले पर विधि आयोग की भी सलाह ली थी. संयुक्त राष्ट्र में पहले से ही इस तरह के टेस्ट पर प्रतिबंध है. गौरतलब है कि पिछले दिनों में कई बड़े मामले, मिसाल के तौर पर तेलगी केस, आरूषि हत्याकांड, निठारी केस सबमें इसका इस्तेमाल हुआ था. आरूषि हत्याकांड मामले में उसके माता-पिता की ब्रेन मेपिंग कराई गई थी. अबू सलेम का भी पोलीग्राफ टेस्ट कराया गया था. हाल ही में राजस्थान एटीएस ने दरगाह ब्लास्ट के मामले में हुई गिरफ्तारियों में एक आरोपी देवेन्द्र गुप्ता के नार्को टेस्ट की अदालत से अनुमति ली है. इसके अलावा अब्दुल करीम तेलगी, साध्वी प्रज्ञा के अलावा नार्को टेस्ट कराये गए आरोपियों के सूची लम्बी है. </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">क्या है नार्को परीक्षण :- नार्को परीक्षण का प्रयोग किसी व्यक्ति से जानकारी प्राप्त करने के लिए दिया जाता है जो या तो उस जानकारी को प्रदान करने में असमर्थ होता है या फिर वो उसे उपलब्ध कराने को तैयार नहीं होता दूसरे शब्दों मे यह किसी व्यक्ति के मन से सत्य निकलवाने लिए किया प्रयोग जाता है. अधिकतर आपराधिक मामलों में ही नार्को परीक्षण का प्रयोग किया जाता है. हालांकि बहुत कम किन्तु यह भी संभव है कि नार्को टेस्ट के दौरान भी व्यक्ति सच न बोले. इस टेस्ट में व्यक्ति को ट्रुथ सीरम इंजेक्शन के द्वारा दिया जाता है. जिससे व्यक्ति स्वाभविक रूप से बोलता है. नार्को विश्लेषण एक फोरेंसिक परीक्षण होता है, जिसे जाँच अधिकारी, मनोवैज्ञानिक, चिकित्सक और फोरेंसिक विशेषज्ञ की उपस्थिति में किया जाता है. भारत में हाल के कुछ वर्षों से ही ये परीक्षण आरंभ हुए हैं, किन्तु बहुत से विकसित देशों में वर्ष १९२२ में मुख्यधारा का भाग बन गए थे, जब राबर्ट हाउस नामक टेक्सास के डॉक्टर ने स्कोपोलामिन नामक ड्रग का दो कैदियों पर प्रयोग किया था. जिस व्यक्ति पर नार्को किया जाता है वह व्यक्ति जो भी बोलता है वह अनायास ही बोलता है यानि कि कुछ भी सोच समझकर नहीं बोलता. हालांकि कई उदाहरण ऐसे भी हैं जब यह पाया गया कि व्यक्ति ने नार्को टेस्ट के दौरान भी झूठ बोला है. वस्तुत: नार्को टेस्ट में व्यक्ति की मानसिक क्षमता और भावनात्मक दृढ़ता पर ही सब कुछ निर्भर करता है. नार्को टेस्ट कानूनी रूप से सबूत के तौर पर तो नहीं लिए जाते हैं, परंतु विभिन्न अपराधों की जांच में बहुत उपयोगी साबित होते रहे हैं.</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">कैसे होता है परिक्षण :- नार्को विशलेषण शब्द नार्क से लिया गया है, जिसका अर्थ है नार्कोटिक. हॉर्सले ने पहली बार नार्को शब्द का प्रयोग किया था. १९२२ में नार्को एनालिसिस शब्द मुख्यधारा में आया जब १९२२ में रॉबर्ट हाऊस, टेक्सास में एक ऑब्सेट्रेशियन ने स्कोपोलेमाइन ड्रग का प्रयोग दो कैदियों पर किया था. नार्को परीक्षण करने के लिए सोडियम पेंटोथॉल, सोडियम एमेटल, इथेनॉल, बार्बिचेरेट्स, स्कोपोल-अमाइन, टेपाज़ेमैन आदि को आसुत जल में मिलाया जाता है. परीक्षण के दौरान व्यक्ति को सोडियम पेंटोथॉल का इंजेक्शन लगाया जाता है. व्यक्ति को दवा की मात्रा उसकी आयु, लिंग, स्वास्थ्य और शारीरिक परिस्थिति के आधार पर दी जाती है. यदि परीक्षण के दौरान अधिक मात्रा दे दी जाये तो वह कोमा में भी जा सकता है या उसकी मृत्यु भी हो सकती है. परीक्षण में प्रश्नों के उत्तर देते हुए पूरी तरह से व्यक्ति होश में नहीं होता है और इसी कारण से वह प्रश्नों के सही उत्तर देता है क्योंकि वह उत्तरों को घुमा-फिरा पाने की स्थिति में नहीं होता है. इस ड्रग के प्रभाव में न केवल वह अर्ध बेहोशी की हालत में चला जाता है बल्कि उसकी तर्क बुद्धि (रिजिनिंग) भी कार्यशील नहीं रहती है. वह व्यक्ति जो एक तरह से सम्मोहन अवस्था में चला गया होता है, वह अपनी तरफ़ से अधिक कुछ बोलने की स्थिति में नहीं होता बल्कि पूछे गए कुछ सवालों के बारे में ही कुछ बता सकता है. यह भी माना जाता है कि नार्को टेस्ट में व्यक्ति हमेशा सच ही उगलता है, जबकि बहुत कम किन्तु फिर भी उस अवस्था में भी वह झूठ बोल सकता है, एवं विशेषज्ञों को गुमराह कर सकता है.</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">नार्को परीक्षण अवैज्ञानिक हैं :- नार्को टेस्ट को जहाँ विकसित विश्व के बहुत से देशों ने ऐसे परीक्षणों को अन्वेषण से मुख्य रूप से पृथक कर दिया हो, अधिकतर गणतांत्रिक विश्व जिनमे अमेरिका और ब्रिटेन भी शामिल हैं, वहाँ ऐसे परीक्षण कुछ समय से प्राय: लुप्त हो गए हैं. भारत में इसका प्रयोग आरंभ होने के बाद किसी अपराध के संदिग्ध को पकड़ते ही लोग उसके नार्को परीक्षण की मांग करने लगते हैं. उनका ये मानना होता है कि इस परीक्षण के बाद सच्चाई सामने निश्चित ही आ जायेगी, जबकि इसके पूरे प्रतिशत नहीं होते हैं. भारतीय संविधान का एक प्रमुख तत्त्व है धारा २०, अनु.३. इसके तहत "किसी व्यक्ति को जिस पर कोई आरोप लगे हैं, उसे अपने विरुद्ध गवाह के रूप में प्रयोग नहीं किया जाएगा." यदि नार्को परीक्षण की मूल अंतर्वस्तु को समझाने की कोशिश करेंगे तो इसके द्वारा व्यक्ति को किसी रूप में स्वयं के विरुद्ध ही गवाह के रूप में प्रयोग किए जाने की संभावना बनी रहती है. लेकिन विगत कुछ निर्णयों में माननीय न्यायालयों के द्वारा परीक्षण के पक्ष में मत दिया गया है. भारत के मानसिक स्वास्थ्य संस्थान नेशनल इंस्टिटयूट ऑफ मेण्टल हेल्थ एण्ड न्यूरो साइंसेस के निदेशक की अध्यक्षता में बनी विभिन्न विषयों के विशेषज्ञों की समिति कमेटी ने ब्रेन मैपिंग आदि परीक्षणों के बरे में कहा है कि ये परीक्षण अवैज्ञानिक हैं और उन्हें जांच के उपकरण के रूप में प्रयोग करने पर तत्काल रोक भी लगानी चाहिए. नार्को परीक्षण के अलावा सच उगलवाने के लिए पॉलीग्राफ, लाईडिटेक्टर टेस्ट और ब्रेन मैपिंग टेस्ट किया जाता है.</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">क्या नार्को परिक्षण पर भारत में भी प्रतिबन्ध लग जाना चाहिए ?</div></div>ABHIVYAKTIhttp://www.blogger.com/profile/11939926628758225099noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-152689614694463577.post-25345920432272193832010-04-23T02:31:00.001-07:002010-04-23T02:31:39.877-07:00नित्यानंद को मारी चप्पल (आपकी क्या राय है)<div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">चप्पल अब विरोध का प्रतीक बन गई है. बुश, चिदंबरम और कई दूसरी नामी हस्तियों के बाद आज नित्यानंद को को चप्पल मारी गई. गिरफ्तार नित्यानंद को मजिस्ट्रेट हाउस से पेशी के बाद जेल ले जाते वक्त श्रीनिवास नामक एक शख्स ने नित्यानद पर चप्पल फेंक पर हमला किया. पुलिस ने श्रीनिवास को भी गिरफतार कर लिया है. उसके चप्पल मारने के कारणों का खुलासा नहीं हुआ है. लेकिन आम जन की भावनाओं के साथ खिलवाड करने वाले ढोंगी बाबाओं के साथ अगर ऐसा सलूक किया जाए तो कोई गलत न होगा. </div>ABHIVYAKTIhttp://www.blogger.com/profile/11939926628758225099noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-152689614694463577.post-39661127352815558782010-04-22T06:39:00.000-07:002010-04-22T06:40:08.511-07:00कैसे बचाएं अपनी वसुंधरा ? (विश्व पृथ्वी दिवस पर विशेष)<div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">(कमल सोनी)>>>> आज पूरे विश्व में विश्व वसुंधरा दिवस यानि विश्व पृथ्वी दिवस मनाया जा रहा है. इसे पहली बार अप्रैल 1970 में इस उद्देश्य से मनाया गया था कि लोगों को पर्यावरण के प्रति संवेदनशील बनाया जा सके. इसमें कोई संदेह नहीं है कि अमेरिका के पूर्व उपराष्ट्रपति अल गोर की पुस्तक 'इनकन्वीनिएंट ट्रुथ' और 2007 में उन्हें संयुक्त राष्ट्र के आईपीसीसी के साथ संयुक्त रूप से मिले नोबेल पुरस्कार ने इस ओर जागरूकता बढ़ाने में मदद की है. अक्सर यह समाचार सुनने को मिलते हैं कि उत्तरी ध्रुव की ठोस बर्फ कई किलोमीटर तक पिघल गई है. सूर्य की पराबैगनी किरणों को पृथ्वी तक आने से रोकने वाली ओजोन परत में छेद हो गया है. इसके अलावा फिर भयंकर तूफान, सुनामी और भी कई प्राकृतिक आपदों की खबरें आप तक पहुँचती हैं, हमारे पृथ्वी ग्रह पर जो कुछ भी हो रहा है? इन सभी के लिए मानव ही जिम्मेदार हैं, जो आज ग्लोबल वार्मिग के रूप में हमारे सामने हैं. धरती रो रही है. निश्चय ही हम ही दोषी हैं. भविष्य की चिंता से बेफिक्र हरे वृक्ष काटे गए. इसका भयावह परिणाम भी दिखने लगा है. सूर्य की पराबैगनी किरणों को पृथ्वी तक आने से रोकने वाली ओजोन परत का इसी तरह से क्षरण होता रहा तो वह दिन दूर नहीं जब पृथ्वी से जीव-जन्तु व वनस्पति का अस्तिव ही समाप्त हो जाएगा. जीव-जन्तु अंधे हो जाएंगे. लोगों की त्वचा झुलसने लगेगी और त्वचा कैंसर रोगियों की संख्या बढ़ जाएगी. समुद्र का जलस्तर बढ़ने से तटवर्ती इलाके चपेट में आ जाएंगे. </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">विश्व पृथ्वी दिवस और उसका इतिहास :- पृथ्वी दिवस, 22 अप्रैल को मनाया जाता है, यह एक दिवस है जिसे पृथ्वी के पर्यावरण के बारे में प्रशंसा और जागरूकता को प्रेरित करने के लिए डिजाइन किया गया है. इसकी स्थापना अमेरिकी सीनेटर जेराल्ड नेल्सन के द्वारा 1970 में एक पर्यावरण शिक्षा के रूप में की गयी, और इसे कई देशों में प्रति वर्ष मनाया जाता है. यह तारीख उत्तरी गोलार्द्ध में वसंत और दक्षिणी गोलार्द्ध में शरद का मौसम है. संयुक्त राष्ट्र में पृथ्वी दिवस को हर साल मार्च एक्विनोक्स (वर्ष का वह समय जब दिन और रात बराबर होते हैं) पर मनाया जाता है, यह अक्सर 20 मार्च होता है, यह एक परम्परा है जिसकी स्थापना शांति कार्यकर्ता जॉन मक्कोनेल के द्वारा की गयी. सितम्बर 1969 में सिएटल, वाशिंगटन में एक सम्मलेन में विस्कोंसिन के अमेरिकी सीनेटर जेराल्ड नेल्सन घोषणा की कि 1970 की वसंत में पर्यावरण पर राष्ट्रव्यापी जन साधारण प्रदर्शन किया जायेगा. सीनेटर नेल्सन ने पर्यावरण को एक राष्ट्रीय एजेंडा में जोड़ने के लिए पहले राष्ट्रव्यापी पर्यावरण विरोध की प्रस्तावना दी."यह एक जुआ था," वे याद करते हैं "लेकिन इसने काम किया." जानेमाने फिल्म और टेलिविज़न अभिनेता एड्डी अलबर्ट ने पृथ्वी दिवस, के निर्माण में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभायी. हालांकि पर्यावरण सक्रियता का सन्दर्भ में जारी इस वार्षिक घटना के निर्माण के लिए अलबर्ट ने प्राथमिक और महत्वपूर्ण कार्य किये, जिसे उसने अपने सम्पूर्ण कार्यकाल के दौरान प्रबल समर्थन दिया, लेकिन विशेष रूप से 1970 के बाद, एक रिपोर्ट के अनुसार पृथ्वी दिवस को अलबर्ट के जन्मदिन, 22 अप्रैल, को मनाया जाने लगा, एक स्रोत के अनुसार यह गलत भी हो सकता है. अलबर्ट को टीवी शो ग्रीन एकर्समें प्राथमिक भूमिका के लिए भी जाना जाता था, जिसने तत्कालीन सांस्कृतिक और पर्यावरण चेतना पर बहुमूल्य प्रभाव डाला.</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">पारिस्थितिकीय फ्लैग का निर्माण :- विश्व के ध्वजों के अनुसार, पारिस्थितिक ध्वज का निर्माण कार्टूनिस्ट रोन कोब्ब के द्वारा किया गया, और इसे 7 नवम्बर, 1969 को लोस एंजेलेस फ्री प्रेस में प्रकाशित किया गया, और फिर इसे सार्वजनिक डोमेन में रखा गया. यह प्रतीक "E" व "O" अक्षरों के संयोजन से बनाया गया था, जिन्हें क्रमशः "Environment" व "Organism" शब्दों से लिया गया था. इस झंडे का प्रतिरूप संयुक्त राज्य अमेरिकी ध्वज से लिया गया था और इसमें एक के बाद एक तेरह हरी और सफ़ेद धारियां थीं.</div><div style="text-align: justify;">इसकी केंटन हरी थी और इसमें पीला थीटा था. बाद के ध्वजों में थीटा का उपयोग ऐतिहासिक रूप से या तो एक चेतावनी के प्रतीक के रूप में या शांति के प्रतीक के रूप में किया गया. थीटा बाद में पृथ्वी दिवस से सम्बंधित हो गया.</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">पृथ्वी दिवस नेटवर्क :- राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पर्यावरण नागरिकता और साल भर उन्नति को बढ़ावा देने के लिए 1970 में पृथ्वी दिवस नेटवर्क की स्थापना पहले पृथ्वी दिवस के आयोजकों के द्वारा की गयी. पृथ्वी दिवस के नेटवर्क के माध्यम से, कार्यकर्ता, राष्ट्रीय, स्थानीय और वैश्विक नीतियों में परिवर्तनों को आपस में जोड़ सकते हैं.अन्तराष्ट्रीय नेटवर्क 174 देशों में 17,000 संस्थानों तक पहुँच गया है, जबकि घरेलू कार्यक्रमों में 5,000 समूह और 25,000 से अधिक शिक्षक शामिल हैं, जो साल भर कई मिलियन समुदायों के विकास और पर्यावरण सुरक्षा कार्यकर्ताओं की मदद करते हैं</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">धरती खो रही है अपना प्राकृतिक रूप :- आज हमारी धरती अपना प्राकृतिक रूप खोती जा रही है. जहाँ देखों वहाँ कूड़े के ढेर व बेतरतीब फैले कचरे ने इसके सौंदर्य को नष्ट कर दिया है. विश्व में बढ़ती जनसंख्या तथा औद्योगीकरण एवं शहरीकरण में तेज़ी से वृध्दि के साथ-साथ ठोस अपशिष्ट पदार्थों द्वारा उत्पन्न पर्यावरण प्रदूषण की समस्या भी विकराल होती जा रही है. ठोस अपशिष्ट पदार्थों के समुचित निपटान के लिए पर्याप्त स्थान की आवश्यकता होती है. ठोस अपशिष्ट पदार्थों की मात्रा में लगातार वृध्दि के कारण उत्पन्न उनके निपटान की समस्या न केवल औद्योगिक स्तर पर अत्यंत विकसित देशों के लिए ही नहीं वरन कई विकासशील देशों के लिए भी सिरदर्द बन गई है. उदा. के लिए अकेले न्यूयार्क में प्रतिदिन 2500 ट्रक भार के बराबर ठोस अपशिष्ट पदार्थों का उत्पादन होता है, यहाँ प्रतिदिन 25,000 टन ठोस कचरा निकलता है. इस समय विश्व में प्रतिवर्ष प्लास्टिक का उत्पादन 10 करोड़ टन के लगभग है और इसमें प्रतिवर्ष उसे 4 प्रतिशत की वृध्दि हो रही है. भारत में भी प्लास्टिक का उत्पादन व उपयोग बड़ी तेजी से बढ़ रहा है. औसतन प्रत्येक भारतीय के पास प्रतिवर्ष आधा किलो प्लास्टिक अपशिष्ट पदार्थ इकट्ठा हो जाता है. इसका अधिकांश भाग कूड़े के ढेर पर और इधर-उधर बिखर कर पर्यावरण प्रदूषण फैलाता है. एक अनुमान के अनुसार केवल अमेरिका में ही एक करोड़ किलोग्राम प्लास्टिक प्रत्येक वर्ष कूड़ेदानों में पहुंचता है. इटली में प्लास्टिक के थैलों की सालाना खपत एक खरब है. इटली आज सर्वाधिक प्लास्टिक उत्पादक देशों में से एक है.</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">पर्यावरण में जहर घोल रहा पॉलीथीन :- आधुनिक युग में सुविधाओं के विस्तार ने सबसे अधिक पर्यावरण को ही चोट पहुंचाई. लोगों की सुविधा के लिए इजाद की गई पॉलीथीन आज मानव जाति के लिए सबसे बड़ा सिरदर्द बन गई है. नष्ट न होने के कारण यह भूमि की उर्वरक क्षमता को खत्म कर रही है. यह भूजल स्तर को घटा रही है और उसे जहरीला बना रही है. पॉलीथीन को जलाने से निकलने वाला धुआं ओजोन परत को भी नुकसान पहुंचा रहा है, जो ग्लोबल वार्मिग का बड़ा कारण है. पॉलीथीन कचरे से देश में प्रतिवर्ष लाखों पशु-पक्षी मौत का ग्रास बन रहे हैं. लोगों में तरह-तरह की बीमारियां फैल रही हैं, जमीन की उर्वरा शक्ति नष्ट हो रही है तथा भूगर्भीय जलस्रोत दूषित हो रहे हैं. प्लास्टिक के ज्यादा संपर्क में रहने से लोगों के खून में थेलेट्स की मात्रा बढ़ जाती है. इससे गर्भवती महिलाओं के गर्भ में पल रहे शिशु का विकास रुक जाता है और प्रजनन अंगों को नुकसान पहुंचता है. प्लास्टिक उत्पादों में प्रयोग होने वाला बिस्फेनॉल रसायन शरीर में डायबिटीज व लिवर एंजाइम को असामान्य कर देता है. पॉलीथीन कचरा जलाने से कार्बन डाईऑक्साइड, कार्बन मोनोऑक्साइड एवं डाईऑक्सीन्स जैसी विषैली गैसें उत्सर्जित होती हैं. इनसे सांस, त्वचा आदि की बीमारियां होने की आशंका बढ़ जाती है. इन थैलों का अधिक इस्तेमाल करके हम न सिर्फ पर्यावरण को नुकसान पहुंचा रहे है, बल्कि गंभीर रोगों को भी न्यौता दे रहे है. इन्हे यूं ही फेंक देने से नालियां जाम हो जाती है. इससे गंदा पानी सड़कों पर फैलकर मच्छरों का घर बनता है. इस प्रकार यह कालरा, टाइफाइड, डायरिया व हेपेटाइटिस-बी जैसी गंभीर बीमारियों का भी कारण बनते है. </div><div style="text-align: justify;">भारत में प्रतिवर्ष लगभग 500 मीट्रिक टन पॉलीथिन का निर्माण होता है, लेकिन इसके एक प्रतिशत से भी कम की रीसाइकिलिंग हो पाती है. अनुमान है कि भोजन के धोखे में इन्हे खा लेने के कारण प्रतिवर्ष 1,00,000 समुद्री जीवों की मौत हो जाती है. इनको निगलने से मवेशियों की मौत की खबरें तो तुमने भी पढ़ी-सुनी होंगी. जमीन में गाड़ देने पर पॉलीथिन थैले अपने अवयवों में टूटने में 1,000 साल से अधिक ले लेती है. यह पूर्ण रूप से तो कभी नष्ट होते ही नहीं हैं. यहाँ तक कि जिन पॉलीथिन के थैलों पर बायोडिग्रेडेबल लिखा होता है, वे भी पूर्णतया इकोफ्रेंडली नहीं होते है.</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">ग्लोबल वार्मिग :- पृथ्वी के औसत तापमान में वृद्धि ही ग्लोबल वार्मिग कहलाता है. वैसे, पृथ्वी के तापमान में बढोत्तरी की शुरुआत 20वीं शताब्दी के आरंभ से ही हो गई थी. माना जाता है कि पिछले सौ सालों में पृथ्वी के तापमान में 0.18 डिग्री की वृद्धि हो चुकी है. वैज्ञानिकों का मानना है कि यदि धरती का टेम्परेचर इसी तरह बढता रहा, तो 21वीं सदी के अंत तक 1.1-6.4 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान बढ जाएगा. हमारी पृथ्वी पर कई ऐसे केमिकल कम्पाउंड पाए जाते हैं, जो तापमान को बैलेंस करते हैं. ये ग्रीन हाउस गैसेज कहलाते हैं. ये प्राकृतिक और मैनमेड (कल-कारखानों से निकले) दोनों होते है. ये हैं- वाटर वेपर, मिथेन, कार्बन डाईऑक्साइड, नाइट्रस ऑक्साइड आदि. जब सूर्य की किरणें पृथ्वी पर पडती हैं, तो इनमें से कुछ किरणें (इंफ्रारेड रेज) वापस लौट जाती हैं. ग्रीन हाउस गैसें इंफ्रारेड रेज को सोख लेती हैं और वातावरण में हीट बढाती हैं. यदि ग्रीन हाउस गैस की मात्रा स्थिर रहती है, तो सूर्य से पृथ्वी पर पहुंचने वाली किरणें और पृथ्वी से वापस स्पेस में पहुंचने वाली किरणों में बैलेंस बना रहता है, जिससे तापमान भी स्थिर रहता है. वहीं दूसरी ओर, हम लोगों (मानव) द्वारा निर्मित ग्रीन हाउस गैस असंतुलन पैदा कर देते हैं, जिसका असर पृथ्वी के तापमान पर पडता है. यही ग्रीन हाउस इफेक्ट कहलाता है. दरअसल, पृथ्वी के तापमान को स्थिर रखने के लिए दशकों पूर्व काम शुरू हो गया था. लेकिन मानव निर्मित ग्रीन हाउस गैसों के उत्पादन में कमी लाने के लिए दिसंबर 1997 में क्योटो प्रोटोकोल लाया गया. इसके तहत 160 से अधिक देशों ने यह स्वीकार किया कि उनके देश में ग्रीन हाउस गैसों के प्रोडक्शन में कमी लाई जाएगी. आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि 80 प्रतिशत से अधिक ग्रीन हाउस गैस का उत्पादन करने वाले अमेरिका ने अब तक इस प्रोटोकोल को नहीं माना है.</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">मौसम चक्र हुआ अनियमित :- आज धरती पर हो रहे जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेदार कोई और नहीं बल्कि समस्त मानव जाति है. सुविधाभोगी जीवन शैली में सामाजिक सरोकारों को पीछे छोड़ दिया है. जैसे-जैसे हम विकास के सोपान चढ़ रहे हैं वैसे-वैसे पृथ्वी पर नए-नए खतरे उत्पन्न हो रहे हैं. दिन-प्रतिदिन घटती हरियाली व बढ़ता पर्यावरण प्रदूषण रोज नई समस्याओं को जन्म दे रहा है. इस कारण प्रकृति का मौसम चक्र भी अनियमित हो गया है. अब सर्दी, गर्मी और वर्षा का कोई निश्चित समय नहीं रह गया. हर वर्ष तापमान में हो रही वृद्धि से बारिश की मात्रा कम हो रही है. इस कारण भू जल स्तर में भारी कमी आई है. अगर समय रहते कोई उपाय नहीं किए तो समस्याएं इतना विकराल रूप धारण कर लेंगी. इसलिए सभी को एकजुट होकर पृथ्वी को बचाने के उपाय करने होंगे. इसमें प्रशासन, सामाजिक संगठन, स्कूल, कालेज सहित सभी को इसमें भागीदारी निभानी होगी. </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">क्या करें :- </div><div style="text-align: justify;">1. बाजार जाते समय साथ में कपड़े का थैला, जूट का थैला या बॉस्केट ले जाएं.</div><div style="text-align: justify;">2. हम प्रत्येक सप्ताह कितने पॉलीथिन थैलों का इस्तेमाल करते हैं, इसका हिसाब रखें और इस संख्या को कम से कम आधा करने का लक्ष्य बनाएं.</div><div style="text-align: justify;">3. यदि पॉलीथिन थैले के इस्तेमाल के अलावा कोई और विकल्प न बचे तो एक सामान को एक पॉलीथिन थैले में रखने के स्थान पर कई सामान एक ही थैले में रखने की कोशिश करे.</div><div style="text-align: justify;">4. घर पर पॉलीथिन थैलों का काफी उपयोग किया जाता है. जैसे लंच पैक करना, कपड़े रखना या कोई अन्य घरेलू सामान रखना, इनमें से कुछ को कम करने का प्रयास करे.</div><div style="text-align: justify;">5. पॉलीथिन के थैलों से जितना बच सकते है, बचें. पॉलीथिन के थैलों को एक बार इस्तेमाल कर फेंकने के स्थान पर उनका पुन: प्रयोग करने का प्रयास करे.</div><div style="text-align: justify;">6. स्थानीय अखबारों में चिट्ठिया लिखकर, स्कूल में पोस्टर के द्वारा या प्रजेंटेशन से इस मसले पर जागरुकता फैलाने का काम करे</div><div style="text-align: justify;">7. आज के दिन पोलीथिन के उपयोग से बचें. बाजार जाते समय कप़ड़े का बेग साथ लें जाएँ. ऐसा कर आप पर्यावरण संरक्षण यज्ञ में छोटी ही सही, पर महत्वपूर्ण आहूति दे सकते हैं. </div><div style="text-align: justify;">8. बच्चों को प्रोत्साहित करें कि वे अपने पुराने खिलौने तथा गेम्स ऐसे छोटे बच्चों को दे दें जो कि इसका उपयोग कर सकते हैं. एक तरह से यह रिसाइक्लिंग प्रक्रिया ही होगी क्योंकि एक तो आपके घर की सामग्री नष्ट होने से बच जाएगी, दूसरे जिसे वह मिलेगी उसे बाहर से पर्यावरण के लिए नुकसानदायक सामग्री खरीदनी नहीं पड़ेगी. इससे बच्चों में त्याग की भावना भी बलवती होगी. केवल बच्चों ही नहीं बड़े लोग भी अपने कपड़े, इलेक्ट्रॉनिक सामान तथा पुस्तकें भेंट कर सकते हैं. </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">चिंतन मनन का दिन :- विश्व पृथ्वी दिवस महज़ एक दिन मनाने का नहीं है. यह दिन है इस बात के चिंतन मनन का कि हम कैसे अपनी वसुंधरा को बचा सकते हैं ? ऐसे कई तरीके हैं जिसे हम अकेले और सामूहिक रूप से अपनाकर धरती को बचाने में योगदान दे सकते हैं. वैसे तो हमें हर दिन को पृथ्वी दिवस मानकर उसके संरक्षण के लिए कुछ न कुछ करते रहना चाहिए, लेकिन अपनी व्यस्तता में व्यस्त इंसान यदि विश्व पृथ्वी दिवस के दिन ही थो़ड़ा बहुत योगदान दे तो धरती के ऋण को उतारा जा सकता है. हम सभी जो कि इस स्वच्छ श्यामला धरा के रहवासी हैं उनका यह दायित्व है कि दुनिया में कदम रखने से लेकर आखिरी साँस तक हम पर प्यार लुटाने वाली इस धरा को बचाए रखने के लिए जो भी सकें करें क्योंकि यह वही धरती है जो हमारे बाद भी हमारी निशानियों को अपने सीने से लगाकर रखेगी. लेकिन यह तभी संभव होगा जब वह हरी-भरी तथा प्रदूषण से मुक्त रहे और उसे यह उपहार आप ही दे सकते हैं. तो हर दिन को पृथ्वी दिवस मानें और आज से ही नहीं अभी से ही करें इसे बचाने के प्रयास करे.</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;"><br /></div>ABHIVYAKTIhttp://www.blogger.com/profile/11939926628758225099noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-152689614694463577.post-61041089520645231142010-04-17T08:04:00.000-07:002010-04-17T08:05:09.530-07:00'विश्व धरोहर दिवस' (18 अप्रैल विशेष)<div style="text-align: justify;">* ऐतिहासिक महत्त्व को समझाता 'विश्व धरोहर दिवस' </div><div style="text-align: justify;">(कमल सोनी)>>>> 18 अप्रैल को पूरे विश्व में विश्व धरोहर दिवस मनाया जाता है. इस दिवस को मानाने का मुख्य उद्देश्य भी यहे है कि पूरी दुनिया में ऐतिहासिक महत्व की धरोहरों के संरक्षण के प्रति जागरूकता लाइ जा सके. धरोहर अर्थात मानवता के लिए अत्यंत महत्व की जगह, जो आगे आने वाली पीढि़यों के लिए बचाकर रखी जाएँ, उन्हें विश्व धरोहर स्थल के रूप में जाना जाता है. ऐसे महत्वपूर्ण स्थलों के संरक्षण की पहल यूनेस्को ने की थी. जिसके बाद एक अंतर्राष्ट्रीय संधि जो कि विश्व सांस्कृतिक और प्राकृतिक धरोहर संरक्षण की बात करती है के 1972 में लागू की गई. तब विश्व भरा के धरोहर स्थलों को मुख्यतः तीन श्रेणियों में शामिल किया गया. पहला प्राकृतिक धरोहर स्थल, दूसरा सांस्कृतिक धरोहर स्थल और तीसरा मिश्रित धरोहर स्थल. इनके बारे में हम आगे बात करेंगे. लेकिन पहले यह जन लें कि विश्व धरोहर दिवस की शुरुआत कब हुई. विश्व धरोहर दिवस की शुरुआत 18 अप्रैल 1982 को हुई थी जब इकोमास संस्था ने टयूनिशिया में अंतरराष्ट्रीय स्मारक और स्थल दिवस का आयोजन किया. इस कार्यक्रम में कहा गया कि दुनियाभर में समानांतर रूका से इस दिवस का आयोजन होना चाहिए. इस विचार का यूनेस्को के महासम्मेलन में भी अनुमोदन कर दिया गया और नवम्बर 1983 से 18 अप्रैल को विश्व धरोहर दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की गई.</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">विश्व धरोहरों में भारत महत्वपूर्ण स्थान पर :- विश्व धरोहरों के मामले में भारत का दुनिया में महत्वपूर्ण स्थान है और यहां के ढाई दर्जन से अधिक ऐतिहासिक स्थल, स्मारक और प्राचीन इमारतें यूनेस्को की विश्व धरोहर सूची में शामिल हैं. हर साल 18 अप्रैल को मनाया जाने वाला विश्व धरोहर दिवस 26 साल से निरंतर विश्व की अद्भुत, ऐतिहासिक और सांस्कृतिक धरोहरों के महत्व को दर्शाता रहा है. भारत की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक धरोहरों का जिक्र करें तो ऐसे बहुत से स्थानों का नाम जहन में आता है जिन्हें विश्व धरोहर सूची में महत्वपूर्ण स्थान हासिल है लेकिन मुहब्ब्त के प्रतीक ताजमहल और मुगलकालीन शिल्प की दास्तां बयान करने वाले दिल्ली के लालकिले ने इस सूची को भारत की ओर से और भी खूबसूरत बना दिया है. ताजमहल को पिछले वर्ष कराए गए एक विश्वव्यापी मतसंग्रह के दौरान दुनिया के सात अजूबों में अव्वल नंबर कार रखा गया था. विश्व धरोहर सूची में शामिल भारत की अजंता की गुफाएं 200 साल पूर्व की कहानी कहती नजर आती हैं लेकिन इतिहास के कान्नों में धीरे-धीरे ये भुला दी गईं और बाद में बाघों का शिकार करने वाली एक ब्रिटिश टीम ने इनकी फिर खोज की. विश्व धरोहर सूची में शामिल एलोरा की गुफाएं दुनिया भर को भारत की हिन्दू, बौध्द और जैन संस्कृति की कहानी बताती हैं. ये गुफाएं लोगों को 600 और 1000 ईस्वीं के बीच के इतिहास से रूबरू कराती हैं. भारत को विश्व धरोहर सूची में 14 नवंबर 1977 में स्थान मिला. तब से अब तक 27 भारतीय स्थलों को विश्व धरोहर स्थल के रूप में घोषित किया जा चुका है. इसके अलावा फूलों की घाटी को नंदा देवी राष्ट्रीय पार्क के एक भाग रूप में इस सूची में शामिल कर लिया गया है.</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">ऐतिहासिक दिल्ली :- दिल्ली की संस्कृति यहां के लंबे इतिहास और भारत की राजधानी रूप में ऐतिहासिक स्थिति से पूर्ण प्रभावित रहा है. यह शहर में बने कई महत्वपूर्ण ऐतिहासिक स्मारकों से विदित है. भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण विभाग ने दिल्ली शहर में लगभग 1200 धरोहर स्थल घोषित किए हैं, जो कि विश्व में किसी भी शहर से कहीं अधिक है. और इनमें से 175 स्थल राष्ट्रीय धरोहर स्थल घोषित किए हैं. पुराना शहर वह स्थान है, जहां मुगलों और तुर्क शासकों ने कई स्थापत्य के नमूने खडए किए हैं, जैसे जामा मस्जिद (भारत की सबसे बड़ी मस्जिद) और लाल किला. दिल्ली में फिल्हाल तीन विश्व धरोहर स्थल हैं – लाल किला, कुतुब मीनार और हुमायुं का मकबरा. अन्य स्मारकों में इंडिया गेट, जंतर मंतर (१८वीं सदी की खगोलशास्त्रीय वेधशाला), पुराना किला (१६वीं सदी का किला). बिरला मंदिर, अक्षरधाम मंदिर और कमल मंदिर आधुनिक स्थापत्यकला के उदाहरण हैं. </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">आगरा का किला :- आगरा का किला एक यूनेस्को घोषित विश्व धरोहर स्थल है, जो कि भारत के उत्तर प्रदेश राज्य के आगरा शहर में स्थित है। इसे लाल किला भी कहा जाता है। इसके लगभग 2.5 कि.मी. उत्तर-पश्चिम में ही, विश्व प्रसिद्ध स्मारक ताज महल स्थित है। इस किले को चहारदीवारी से घिरी प्रासाद (महल) नगरी कहना बेहतर होगा। यह भारत का सबसे महत्वपूर्ण किला है। भारत के मुगल सम्राट बाबर, हुमायुं, अकबर, जहांगीर, शाहजहां व औरंगज़ेब यहां रहा करते थे, व यहीं से पूरे भारत पर शासन किया करते थे। यहां राज्य का सर्वाधिक खजाना, सम्पत्ति व टकसाल थी। यहां विदेशी राजदूत, यात्री व उच्च पदस्थ लोगों का आना जाना लगा रहता था, जिन्होंने भारत के इतिहास को रचा।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">साँची का स्तूप :- सांची भारत के मध्य प्रदेश राज्य के रायसेन जिले, में स्थित एक छोटा सा गांव है। यह भोपाल से ४६ कि.मी. पूर्वोत्तर में, तथा बेसनगर और विदिशा से १० कि.मी. की दूरी पर मध्य-प्रदेश के मध्य भाग में स्थित है। यहां कई बौद्ध स्मारक हैं, जो तीसरी शताब्दी ई.पू से बारहवीं शताब्दी के बीच के काल के हैं। सांची में रायसेन जिले की एक नगर पंचायत है। यहीं एक महान स्तूप स्थित है। इस स्तूप को घेरे हुए कई तोरण भी बने हैं। यह प्रेम, शांति, विश्वास और साहस के प्रतीक हैं। सांची का महान मुख्य स्तूप, मूलतः सम्राट अशोक महान ने तीसरी शती, ई.पू. में बनवाया था। इसके केन्द्र में एक अर्धगोलाकार ईंट निर्मित ढांचा था, जिसमें भगवान बुद्ध के कुछ अवशेष रखे थे। इसके शिखर पर स्मारक को दिये गये ऊंचे सम्मान का प्रतीक रूपी एक छत्र था।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">विश्व धरोहर में शामिल हो सकता है मध्यप्रदेश का भोजपुर शिवालय :- भोजपुर के शिव मंदिर का नाम जल्दी ही वर्ल्ड हेरिटेज में जुड़ सकता है. अगर ऐसा होता है, तो मध्यप्रदेश और भारत की कीर्ति में भी वृद्धि होगी. अब जबकि भोजपुर के शिव मंदिर को भी विश्व धरोहर में शामिल करने की कवायद तेज हो चली है, ऐसे में अगर यूनेस्को की मुहर इस पर लग जाती है, तो रायसेन जिला विश्व का एकमात्र ऐसा जिला होगा, जिसमें तीन विश्व धरोहरें होंगी. चंदेल वंश के राजा भोज द्वारा ग्यारहवीं शताब्दी में निर्मित भोजपुर का शिव मंदिर एक ऐतिहासिक धरोहर है. भोजपुर मंदिर की देखरेख कर रहे पुरातत्व अधिकारियों द्वारा 29 जनवरी को एक प्रस्ताव तैयार कर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई), नई दिल्ली को भेजा गया है. इसमें प्रमुख रूप से इस बात को दर्शाया गया है कि इस तरह का अनूठा शिव मंदिर विश्व में इकलौता है. इतना विशाल शिवलिंग दुनिया भर में कहीं नहीं है. शिव मंदिर में रोजाना औसतन तीन से चार हजार पर्यटक एवं श्रद्धालु दर्शन के लिए आते है. छुट्टी के दिन यह तादाद बढ़ कर पांच हजार तक हो जाती है. भोजपुर का शिव मंदिर अगर विश्व धरोहर में शामिल हो जाता है, तो रायसेन जिले का नक्शा ही बदल जायगा क्योंकि जिले में दो विश्व धरोहर पूर्व से ही मौजूद हैं. इसमें सांची एंव भीमबैठका के जिले में स्थित होने के कारण विश्व पटल पर अपनी अलग पहचान कायम करने वाले रायसेन जिले के राजस्व में बढ़ोतरी होगी. वर्ल्ड हेरिटेज में भोजपुर शिवालय को शामिल कराए जाने के प्रयासों के मद्देनजर मंदिर के आस-पास अतिक्रमण को हटाया जाएगा.</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">ग्यारहवीं शताब्दी में हुआ निर्माण :- महाभारत में वर्णित पवित्र वेतवा नदी के तट पर स्थित इस मंदिर का निर्माण ग्यारहवीं शताब्दी में चंदेश राजा भोज ने कराया था. विश्व में सर्वाधिक विशालकाय इस शिवलिंग की ऊचांई लगभग 22 फीट और जलेहरी 12X12 फीट की आंकी गई है. 600 फीट लंबाई का मिट्टी से निर्मित रपटा, जो मंदिर से सटा हुआ है, अब तक पूर्ण रूप से सुरक्षित है. उत्कीर्ण चट्टानें दुनिया भर में केवल इस मंदिर के अंदर है, जिनमें मंदिर निर्माण के समय का मंदिर का डिजाईन मंदिर के अंदर चट्टान पर अब भी स्पष्ट दिखाई देता है. इतना विशाल शिवलिंग भारत ही नहीं, वल्कि दुनिया में भी कहीं नहीं है. </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">धरोहरों की श्रेणियाँ :- विश्व की धरोहरों को मुख्यतः तीन श्रेणियों में बांटा गया है. पहला प्राकृतिक धरोहर स्थल, दूसरा सांस्कृतिक धरोहर स्थल और तीसरा मिश्रित धरोहर स्थल.</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">(१) प्राकृतिक धरोहर स्थल - ऐसी धरोहर भौतिक या भौगोलिक प्राकृतिक निर्माण का परिणाम या भौतिक और भौगोलिक दृष्टि से अत्यंत सुंदर या वैज्ञानिक महत्व की जगह या भौतिक और भौगोलिक महत्व वाली यह जगह किसी विलुप्ति के कगार पर खड़े जीव या वनस्पति का प्राकृतिक आवास हो सकती है.</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">(२) सांस्कृतिक धरोहर स्थल - इस श्रेणी की धरोहर में स्मारक, स्थापत्य की इमारतें, मूर्तिकारी, चित्रकारी, स्थापत्य की झलक वाले, शिलालेख, गुफा आवास और वैश्विक महत्व वाले स्थान; इमारतों का समूह, अकेली इमारतें या आपस में संबद्ध इमारतों का समूह; स्थापत्य में किया मानव का काम या प्रकृति और मानव के संयुक्त प्रयास का प्रतिफल, जो कि ऐतिहासिक, सौंदर्य, जातीय, मानवविज्ञान या वैश्विक दृष्टि से महत्व की हो, शामिल की जाती हैं.</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">(३) मिश्रित धरोहर स्थल - इस श्रेणी के अंतर्गत् वह धरोहर स्थल आते हैं जो कि प्राकृतिक और सांस्कृतिक दोनों ही रूपों में महत्वपूर्ण होती हैं.</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">यूनेस्को द्वारा स्वीकृत भारत के विश्व धरोहर स्थल :- भारत को विश्व धरोहर सूची में 14 नवंबर 1977 में स्थान मिला. तब से अब तक २७ भारतीय स्थलों को विश्व धरोहर स्थल के रूप में घोषित किया जा चुका है. आने वाले समय में कुछ और धरोहरों को विश्व धरोहार की सूची में स्थान मिल सकता है. </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;"><<>> आगरे का किला, उत्तर प्रदेश</div><div style="text-align: justify;"><<>> अजंता की गुफाएँ, महाराष्ट्र</div><div style="text-align: justify;"><<>> साँची के बौद्ध स्तूप, मध्य प्रदेश</div><div style="text-align: justify;"><<>> चंपानेर पावागढ का पुरातत्व पार्क, गुजरात</div><div style="text-align: justify;"><<>> छत्रपति शिवाजी टर्मिनस, महाराष्ट्र</div><div style="text-align: justify;"><<>> गोवा के पुराने चर्च गोवा</div><div style="text-align: justify;"><<>> एलीफैन्टा की गुफाएँ, महाराष्ट्र</div><div style="text-align: justify;"><<>> एलोरा की गुफाएँ, महाराष्ट्र</div><div style="text-align: justify;"><<>> फतेहपुर सीकरी, उत्तर प्रदेश</div><div style="text-align: justify;"><<>> चोल मंदिर, तमिलनाडु</div><div style="text-align: justify;"><<>> हम्पी के स्मारक, कर्नाटक</div><div style="text-align: justify;"><<>> महाबलीपुरम के स्मारक, तमिलनाडु</div><div style="text-align: justify;"><<>> पट्टाडक्कल के स्मारक, कर्नाटक</div><div style="text-align: justify;"><<>> हुमायुँ का मकबरा दिल्ली</div><div style="text-align: justify;"><<>> काजीरंगा राष्ट्रीय अभ्यारण्य, असम</div><div style="text-align: justify;"><<>> केवलदेव राष्ट्रीय अभ्यारण्य, राजस्थान</div><div style="text-align: justify;"><<>> खजुराहो के मंदिर एवं स्मारक, मध्य प्रदेश</div><div style="text-align: justify;"><<>> महाबोधी मंदिर, बोधगया, बिहार</div><div style="text-align: justify;"><<>> मानस राष्ट्रीय अभ्यारण्य, असम</div><div style="text-align: justify;"><<>> भारतीय पर्वतीय रेल पश्चिम बंगाल</div><div style="text-align: justify;"><<>> नंदादेवी राष्ट्रीय अभ्यारण्य एवं फूलों की घाटी, उत्तरांचल</div><div style="text-align: justify;"><<>> कुतुब मीनार, दिल्ली</div><div style="text-align: justify;"><<>> भीमबटेका, मध्य प्रदेश</div><div style="text-align: justify;"><<>> लाल किला, दिल्ली</div><div style="text-align: justify;"><<>> कोणार्क मंदिर, उड़ीसा</div><div style="text-align: justify;"><<>> सुंदरवन राष्ट्रीय अभ्यारण्य, पश्चिम बंगाल</div><div style="text-align: justify;"><<>> ताजमहल, उत्तर प्रदेश</div>ABHIVYAKTIhttp://www.blogger.com/profile/11939926628758225099noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-152689614694463577.post-50142873956560808732010-04-12T06:53:00.000-07:002010-04-12T06:54:39.716-07:00राईट टू एजुकेशन: क्या बच्चों को दिला पायेगा शिक्षा का अधिकार ?<div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">* पैसा आया आड़े, राज्यों ने फैलाए हाथ ?</div><div style="text-align: justify;">(कमल सोनी)>>>> चाहे केन्द्र सरकार हो या राज्य सरकारें एक तरफ तो शिक्षा के लिए धन की कमी नहीं आने देने के बात कहती हैं तो दूसरी तरफ राईट टू एजुकेशन क़ानून को लागू करने में धन के अभाव की बात कहते हुए केन्द्र और राज्य सरकारे आमने सामने खादी है. राईट टू एजुकेशन एक्ट 1 अप्रैल से पूरे भारत में लागू तो हो गया. साथ ही शिक्षा का अधिकार अधिनियम लागू होने के बाद भारत उन 130 से अधिक देशों की सूची में शामिल भी हो गया है, जो बच्चों को नि:शुल्क और आवश्यक शिक्षा उपलब्ध कराने की कानूनी गारंटी प्रदान करते हैं. लेकिन अब सरकार के सामने नई चुनौतियां सामने आने लगीं हैं. देश के राज्यों ने पैसे का आभाव बताते हुए केंद्र के सामने अरबों रुपये की मांग कर दी है. मध्यप्रदेश समेत देश के ११ राज्यों ने केन्द्र से पैसों की मांग की है. परिणामस्वरूप केन्द्र सरकार को इस क़ानून को लागू करवाने में पसीना आ रहा है. वैसे भी शिक्षा अधोसंरचना में कमी सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती है लेकिन राज्यों का केन्द्र के सामने हाथ फैलाना राईट टू एजुकेशन एक्ट की रह में रोडे अटका रहा है. हालांकि सभी राज्य सरकारें इस क़ानून को लागू करवाने के लिए केंद्र सरकार के साथ होने के बात कर रही हैं लेकिन धन का आभाव बताते हुए असमर्थता भी व्यक्त कर रही हैं. राज्यों का कहना है कि इस कानून को लागू करने में होने वाले खर्च में केन्द्र अपना प्रस्तावित हिस्सा ५५ प्रतिशत से बढ़ाकर ७५-९० प्रतिशत के बीच रखे. बिहार का तो यह कहना है कि केन्द्र शत प्रतिशत राशि वाहन करे. एक अनुमान के मुताबिक़ इस ऐतिहासिक क़ानून को लागू करने में आने वाले पांच सालों में १.७१ लाख करोड रुपये का खर्च आएगा. यहे मुख्य वजह है कि राज्य सरकारों ने केन्द्र के सामने हाथ फैलाये हैं. </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">क्या हैं चुनौतियां :- क्या सिर्फ कानून बन जाने से देश भर के बच्चों की मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का रास्ता तय हो जाएगा ? निश्चित रूप से नहीं. और फिर यदि देश में कानून बनाने और उसके अमल करने के इतिहास पर गौर करें तो भय सिर्फ इसी बात का लगता है कि कहीं यह क़ानून भी कागजों में ही न रह जाए. शिक्षा का अधिकार कानून लागू होते ही सरकार के सामने नई नई चुनौतियां है. 1५ लाख नए शिक्षकों की भर्ती, नए स्कूल बनाना, स्कूलों में क्लासरूम बढ़ाना, शिक्षकों को प्रशिक्षण देना, निजी स्कूलों के लिए क़ानून को सख्ती से लागू करना. देश के दूर दराज़ के इलाके जहां शिक्षा का परिदृश्य और वहा की जमीनी हकीकत किसी से छिपी नहीं हैं वहाँ क़ानून का सख्ती से पालन करवाना. अपने आप में किसी चुनौती से कम नहीं है. इतना ही नहीं दूर दराज़ के क्षेत्रों की शालाओं में शिक्षकों की अनुपस्थिति, अभिभावकों की उदासीनता, सही पाठय़क्रम का अभाव, अध्यापन में खामियां, अव्यवस्था, भ्रष्टाचार इत्यादि कई खामियां है जो राईट टू एजुकेशन एक्ट के अमल में रोडे अटका सकती हैं. भले ही प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने यह कह दिया हो कि 'सब हो जाएगा और कानून के अमल में धन की कमी आड़े नहीं आने दी जाएगी' लेकिन यकीन जाने तो चुनौतियों की सूची बहुत लंबी है. और फिर शिक्षा के लिए बजट में इतना प्रावधान करना सरकार भी सरकार के लिए इतना आसान नहीं होगा. </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">सरकार ने भी स्वीकारी चुनौतिया :- अब एक अहम सवाल यह उठता है कि क्या यह कानून वास्तव में हर बच्चे को शिक्षा का अधिकार दिला पायेगा ? राईट टू एजुकेशन एक्ट महज़ लागू कर देना ही काफी नहीं है. सरकार के समक्ष इसके अमल का असली इम्तिहान तो अब शुरू हो गया है. स्वयं मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल भी इसे बड़ी चुनौती माना है. उन्होंने कहा, 'सभी को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देना बड़ी चुनौती है. इसीलिए अब हर राज्य के शिक्षा सचिवों को अलग-अलग बुला कर उनसे मशविरा किया जाएगा.' केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल का दावा तो यह है कि इससे देश के करीब एक करोड़ बच्चों को फायदा होगा. उनके अनुसार इससे छह से 14 वर्ष के बीच की उम्र के इन बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा पाने का अधिकार मिल जाने से शिक्षा हासिल करके अपनी और अपने परिवार की गरीबी दूर करने और विकास की मुख्यधारा में शामिल हो पाने का नया अवसर मिलेगा. मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 को लागू करने की जिम्मेदारी केंद्र और राज्य सरकारों के अलावा न्यायपालिका और शैक्षिक प्रशासन की भी होगी. </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">क्या कह रहे हैं राज्य :- </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">राजस्थान :- प्रमुख सचिव स्कूल शिक्षा डॉ. ललित पवारने कहा कि राज्य धनराशी की भागीदारी में ७५:२५ की भागीदारी चाहता है. </div><div style="text-align: justify;">गुजरात :- शिक्षामंत्री रमनलाल वोरा ने कहा कि राज्यों को फंडिग में ४५ प्रतिशत की भागीदारी के लिए कहने का कोई मतलब नहीं है, फंडिग ७५:२५ के अनुपात में होनी चाहिए. </div><div style="text-align: justify;">महाराष्ट्र :-कानून को लागू करने के लिए तैयार है. राज्य में पर्याप्त संख्या में मानावाबल उपलब्ध है तथा यहाँ शिक्षको की कमी की कोई विशेष समस्या नहीं है. इससे ६ से १४ वर्ष की आयु के लगभग १.३७ लाख बच्चो को फ़ायदा मिलेगा जो कभी स्कूल नहीं गए है. </div><div style="text-align: justify;">मध्यप्रदेश :- शिक्षा को अनिवार्य करने के लिए राज्य को १३ हजार करोड़ रुपये की आवश्यकता होगी. यह राशि केंद्र सरकार को बहन करनी चाहिए. प्रदेश में इसके लिए १.२५ लाख अतिरिक्त शिक्षको की भी जरुरत होगी.</div><div style="text-align: justify;">तमिलनाडू :- स्कूल शिक्षा थंगम थेनारासु के अनुसार शिक्षको की कोई कमी नहीं है. राज्य को सिर्फ एक हजार और शिक्षको की आवश्यकता होगी. </div><div style="text-align: justify;">अरुणाचल प्रदेश : शिक्षामंत्री बोसीराम सिराम के अनुसार अच्छे शिक्षको की कमी एक बड़ी समस्या है. </div><div style="text-align: justify;">उतरप्रदेश :- मुख्यमंत्री मायावती ने केंद्र पर आरोप लगाया है. कि कानून को लागू करने के लिए धन की व्यवस्था न कर केंद्र इस कानून को लागू करने में व्यावहारिक दिक्कतों को अनदेखा कर रहा है. राज्य के वित्तीय हालात ऐसे नहीं है. कि कानून को लागू करने की लागत को वहन कर सके. </div><div style="text-align: justify;">बिहार :- इस अधिनियम को लागू करने के लिए बिहार को ३.३० लाख और शिक्षको तथा १.८ लाख अतिरिक्त क्लासरुम्स की आवश्यकता होगे. मानव संसाधन मंत्री कानून को लागू करने के लिए राज्य को २० हजार करोड़ की जरुरत होगी.</div><div style="text-align: justify;">पश्चिम बंगाल :- शिक्षा मंत्री पार्थ डे का कहना है कि हम केंद्र-राज्य में ७५:२५ अनुपात की भागीदारी चाहते है. सरकार एक लाख शिक्षको की भर्ती कर रही है तथा ५०% भर्ती हो चुकी है. निजी स्कूलों का रोना रोया कि हम उन्हें कोटा आरक्षण के लिए बाध्य नहीं कर सकते. </div><div style="text-align: justify;">उडीसा :- स्कूल शिक्षा मंत्री प्रताप की मांग है कि फंडिंग ९०:१० के अनुपात में की जाए. इस कानून को लागू करने के लिए उड़ीसा को १६०० करोड़ रुपये की आवश्यकता होगी. उड़ीसा जैसा गरीब राज्य इस धनराशि को वहन नहीं कर सकता. </div><div style="text-align: justify;">आन्ध्र प्रदेश :- राज्य के शिक्षा मंत्री डीएमवी प्रसाद राव ने कहा हम कानून लागू करने के लिए तैयार है. राज्य में शिक्षको की कोई कमी नहीं है क्योकि कुछ स्थानों में उनकी अधिकता है.</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">क्या है शिक्षा का अधिकार कानून :- भारत आज विश्व की एक प्रमुख आर्थिक महाशक्ति है. चीन के बाद सबसे तेज आर्थिक विकास दर हमारी है. हमारे यहाँ दुनिया का दूसरे नंबर का सबसे बड़ा और गतिशील व मजबूत उपभोक्ता बाजार मौजूद है. इन तमाम तमगों के बीच अशिक्षा हमारी एक बड़ी भयावह सच्चाई है. अब एक अप्रैल से देश के 6-14 आयुवर्ग के बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा देना कानूनी रुप से सरकार के लिए जरुरी हो जाएगा. यह सब कुछ संभव हो रहा है बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा के अधिकार एक्ट-2009 की वजह से. केंद्र सरकार ने इस बिल पर पिछले साल ही अपनी मुहर लगा दी थी और तय किया था कि एक अप्रैल 2010 को इसे पूरे देश में लागू कर दिया जाएगा. अनामांकित एवं शाला से बाहर बच्चों के लिए विशेष प्रशिक्षण की व्यवस्था भी की जायेगी. किसी भी बच्चे को कक्षा 8 तक फेल करने पर प्रतिबंध भी लगा दिया गया है. तो दूसरी और शिक्षा सत्र के दौरान कभी भी प्रवेश दिया जाएगा. यह कानून स्कूलों में शिक्षक और छात्रों के अनुपात को सुधारने की बात करता है. मसलन अभी कई स्कूलों में सौ-सौ बच्चों पर एक ही शिक्षक हैं. लेकिन इस कानून में प्रावधन है कि एक शिक्षक पर 40 से अधिक छात्र नहीं होंगे. शालाओं में बच्चों को शारीरिक दण्ड देने एवं मानसिक रूप से प्रताड़ित करना पूर्णत: प्रतिबंधित कर दिया गया है. इस कानून के अनुसार राज्य सरकारों को बच्चों की आवश्यकता का ध्यान रखते हुए लाइब्रेरी, क्लासरुम, खेल का मैदान और अन्य जरूरी चीज उपलब्ध कराना होगा. शिक्षकों का गैर शिक्षकीय कार्य में लगाना प्रतिबंधित कर दिया गया है. यानि अब शिक्षकों को गैर शिक्षकीय कार्यों में नहीं लगाया जायेगा. कानून के मुताबिक बिना मान्यता के किसी भी स्कूल का संचालन नहीं होगा. </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">क्या है क़ानून में कमियां :- शिक्षा विदों का कहना है कि इस कानून में 0-6 आयुवर्ग और 14-18 के आयुवर्ग के बीच के बच्चों की बात नहीं कई गई है. जबकि संविधान के अनुछेच्द 45 में साफ शब्दों में कहा गया है कि संविधान के लागू होने के दस साल के अंदर सरकार 0-14 वर्ग के आयुवर्ग के बच्चों को अनिवार्य और मुफ्त शिक्षा देगी. हालांकि यह आज तक नहीं हो पाया. वहीं अंतराष्ट्रीय बाल अधिकार समझौते के अनुसार 18 साल तक की उम्र तक के बच्चों को बच्चा माना गया है. जिसे 142 देशों ने भी स्वीकार किया है. भारत भी उनमें से एक है. ऐसे में 14-18 आयुवर्ग के बच्चों को शिक्षा की बात इस कानून में क्यों नहीं कई गई है ? वहीं दूसरी और इस कानून पर जानकारी के अभाव में असमंजस की स्थिति भी बनी हुई है. और कुछ सवाल हैं जिनके उत्तर उन्हें ढूंढे नहीं मिल रहे. जैसे स्कूल में किन बच्चों को मुफ्त में पढ़ाना है, इसका खर्च क्या सरकार देगी और देगी भी तो कैसे और कितना. २५ फीसदी बच्चों को मुफ्त शिक्षा देने का प्रावधान कानून में है तो क्या क्लास में बच्चों की संख्या बढ़ानी है या पहले की तरह ही यथावत रखनी है. ऐसे कई सवाल स्कूल संचालकों ने उठाए हैं. नए अधिनियम की जानकारी देने के लिए अब तक शिक्षा विभाग ने निजी स्कूल संचालकों को कोई पत्र नहीं लिखा है और ना ही मामले में कोई कार्यशाला का आयोजन किया है. लिहाजा स्कूल संचालक पशोपेश की स्थिति में है.</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">शिक्षा का अधिकार वाला भारत 135वां देश :- शिक्षा का अधिकार अधिनियम लागू होने के बाद भारत उन 130 से अधिक देशों की सूची में शामिल हो गया है, जो बच्चों को नि:शुल्क और आवश्यक शिक्षा उपलब्ध कराने की कानूनी गारंटी प्रदान करते हैं. वहीं दुनिया के सिर्फ 13 देश ही ऐसे हैं जहां पूरी तरह नि:शुल्क शिक्षा मिलती है. बच्चों को पंद्रह साल तक पूरी तरह नि:शुल्क शिक्षा मुहैया कराने के मामले में चिली सबसे शीर्ष स्थान पर है. यह देश छह से 21 साल की उम्र तक के बच्चों को पूरी तरह मुफ्त और आवश्यक शिक्षा मुहैया कराता है. शिक्षा के अधिकार को दुनियाभर में अहम मानव अधिकार के तौर पर मान्यता है. इसे सबसे पहले मानवाधिकार संबंधी सार्वभौम घोषणापत्र 1948 [यूनिवर्सल डिक्लरेशन आफ ह्यूमन राइट्स 1948] के तहत मान्यता मिली थी. </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">बहरहाल विश्व स्तर पर आज हमारा भारत देश हर तरह से संपन्न और प्रगतिशील माना जाता हैं. आज देश ने आकाश से बढ़कर ब्रह्माण्ड को छूने में कामयाबी हासिल की हैं. लेकिन इस पूरे प्रगतिशील दौर में आज भी देश में शिक्षा का स्तर पहले अधिक चिंताजनक बना हुआ है. आज भले ही हमारे पास हर एक किलोमीटर पर स्कूल और पाठशालाएं मौजूद हों लेकिन शिक्षा का स्तर लगातार गिरता रहा है. आज दौर में भले ही हमने ज्यादा से ज्यादा बच्चों को स्कूल में दाखिला दिला दिया हो लेकिन शिक्षा के पैमानों में इन बच्चों की स्थिति और भी अधिक चिंताजनक हो गई है. देश में सभी के लिए राईट टू एजुकेशन क़ानून भले ही लागू हो गया हो. लेकिन यह अधिकार महज़ कागजों पर ही सिमट कर ना रह जाए इसके लिए निश्चित रूप कई चुनौतियों का सामना करना होगा. आज राज्य सरकारों का पैसे का अभाव बताकर केन्द्र से राशि की मांग करना भले ही केन्द्र सरकार के पसीने निकाल रहा हो. लेकिन अब जब इस क़ानून को लागू कर ही दिया है. तो हर बच्चे को शिक्षा का अधिकार मिले इसके लिए हर चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा. </div><div style="text-align: justify;"><br /></div>ABHIVYAKTIhttp://www.blogger.com/profile/11939926628758225099noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-152689614694463577.post-47405982411768451352010-03-22T04:52:00.000-07:002010-03-22T04:53:56.434-07:00'जल नहीं तो कल नहीं' - जल बचाओ<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgYEoHL2lgxzN1GMC2ki4Nz-51-wuSMDgW8yrvAxBRrgEjGslhG6IbkDeoW7adT7Z1XPkdcPzvxyHfi1C2ZlUGTa8XJDEZgZ8eFgvjR-Tpz8oFOu7wqpYkuffqJ3_HM9TzEeJcJJrljz8_Z/s1600-h/wwd.jpg"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 325px; height: 325px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgYEoHL2lgxzN1GMC2ki4Nz-51-wuSMDgW8yrvAxBRrgEjGslhG6IbkDeoW7adT7Z1XPkdcPzvxyHfi1C2ZlUGTa8XJDEZgZ8eFgvjR-Tpz8oFOu7wqpYkuffqJ3_HM9TzEeJcJJrljz8_Z/s400/wwd.jpg" border="0" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5451425158507466834" /></a><br /><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">(कमल सोनी)>>>> "रहिमन पानी राखिये बिन पानी सब सून" आज २२ मार्च को पूरे विश्व में जल दिवस मनाया जा रहा है. यानि जल बचाने के संकल्प का दिन. धरती पर जब तक जल नहीं था तब तक जीवन नहीं था और यदि आगे जल ही नहीं रहेगा तो जीवन के अस्तित्व की कल्पना नहीं की जा सकती. वर्त्तमान समय में जल संकट एक विकराल समस्या बन गया है. नदियों का जल स्तर गिर रहा है. कुएं, बावडी, तालाब जैसे प्राकृतिक स्त्रोत सूख रहे हैं. घटते वन्य क्षेत्र के कारण भी वर्षा की कमी के चलते जल संकट बढ़ रहा है. वहीं उद्योगों का दूषित पानी की वजह से नदियों का पानी प्रदूषित होता चला गया. लेकिन किसी ने इस ओर ध्यान नहीं दिया. आँकड़े बताते हैं कि विश्व के लगभग ८८ करोड लोगों को पीने का शुद्ध पानी नही मिल रहा है. ताज़े पानी के महत्त्व पर ध्यान केन्द्रित करने और ताज़े पानी के संसाधनों का प्रबंधन बनाये रखने के लिए राष्ट्र संघ प्रत्येक वर्ष २२ मार्च का दिन अंतर्राष्ट्रीय जल दिवस के रूप में मनाता है. सुरक्षित पेय जल स्वस्थ्य जीवन की मूल भूत आवश्यकता है फिर भी एक अरब लोग इससे वंचित हैं. जीवन काल छोटे हो रहे हैं- बीमारियाँ फैल रही हैं. आठ में से एक व्यक्ति को और पूरी दुनियाँ में ८८ करोड़ ४० लाख लोगों को पीने के लिए साफ़ पानी नहीं मिल पा रहा. विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के अनुसार प्रत्येक वर्ष ३५ लाख ७५ हज़ार लोग गंदे पानी से फैलने वाली बीमारी से मर जाते हैं. मरने वालों में अधिकांश संख्या १४ साल से कम आयु के बच्चों की होती है जो विकासशील देशों में रहते हैं. इसे रोकने के लिए अमरीका विकास सहायता के तहत पूरी दुनियाँ में हर साल जल आपूर्ति और साफ़ पीने का पानी सुलभ कराने के लिए करोडों डॉलर खर्च कर रहा है. </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">जल बचाना ज़रूरी :- प्रकृति जीवनदायी संपदा जल हमें एक चक्र के रूप में प्रदान करती है, हम भी इस चक्र का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं. चक्र को गतिमान रखना हमारी ज़िम्मेदारी है, चक्र के थमने का अर्थ है, हमारे जीवन का थम जाना. प्रकृति के ख़ज़ाने से हम जितना पानी लेते हैं, उसे वापस भी हमें ही लौटाना है. हम स्वयं पानी का निर्माण नहीं कर सकते अतः प्राकृतिक संसाधनों को दूषित न होने दें और पानी को व्यर्थ न गँवाएँ यह प्रण लेना आज के दिन बहुत आवश्यक है. पानी हमारे जीवन की पहली प्राथमिकता है, इसके बिना तो जीवन संभव ही नहीं क्या आपने कभी सोचा कि धरती पर पानी जिस तरह से लगातार गंदा हो रहा है और कम हो रहा है, अगर यही क्रम लगातार चलता रहा तो क्या हमारा जीवन सुरक्षित रहेगा कितनी सारी आपदाओं का सामना करना पड़ेगा और सबकी जिन्दगी खतरे में पड़ जाएगी इस लिए हम सबको अभी से इन सब बातों को ध्यान में रख कर पानी की संभाल और सुरक्षा की जिम्मेदारी उठानी चाहिए यह दिवस तो २२ मार्च को मनाया जाता है और वैसे भी पानी की आवश्यकता तो हमें हर पल होती है फिर केवल एक दिन ही क्यों, हमें तो हर समय जीवनदायी पानी की संभाल के लिए उपाय करते रहना चाहिए, यह दिन तो बस हमें हमारी जिम्मेदारी का अहसास कराने के लिए मनाए जाते हैं.</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">दुनिया भर की मुख्य नदियों के जल स्तर में भारी गिरावट दर्ज - रिसर्च :- दुनिया भर की मुख्य नदियों के जल स्तर में गिरावट दर्ज की गई है एक अध्ययन में निकले निष्कर्षों के मुताबिक़ जलवायु परिवर्तन की वजह से नदियों का जल स्तर जल स्तर घट रहा है और आगे इसके भयावह परिणाम सामने आएंगे अमेरिकन मीटियरॉलॉजिकल सोसाइटी की जलवायु से जुड़ी पत्रिका ने वर्ष २००४ तक, पिछले पचास वर्षों में दुनिया की ९०० नदियों के जल स्तर का विश्लेषण किया है. जिसमें यह तथ्य निकलकर आया है कि दुनिया की कुछ मुख्य नदियों का जल स्तर पिछले पचास वर्षों में गिर गया है. यह अध्ययन अमेरिका में किया गया है. अध्ययन के अनुसार इसकी प्रमुख वजह जलवायु परिवर्तन है. पूरी दुनिया में सिर्फ़ आर्कटिक क्षेत्र में ही ऐसा बचा है. जहाँ जल स्तर बढ़ा है. और उसकी वजह है. तेज़ी से बर्फ़ का पिघलना भारत में ब्रह्मपुत्र और चीन में यांगज़े नदियों का जल स्तर अभी भी काफ़ी ऊँचा है. मगर चिंता ये है कि वहाँ भी ऊँचा जल स्तर हिमालय के पिघलते ग्लेशियरों की वजह से है. भारत की गंगा नदी भी गिरते जल स्तर से अछूती नहीं है. उत्तरी चीन की ह्वांग हे नदी या पीली नदी और अमरीका की कोलोरेडो नदी दुनिया की अधिकतर जनसंख्या को पानी पहुँचाने वाली इन नदियों का जल स्तर तेज़ी से गिर रहा है. अध्ययन में यह भी पता चला है. कि दुनिया के समुद्रों में जो जल नदियों के माध्यम से पहुँच रहा है. उसकी मात्रा भी लगातार कम हो रही है. इसका मुख्य कारण नदियों पर बाँध बनाना तथा खेती के लिए नदियों का मुँह मोड़ना बताया जा रहा है. लेकिन ज़्यादातर विशेषज्ञ और शोधकर्ता गिरते जल स्तर के लिए जलवायु परिवर्तन को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं. उनका मानना है कि बढ़ते तापमान की वजह से वर्षा के क्रम में बदलाव आ रहा है. और जल के भाप बनने की प्रक्रिया तेज़ हो रही है. मध्यप्रदेश की जीवनदायिनी नर्मदा का भी जल स्तर काफी तेज़ी से गिर रहा है. जिसका मुख्य कारण नर्मदा के दोनों तटों पर घटते वन्य क्षेत्र और जलवायु परिवर्तन माना जा रहा है. विशेषज्ञों ने प्राकृतिक जल स्रोतों की ऐसी क़मी पर चिंता ज़ाहिर करते हुए कहा है. कि दुनिया भर में लोगों को इसकी वजह से काफ़ी परेशानियों का सामना करना पड़ेगा. उनका कहना है. कि जैसे जैसे भविष्य में ग्लेशियर या हिम पिघलकर ग़ायब होंगे इन नदियों का जल स्तर भी नीचे हो जाएगा.</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">जल है तो कल है :- जल बचाने के लिए आमजनमानस को स्वयं विचार करना होगा. क्योंकि जल है तो कल है. हमें स्वयं इस बात पर गौर करना होगा कि रोजाना बिना सोचे समझे हम कितना पानी उपयोग में लाते हैं. २२ मार्च “विश्व जल दिवस” है. पानी बचाने के संकल्प का दिन. पानी के महत्व को जानने का दिन और पानी के संरक्षण के विषय में समय रहते सचेत होने का दिन. समय आ गया है जब हम वर्षा का पानी अधिक से अधिक बचाने की कोशिश करें. बारिश की एक-एक बूँद कीमती है. इन्हें सहेजना बहुत ही आवश्यक है. यदि अभी पानी नहीं सहेजा गया, तो संभव है पानी केवल हमारी आँखों में ही बच पाएगा. पहले कहा गया था कि हमारा देश वह देश है जिसकी गोदी में हज़ारों नदियाँ खेलती थी, आज वे नदियाँ हज़ारों में से केवल सैकड़ों में ही बची हैं. कहाँ गई वे नदियाँ, कोई नहीं बता सकता. नदियों की बात छोड़ दो, हमारे गाँव-मोहल्लों से तालाब आज गायब हो गए हैं, इनके रख-रखाव और संरक्षण के विषय में बहुत कम कार्य किया गया है. पानी का महत्व भारत के लिए कितना है. यह हम इसी बात से जान सकते हैं. कि हमारी भाषा में पानी के कितने अधिक मुहावरे हैं. आज पानी की स्थिति देखकर हमारे चेहरों का पानी तो उतर ही गया है, अब पानी हमें रुलाएगा, यह तय है. तो चलो हम सब संकल्प लें कि हर समय अपनी जिम्मेदारी को निभाएंगे इस तरह हम बहुत सारे जीवों का जीवन बचाने में अपना सहयोग दे सकते हैं. </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;"> </div>ABHIVYAKTIhttp://www.blogger.com/profile/11939926628758225099noreply@blogger.com8tag:blogger.com,1999:blog-152689614694463577.post-4902445048198975582010-03-09T06:57:00.001-08:002010-03-09T06:57:52.451-08:00बधाई....अंततः राज्यसभा में पास हुआ महिला आरक्षण बिल, मिले 186 मत<div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">(कमल सोनी)>>>> राज्यसभा में अंततः महिला आरक्षण विधेयक पास हो ही गया. कुल १८७ मत पड़े, जिनमें विधेयक के पक्ष में १८६ और विपक्ष में १ वोट पड़ा. इससे पूर्व आज जब पुनः सरकार ने इस पर बहस करनी चाही. तो इस बिल का विरोध कर रहे सांसद फिर हंगामा करने लगे. लेकिन इस अनियंत्रित हंगामें को देख सदन में मार्शल बुलाकर विरोध कर रहे सांसदों को सदन से सख्ती से बाहर कर दिया. जिसके बाद महिला आरक्षण बिल ध्वनि मत से पारित करवा दिया गया. ध्वनि मत से बिल पास होने के बाद इस पर बहस कराई गई और वोटिंग प्रक्रिया पूरी हुई. और अंततः महिला आरक्षण बिल पास हो गया. </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">निलंबित सदस्यों को मार्शलों ने किया बाहर :- राज्यसभा में हुए एक अभूतपूर्व घटनाक्रम में महिला आरक्षण के प्रावधान वाले संविधान संशोधन विधेयक के विरोधी सात निलंबित सदस्यों को सदन से बाहर करने के लिए मार्शलों की ताकत का इस्तेमाल किया गया तथा इसके विरोध स्वरूप सपा के कमाल अख्तर ने कांच का ग्लास तक तोड़ दिया और करीब आधे घंटे तक सदन में जबर्दस्त अफरा-तफरी मची रही. तीन बार के स्थगन के बाद जब उच्च सदन की बैठक शुरू हुई तो सातों निलंबित सदस्य आसन के समक्ष धरने पर ही मौजूद थे. इनमें सपा के कमाल अख्तर, आमिर आलम खान, वीरपाल सिंह और नंद किशोर यादव, जदयू के निलंबित सदस्य डॉ. एजाज अली, राजद के सुभाष यादव तथा लोजपा के साबिर अली शामिल हैं. इन्हीं के साथ राजद के राजनीति प्रसाद और सपा के रामनारायण साहू भी आसन के समक्ष आकर विरोध व्यक्त करने लगे. सभापति हामिद अंसारी ने इन सदस्यों से वापस चले जाने की कई बार अपील की. इसी बीच उन्होंने संविधान 108वां संशोधन विधेयक पर चर्चा की घोषणा करते हुए विपक्ष के नेता अरुण जेटली का नाम पुकारा. जेटली अपने स्थान पर बोलने के लिए खड़े हुए लेकिन हंगामे के कारण वह बहुत देर तक अपनी बात शुरू नहीं कर पाये. काफी समय तक सदन में हंगामा जारी रहने के बीच ही सभापति ने विधेयक पर मत विभाजन की घोषणा कर दी. इसके बाद उन्होंने लॉबी खाली करवाने का आदेश दिया. सदन में उस समय 30 से ज्यादा मार्शल मौजूद थे. इन मार्शलों ने एक-एक कर सातों निलंबित सदस्यों को जबर्दस्ती उठाकर सदन से बाहर कर दिया. सबसे अंत में सपा के कमाल अख्तर को मार्शलों ने सदन से जबर्दस्ती बाहर किया. इससे पहले अख्तर सपा, बसपा, जद (यू) और अन्नाद्रमुक के संसदीय नेताओं की बैठने वाली अग्रिम पंक्ति की एक सीट पर खड़े होकर नारेबाजी करने लगे. विरोध के दौरान ही उन्होंने मेज पर पड़ा कांच का एक गिलास पटक दिया. इसके बाद मार्शल उन्हें उठाकर सदन से बाहर ले गए. कमाल अख्तर तथा अन्य निलंबित सदस्यों को जबर्दस्ती सदन से बाहर निकाले जाने का विरोध कर रहे सपा तथा राजद सदस्यों में भाजपा के विनय कटियार समेत कई अन्य सदस्य भी शामिल हो गए. भाजपा के सदस्य मांग कर रहे थे कि सदन को व्यवस्था में लाया जाना चाहिए और इस तरह मार्शल का प्रयोग कर सदन नहीं चलाया जा सकता. इससे पहले, भारी शोरगुल और हंगामे की वजह से सभापति ने विधेयक को बिना चर्चा के ही पारित कराने के उद्देश्य से मत विभाजन का निर्देश दे दिया था. यहां तक कि उन्होंने इस पर ध्वनि मत भी ले लिया था, लेकिन बाद में स्थिति शांत होने पर उन्होंने पुन: चर्चा शुरू कराने का निर्देश दिया.</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">क्या है विरोध :- पिछले १३ वर्षों से महिला आरक्षण विधेयक आम सहमति के अभाव में लटका पड़ा है. जब भी इसे पेश करने की कोशिश हुई है संसद में ज़बरदस्त हंगामा हुआ है. लेकिन इस बार कांग्रेस, भाजपा और वामपंथी दलों के सदस्यों की संख्या विरोध कर रहे छोटे दलों के सदस्यों पर भारी पड़ सकती है. जो छोटे दल इसका विरोध कर रहे हैं उनमें लालू यादव की आरजेडी, मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी, मायावती की बहुजन समाज पार्टी और देवगौड़ा शामिल हैं. इस विधेयक को लेकर बहस का मुद्दा यह है कि इस आरक्षण में पिछड़ी, दलित तथा मुस्लिम महिलाओं को अलग से आरक्षण दिया जाना चाहिए, वरना ज्यादातर सीटों पर पढ़ी-लिखी शहरी महिलाओं का कब्ज़ा हो जाएगा. यानि विरोध कर रहे सांसद आरक्षण के अंदर आरक्षण की मांग कर रहे थे. मुलायम सिंह यादव ने कहा कि ये पिछड़ों, मुसलमानों और दलितों को संसद में आने देने से रोकने की साज़िश है तो लालू यादव ने इसे भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस की साज़िश बताया. दूसरी ओर देशभर के मुस्लिम संगठनों ने महिला विधेयक के मौजूदा स्वरूप पर विरोध में प्रदर्शन की चेतावनी दी है. जामिया मिलिया इस्लामिया के प्रोफेसर अख्तरुल वासिम ने कहा है कि जब पंचायतों में महिलाओं को आरक्षण के अंदर आरक्षण दे सकते हैं तो राष्ट्रीय पंचायत में ऐसा करने से क्यों परहेज किया जा रहा है.</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">जदयू का समर्थन :- एक तरफ जदयू अध्यक्ष शरद यादव विधेयक के विरोध में हैं. तो दूसरे तरफ पार्टी के दूसरे प्रमुख नेता व बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के इसके समर्थन में हैं जिससे पार्टी के समीकरण बदल गए हैं. जनता दल-यू के सदस्यों की राय नीतीश कुमार के बयान के बाद विभाजित हो गई है. राज्यसभा में जदयू के सात सांसदों में जॉर्ज फर्नाडीस बीमार होने के कारण अनुपस्थित हैं. बाकी छह सांसदों को नीतीश का करीबी माना जाता है, इसीलिए उनके विधेयक के समर्थन में रहने की उम्मीद है. विधेयक के पक्ष में वकालत करने वालों का तर्क है कि पिछड़ी महिलाओं के लिए आरक्षण की बहस में कोई दम नहीं है. विधेयक के विरोधियों को बिहार के मुख्यमंत्री और जनता दल-यू के नेता नीतीश कुमार के समर्थन देने की घोषणा से झटका लगा है. तो केंद्र सरकार को राहत मिली है.</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">महिला आरक्षण बहुत जरूरी - जेटली :- राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष अरुण जेटली ने कहा है कि देश के विधायी निकायों में महिलाओं को उचित प्रतिनिधित्व देने के लिए आरक्षण बहुत जरूरी है. महिला आरक्षण विधेयक पर चर्चा की शुरुआत करते हुए जेटली ने मंगलवार को कहा, "जो लोग कहते हैं कि महिलाओं को उनका अधिकार दिलाने के लिए आरक्षण की आवश्यकता नहीं है, वे गलत हैं. स्वतंत्रता के 63 वर्षों बाद भी आज लोकसभा में महिलाओं का प्रतिनिधित्व सिर्फ 10.7 फीसदी है. ऐसे में आरक्षण से ही महिलओं को उचित प्रतिनिधित्व मिल सकता है." जेटली ने कहा कि बीते कई वर्षों के बाद आज वह मौका आया है जब यह ऐतिहासिक विधेयक पारित किया जाएगा. यह अवसर सभी के लिए ऐतिहासिक और अद्भुत है. उन्होंने अन्य दूसरे देशों में महिला आरक्षण पर प्रकाश डालते हुए कहा कि महिला आरक्षण क्षेत्रों के आधार पर होना चाहिए. </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">लोकतंत्र की ह्त्या - कमाल अख्तर :- सदन से बाहर किये जाने के बाद सपा के कमाल अख्तर ने कहा कि यह लोकतंत्र की ह्त्या है. हमें अपने अधिकारों से वंचित किया गया. अख्तर ने कहा यह बिल मुसलमान, पिछडा वर्ग और दलित विरोधी है. उन्होंने सरकार पर जबरन बिल पास करने का आरोप भी लगाया. </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">महिला दिवस पर राष्ट्रिय शर्म :- अन्तराष्ट्रीय महिला दिवस पर देश में सोमवार का दिन राज्यसभा में काला सोमवार लेकर आया जब केंद्र सरकार ने महिला सशक्तिकरण की दिशा में एक कदम आगे बढाते हुए राज्यसभा में महिला आरक्षण बिल तो पेश किया. लेकिन इस बिल के विरोधियों ने सदन की मर्यादा को तार-तार करते हुए बिल की प्रतियाँ फाड़ दीं. इसे महिला दिवस पर सबसे बड़ी शर्म ही कहा जायेगा कि सांसदों के हंगामेदार रवैये के कारण न तो इस पर बहस हो सकी और न ही वोटिंग कराई जा सकी. हंगामा इतना ज़बरदस्त था कि सांसदों ने सदन की मर्यादा को तार-तार कर दिया. महिला आरक्षण बिल पर मचे बवाल के कारण राज्यसभा को कई बार स्थगित किया गया. पहले बारह बजे, फिर दो बजे, और फिर तीन बजे के बाद अब राज्य सभा को चार बजे तक के लिए स्थगित कर दिया गया. लेकिन बाद में राज्यसभा की कार्यवाही आज तक के लिए स्थगित की गई थी. </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">बहरहाल भले ही महिला आरक्षण बिल को १४ सालों का इन्तेज़ार करना पड़ा लेकिन अंततः राज्यसभा में महिला आरक्षण विधेयक पास हो गया. अब आगे यह उम्मीद भी लगाईं जा रही है कि आगे यह बिल लोक सभा में भी जल्द से जल्द पेश होगा और भारी बहुमत से पास भी होगा. इस बिल के पास होने के बाद महिलाओं में उत्साह का माहौल है. कुछ महिलाओं ने इसे आज़ादी के बाद महिलाओं के लिए सबसे बड़ा दिन करार दिया है. अब यह देखना होगा कि आने वाले समय में महिला आरक्षण बिल महिला सशक्तिकरण की दिशा में कितना कारगर साबित होगा. </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;"> </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;"><br /></div>ABHIVYAKTIhttp://www.blogger.com/profile/11939926628758225099noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-152689614694463577.post-48750065472681074032010-03-08T06:54:00.001-08:002010-03-08T06:54:32.072-08:00समाज की उन्नति, समृद्धी नारी विकास पर निर्भर<div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">* आठ मार्च अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर विशेष </div><div style="text-align: justify;">-------------------------------------------------------------------------------</div><div style="text-align: justify;">(कमल सोनी)>>>> आज पूरा विश्व अन्तराष्ट्रीय महिला दिवस मना रहा है. और इस दिन कई विशेष कार्यक्रमों का आयोजन हो रहा है. वैसे भी विश्व के समग्र व यथेष्ट विकास के लिए महिलाओं के विकास को मुख्य धारा से जोडना परम आवश्यक है. नारी की स्थिति समाज में जितनी महत्वपूर्ण, सुदृढ़, सम्मानजनक व सक्रिय होगी, उतना ही समाज उन्नत, समृद्ध व मज़बूत होगा. इस बात को आधुनिक विचारक व चिंतक भी स्वीकार करते हैं. बात भारतीय परिद्रश्य की करें तो नारी का त्याग और बलिदान भारतीय संस्कृति की अमूल्य निधि है. भारत में जहाँ एक और नारी को शक्ति स्वरूपा मना जाता है तो दूसरी और रूढीवादी विचारधारा में जकडे हमारे समाज में महिलाओं की वर्त्तमान वास्तविक स्थिति किसी से छिपी नहीं हैं. ऐसे में एक अहम सवाल यह उठता है कि क्या आज ही के दिन महिलाओं का सम्मान किया जाना चाहिए ? लगातार कई सालों से महिला दिवस के रूप में हम एक औपचारिकता निभाते आ रहे हैं लेकिन आज एक बार फिर हमें महिलाओं के अस्तित्व को पहचानने की कोशिश करनी होगी. क्या सिर्फ आज के ही दिन महिला सम्मान की बातें करने से महिला सम्मान की सुरक्षा हो जाती है. या ये सिर्फ यह एक ख़ाना पूर्ति ही है? अथवा महज़ एक औपचारिकता ? पुरुष प्रधान इस समाज में जरूरत इस बात की है कि आज महिलाएं स्वयं अपने अस्तित्व को पहचाने.</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">सृष्टि के आरंभ से नारी अनंत गुणों की आगार रही है. पृथ्वी सी क्षमता, सूर्य जैसा तेज, समुद्र सी गंभीरता, चंद्रमा सी शीतलता, पर्वतों सी मानसिक उच्चता हमें एक साथ नारी हृदय में दृष्टिगोचर होती है. वह दया करुणा, ममता और प्रेम की पवित्र मूर्ति है और समय पड़ने पर प्रचंड चंडी का भी रूप धारण कर सकती है. वह मनुष्य के जीवन की जन्मदात्री भी है. नर और नारी एक दूसरे के पूरक है. किंतु बदलते समय और विश्व के औद्योगीकरण के साथ महिलाओं के मानवीय गुणों की गहरी परीक्षा का प्रारंभ हुई. यह महसूस किया जाने लगा कि काम, पैसा और मेहनत का मूल्य मानवीय विशेषताओं से आगे निकलने लगा है और महिलाएँ इस दौड़ में पीछे रह गई हैं. उनकी इस पीड़ा को विश्व के अनेक देशों मे आवाज़ मिली. और पुरुषों के समान अधिकार की एक नई आवाज़ ने जन्म लिया. उनके उत्थान और पुरुषों के समान अधिकार प्रदान करने के लिए विश्व में कई परिवर्तन हुए. ८ मार्च १९०८ में ब्रिटेन में महिलाओं ने 'रोटी और गुलाब' के नारे के साथ अपने अधिकारों के प्रति सजगता दिखाते हुए प्रदर्शन किया. जहां रोटी उनकी आर्थिक सुरक्षा का प्रतीक था तो गुलाब अच्छे जीवन शैली का प्रतीक था. भारत की पूर्व प्रधानमंत्री स्व. इंदिरा गांधी ने भी कहा था, ''ऐसा कोई काम नहीं है जिसे महिलाएँ पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर नही कर सकती.'' और एक प्रधानमंत्री होते हुए वे समाज के सामने एक ज्वलंत उदाहरण भी थीं. </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस का इतिहास :- वर्त्तमान में अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस ८ मार्च को मानया जाता है. लेकिन अमेरिका में सोशलिस्ट पार्टी के आवाहन पर यह दिवस सबसे पहले २८ फरवरी १९०९ में मनाया गया. इसके बाद यह फरवरी के आखरी रविवार के दिन मनाया जाने लगा. १९१० में सोशलिस्ट इंटरनेशनल के कोपेनहेगन के सम्मेलन में इसे अन्तरराष्ट्रीय दर्जा दिया गया. उस समय इसका प्रमुख ध्येय महिलाओं को वोट देने के अधिकार दिलवाना था क्योंकि, उस समय अधिकतर देशों में महिलाओं को वोट देने का अधिकार नहीं था. १९१७ में रुस की महिलाओं ने, महिला दिवस पर रोटी और कपड़े के लिये हड़ताल पर जाने का फैसला किया. यह हड़ताल भी ऐतिहासिक थी. ज़ार ने सत्ता छोड़ी, अन्तरिम सरकार ने महिलाओं को वोट देने के अधिकार दिये. उस समय रुस में जुलियन कैलेंडर चलता था और बाकी दुनिया में ग्रेगेरियन कैलेंडर. इन दोनो की तारीखों में कुछ अन्तर है. जुलियन कैलेंडर के मुताबिक १९१७ की फरवरी का आखरी रविवार २३ फरवरी को था जब की ग्रेगेरियन कैलैंडर के अनुसार उस दिन ८ मार्च थी. इस समय पूरी दुनिया में (यहां तक रूस में भी) ग्रेगेरियन कैलैंडर चलता है. इसी लिये ८ मार्च, महिला दिवस के रूप में मनाया जाने लगा. महिला दिवस अब लगभग सभी विकसित, विकासशील देशों में मनाया जाता है. यह दिन महिलाओं को उनकी क्षमता, सामाजिक, राजनैतिक व आर्थिक तरक्की दिलाने व उन महिलाओं को याद करने का दिन है जिन्होंने महिलाओं को उनके अधिकार दिलाने के लिए अथक प्रयास किए. </div><div> </div><div style="text-align: justify;">अंतरराष्ट्रीय महिला वर्ष :- अलग-अलग देशों की सरकारों ने अपनी-अपनी स्थित के अनुसार इस संबंध में नियम बनाए एवं वैधानिकता प्रदान किया. प्रथम अंतर्राष्ट्रीय महिला वर्ष मैक्सिको में हुआ. चर्तुथ अंतर्राष्ट्रीय महिला वर्ष के अवसर पर बीजिंग में विश्व के लगभग १८९ देशों ने हिस्सा लिया और विश्व भर मे महिलाओं के जीवन को सुधारने के लिए कठिन लक्ष्य के प्रति दृढ संकल्प और एकजुटता दिखाई. १९७५ मे अंतर्राष्ट्रीय महिला वर्ष का भारत में उद्घाटन तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने किया था. </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">हालातों में सुधार की ज़रूरत :- आज, प्रथम अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के मनाये जाने के लगभग सौ वर्ष बाद भी हमें क्या नज़र आता है? क्या महिलाओं की स्थिति में उतना सुधार हुआ जितना होना चाहिए एक तरफ, दुनिया की लगभग हर सरकार एवं कई अन्य संस्थान अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर खूब धूम मचाते हैं. वे महिलाओं को 'ऊपर उठाने' की अपनी 'कामयाबियों' का डिंडोरा पीटने से भी नहीं चूकते हैं और महिलाओं के लिये कुछ करने के बड़े-बड़े वादे करते हैं. दूसरी ओर, सारी दुनिया में महिलायें आज भी हर प्रकार के बेरहम शोषण और दमन के शिकार हो रही है. महिलाओं के प्रति हो रहे अत्याचार के आंकड़े तो यही दर्शाते हैं. भारत के राजनेता महिलाओं के सशक्तिकरण और उत्थान के लिए बड़े बड़े वायदे तो करते हैं, भाषण भी देते हैं, वे तो इस बात का भी जिक्र करते हैं कि अब बी.पी.ओ., पर्यटन, परिवहन व सेवा उद्योग जैसे कई क्षेत्रों में ज्यादा से ज्यादा संख्या में लड़कियों व महिलाओं को नौकरियां मिल रही हैं, कि वे अच्छे कपड़े पहनकर वातानुकूलित दफ्तरों में काम कर रही हैं, परन्तु क्या यह सब महिलाओं के लिये कोई विकास है ? शायद नहीं. क्योंकि इन क्षेत्रों में काम करने वाली महिलाओं को भारी शोषण झेलना पड़ता है. इन कामों में उनकी कुशलता व योग्यता का कोई संवर्धन नहीं होता, उन्हें कोई सुरक्षा नहीं मिलती. काम पर जाने के बाद भी, वर्तमान पिछड़ी सामाजिक व्यवस्था के चलते, महिलाओं को न तो बराबरी दी जाती है और न ही इज्ज़त. चाहे सड़कों पर हो या काम की जगह पर, उन्हें तरह-तरह के अमानवीय व्यवहार, अपमान व हमलों से दो चार होना ही पड़ता है.</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस महज़ एक दिन औपचारिकता मात्र नहीं है. समूचे विश्व को इस बात पर विचार करना होगा कि महिलाओं को आर्थिक तथा सामाजिक स्तर पर स्वतंत्रता कैसे प्राप्त हो ? इस पुरुष प्रधान दुनिया में आर्थिक तथा सामाजिक आज़ादी के बिना पुरुषों के वर्चस्व को समाप्त नहीं किया जा सकता. दूसरी तरफ़ एक ऐसा समाज भी है जहाँ रूढ़िवादी नेतृत्व धर्म के नाम पर महिलाओं के अधिकारों का हनन करता है. इस समस्या के निराकरण के लिए महिलाओं को अधिक से अधिक शिक्षित करने के लिए एक ईमानदार प्रयास होना चाहिए. अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस का मूल उद्देश्य पूर्ण होगा. </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div> </div>ABHIVYAKTIhttp://www.blogger.com/profile/11939926628758225099noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-152689614694463577.post-77296421828129256002010-02-27T04:42:00.001-08:002010-02-27T04:42:28.524-08:00दुराचार पर सदाचार की विजय और विजय पर रंगों से उत्सव मनाने का पर्व - होली<div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">(कमल सोनी)>>>> होली वसंत ऋतु में मनाया जाने वाला एक महत्वपूर्ण भारतीय त्योहार है. यह पर्व हिंदू पंचांग के अनुसार फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है. रंगों का त्योहार कहा जाने वाला यह पर्व वैसे तो पांच दिनों का हॉट है लेकिन मुख्य रूप से दो दिन मनाया जाता है. पहले दिन को होलिका जलायी जाती है, जिसे होलिका दहन भी कहते है. दूसरे दिन, जिसे धुरड्डी, धुलेंडी, धुरखेल या धूलिवंदन कहा जाता है, लोग एक दूसरे पर रंग, अबीर-गुलाल इत्यादि फेंकते हैं, ढोल बजा कर होली के गीत गाये जाते हैं, और घर-घर जा कर लोगों को रंग लगाया जाता है. ऐसा माना जाता है कि होली के दिन लोग पुरानी कटुता को भूल कर गले मिलते हैं और फिर से दोस्त बन जाते हैं. एक दूसरे को रंगने और गाने-बजाने का दौर दोपहर तक चलता है. इसके बाद स्नान कर के विश्राम करने के बाद नए कपड़े पहन कर शाम को लोग एक दूसरे के घर मिलने जाते हैं, गले मिलते हैं और मिठाइयाँ खिलाते हैं. राग-रंग का यह लोकप्रिय पर्व वसंत का संदेशवाहक भी है. राग अर्थात संगीत और रंग तो इसके प्रमुख अंग हैं ही, पर इनको उत्कर्ष तक पहुँचाने वाली प्रकृति भी इस समय रंग-बिरंगे यौवन के साथ अपनी चरम अवस्था पर होती है. फाल्गुन माह में मनाए जाने के कारण इसे फाल्गुनी भी कहते हैं. होली का त्योहार वसंत पंचमी से ही आरंभ हो जाता है. उसी दिन पहली बार गुलाल उड़ाया जाता है. इस दिन से फाग और धमार का गाना प्रारंभ हो जाता है. खेतों में सरसों खिल उठती है. बाग-बगीचों में फूलों की आकर्षक छटा छा जाती है. पेड़-पौधे, पशु-पक्षी और मनुष्य सब उल्लास से परिपूर्ण हो जाते हैं. खेतों में गेहूँ की बालियाँ इठलाने लगती हैं. किसानों का ह्रदय ख़ुशी से नाच उठता है. बच्चे-बूढ़े सभी व्यक्ति सब कुछ संकोच और रूढ़ियाँ भूलकर ढोलक-झाँझ-मंजीरों की धुन के साथ नृत्य-संगीत व रंगों में डूब जाते हैं. चारों तरफ़ रंगों की फुहार फूट पड़ती है. </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">क्यों मनाई जाती है होली ? :- होली क्यों मनाई जाती है ? इस पर कई कथाएं भी प्रचलित हैं. होली एक सामाजिक पर्व है. और यह भारत में ही नहीं बल्कि विश्व के कई देशों में मनाया जाता है. यह रंगों से भरा रंगीला त्योहार, बच्चे, वृद्ध, जवान, स्त्री-पुरुष सभी के ह्रदय में जोश, उत्साह, खुशी का संचार करने वाला पर्व है. यह एक ऐसा पर्व है जिसे संपूर्ण विश्व में किसी ना किसी रूप में मनाया जाता है. इसके एक दिन पहले वाले सायंकाल के बाद भद्ररहित लग्न में होलिका दहन किया जाता है. इस अवसर पर लकडियां, घास-फूस, गोबर के बुरकलों का बडा सा ढेर लगाकर पूजन करके उसमें आग लगाई जाती है. वैदिक काल में इस पर्व को नवात्रैष्टि यज्ञ कहा जाता था. उस समय खेत के अधपके अन्न को यज्ञ में दान करके प्रसाद लेने का विधान समाज में व्याप्त था. अन्न को होला कहते है, इसी से इसका नाम होलिकोत्सव पडा. वैसे होलिकोत्सव को मनाने के संबंध में अनेक मत प्रचलित है. कुछ लोग इसको अग्निदेव का पूजन मानते हैं, तो कुछ इसे नवसंम्बवत् को आरंभ तथा बंसतामन का प्रतीक मानते हैं. इसी दिन प्रथम पुरुष मनु का जन्म हुआ था. अतः इसे मंवादितिथि भी कहते हैं. </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">प्रचलित कथाएं :- बसंतोत्सव रंगों के पर्व होली पर कई कथाएं भी प्रचलित हैं. जिनमे सबसे ज्यादा प्रचलित कहानी है, हिरण्यकशिपु की. माना जाता है कि प्राचीन काल में हिरण्यकशिपु नाम का एक अत्यंत बलशाली असुर था. अपने बल के दर्प में वह स्वयं को ही ईश्वर मानने लगा था. उसने अपने राज्य में ईश्वर का नाम लेने पर ही पाबंदी लगा दी थी. हिरण्यकशिपु का पुत्र प्रह्लाद ईश्वर भक्त था. प्रह्लाद की ईश्वर भक्ति से क्रुद्ध होकर हिरण्यकशिपु ने उसे अनेक कठोर दंड दिए, परंतु उसने ईश्वर की भक्ति का मार्ग न छोड़ा. हिरण्यकशिपु की बहन होलिका को वरदान प्राप्त था. कि वह आग में भस्म नहीं हो सकती. हिरण्यकशिपु ने आदेश दिया कि होलिका प्रह्लाद को गोद में लेकर आग में बैठे. आग में बैठने पर होलिका तो जल गई, पर प्रह्लाद बच गया. ईश्वर भक्त प्रह्लाद की याद में इस दिन होली जलाई जाती है. प्रतीक रूप से यह भी माना जता है कि प्रह्लाद का अर्थ आनन्द होता है. वैर और उत्पीड़न की प्रतीक होलिका (जलाने की लकड़ी) जलती है और प्रेम तथा उल्लास का प्रतीक प्रह्लाद (आनंद) अक्षुण्ण रहता है. </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">प्रह्लाद की कथा के अतिरिक्त यह पर्व राक्षसी ढुंढी, राधा कृष्ण के रास और कामदेव के पुनर्जन्म से भी जुड़ा हुआ है. कुछ लोगों का मानना है कि होली में रंग लगाकर, नाच-गाकर लोग शिव के गणों का वेश धारण करते हैं तथा शिव की बारात का दृश्य बनाते हैं. कुछ लोगों का यह भी मानना है कि भगवान श्रीकृष्ण ने इस दिन पूतना नामक राक्षसी का वध किया था. इसी खु़शी में गोपियों और ग्वालों ने रासलीला की और रंग खेला था. होली खेलते राधा और कृष्णहोली भारत के सबसे पुराने पर्वों में से है. यह कितना पुराना है इसके विषय में ठीक जानकारी नहीं है लेकिन इसके विषय में इतिहास पुराण व साहित्य में अनेक कथाएँ मिलती है. इन कथाओं पर आधारित साहित्य और फ़िल्मों में अनेक दृष्टिकोणों से बहुत कुछ कहने के प्रयत्न किए गए हैं. लेकिन हर कथा में एक समानता है कि असत्य पर सत्य की विजय और दुराचार पर सदाचार की विजय और विजय को उत्सव मनाने की बात कही गई है. होली का त्योहार राधा और कृष्ण की पावन प्रेम कहानी से भी जुडा हुआ है. वसंत के सुंदर मौसम में एक दूसरे पर रंग डालना उनकी लीला का एक अंग माना गया है. मथुरा और वृन्दावन की होली राधा और कृष्ण के इसी रंग में डूबी हुई होती है. बरसाने और नंदगाँव की लठमार होली तो प्रसिद्ध है ही देश विदेश में श्रीकृष्ण के अन्य स्थलों पर भी होली की परंपरा है. यह भी माना गया है कि भक्ति में डूबे जिज्ञासुओं का रंग बाह्य रंगों से नहीं खेला जाता, रंग खेला जाता है भगवान्नाम का, रंग खेला जाता है सद्भावना बढ़ाने के लिए, रंग होता है प्रेम का, रंग होता है भाव का, भक्ति का, विश्वास का. होली उत्सव पर होली जलाई जाती है अंहकार की, अहम् की, वैर द्वेष की, ईर्ष्या मत्सर की, संशय की और पाया जाता है विशुद्ध प्रेम अपने आराध्य का, पाई जाती है कृपा अपने ठाकुर की. </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">कंस और पूतना की कथा :- पूतनावधकंस ने मथुरा के राजा वसुदेव से उनका राज्य छीनकर अपने अधीन कर लिया स्वयं शासक बनकर आत्याचार करने लगा. एक भविष्यवाणी द्वारा उसे पता चला कि वसुदेव और देवकी का आठवाँ पुत्र उसके विनाश का कारण होगा. यह जानकर कंस व्याकुल हो उठा और उसने वसुदेव तथा देवकी को कारागार में डाल दिया. कारागार में जन्म लेने वाले देवकी के सात पुत्रों को कंस ने मौत के घाट उतार दिया. आठवें पुत्र के रूप में कृष्ण का जन्म हुआ और उनके प्रताप से कारागार के द्वार खुल गए. वसुदेव रातों रात कृष्ण को गोकुल में नंद और यशोदा के घर पर रखकर उनकी नवजात कन्या को अपने साथ लेते आए. कंस ने जब इस कन्या को मारना चाहा तो वह अदृश्य हो गई और आकाशवाणी हुई कि कंस को मारने वाले तो गोकुल में जन्म ले चुका है. कंस यह सुनकर डर गया और उसने उस दिन गोकुल में जन्म लेने वाले हर शिशु की हत्या कर देने की योजना बनाई. इसके लिए उसने अपने आधीन काम करने वाली पूतना नामक राक्षसी का सहारा लिया. वह सुंदर रूप बना सकती थी और महिलाओं में आसानी से घुलमिल जाती थी. उसका कार्य स्तनपान के बहाने शिशुओं को विषपान कराना था. अनेक शिशु उसका शिकार हुए लेकिन कृष्ण उसकी सच्चाई को समझ गए और उन्होंने पूतना का वध कर दिया. यह फाल्गुन पूर्णिमा का दिन था अतः पूतनावध की खुशी में होली मनाई जाने लगी.</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">कई रंग होली के :- बसंतोत्सव पर्व होली के कई रंग हैं. यानि होली अलग अलग रूपों में माने जाती है. ब्रज के बरसाना गाँव में होली एक अलग तरह से खेली जाती है जिसे लठमार होली कहते हैं. यहाँ की होली में मुख्यतः नंदगाँव के पुरूष और बरसाने की महिलाएं भाग लेती हैं, क्योंकि कृष्ण नंदगाँव के थे और राधा बरसाने की थीं. नंदगाँव की टोलियाँ जब पिचकारियाँ लिए बरसाना पहुँचती हैं तो उन पर बरसाने की महिलाएँ खूब लाठियाँ बरसाती हैं. पुरुषों को इन लाठियों से बचना होता है. और साथ ही महिलाओं को रंगों से भिगोना होता है. नंदगाँव और बरसाने के लोगों का विश्वास है कि होली की लाठियों से किसी को चोट नहीं लगती है. अगर चोट लगती भी है तो लोग घाव पर मिट्टी मलकर फ़िर शुरु हो जाते हैं. इस दौरान भाँग और ठंडाई का भी ख़ूब इंतज़ाम होता है. होली उत्तर भारत के अलावा अन्य प्रदेशों मे भी मनाई जाती है, हाँ थोड़ा बहुत रुप स्वरुप बदल जाता है. जैसे हरियाणा की धुलन्डी. हरियाणा मे होली के त्योहार मे भाभियों को इस दिन पूरी छूट रहती है कि वे अपने देवरों को साल भर सताने का दण्ड दें. इस दिन भाभियां देवरों को तरह तरह से सताती है और देवर बेचारे चुपचाप झेलते है, क्योंकि इस दिन तो भाभियों का दिन होता है. देवर अपनी प्यारी भाभी के लिये उपहार लाता है. इसके अलावा होली का एक और रंग है. वह है, बंगाल का बसन्तोत्सव. गुरु रबीन्द्रनाथ टैगोर ने होली के ही दिन शान्तिनिकेतन मे वसन्तोत्सव का आयोजन किया था, तब से आज तक इस यहाँ बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है. पूरे बंगाल मे इसे ढोल पूर्णिमा अथवा ढोल जात्रा के तौर पर भी मनाया जाता है, लोग अबीर गुलाल लेकर मस्ती करते है. श्रीकृष्ण और राधा की झांकिया निकाली जाती है. महाराष्ट्र में रंग पंचमी और कोंकण का शिमगो प्रसिद्द हैं. महाराष्ट्र और कोंकण के लगभग सभी हिस्सों मे इस त्योहार को रंगों के त्योहार के रुप मे मनाया जाता है. मछुआरों की बस्ती मे इस त्योहार का मतलब नाच,गाना और मस्ती होता है. इसके अलावा पंजाब का होला मोहल्ला भी होली मानाने का अपना ही अंदाज़ है. पंजाब मे भी इस त्योहार की बहुत धूम रहती है. सिक्खों के पवित्र धर्मस्थान श्री अनन्दपुर साहिब मे होली के अगले दिन से लगने वाले मेले को होला मोहल्ला कहते है. सिखों के लिये यह धर्मस्थान बहुत ही महत्वपूर्ण है. साथ ही तमिलनाडु की कामन पोडिगई जो कि कामदेव को समर्पित होता है. इसके पीछे भी एक किवदन्ती है. प्राचीन काल मे देवी सती (भगवान शंकर की पत्नी) की मृत्यू के बाद शिव काफी क्रोधित और व्यथित हो गये थे. इसके साथ ही वे ध्यान मुद्रा मे प्रवेश कर गये थे. उधर पर्वत सम्राट की पुत्री भी शंकर भगवान से विवाह करने के लिये तपस्या कर रही थी. देवताओ ने भगवान शंकर की निद्रा को तोड़ने के लिये कामदेव का सहारा लिया. कामदेव ने अपने कामबाण के शंकर पर वार किया. शंकर भगवान को बहुत गुस्सा आया कि कामदेव ने उनकी तपस्या मे विध्न डाला है इसलिये उन्होने अपने त्रिनेत्र से कामदेव को भस्म कर दिया. अब कामदेव का तीर तो अपना काम कर ही चुका था, सो पार्वती को शंकर भगवान पति के रुप मे प्राप्त हुए. उधर कामदेव की पत्नी रति ने विलाप किया और शंकर भगवान से कामदेव को जीवित करने की गुहार की. ईश्वर प्रसन्न हुए और उन्होने कामदेव को पुनर्जीवित कर दिया. यह दिन होली का दिन होता है. आज भी रति के विलाप को लोक संगीत के रुप मे गाया जाता है और चंदन की लकड़ी को अग्निदान किया जाता है ताकि कामदेव को भस्म होने मे पीड़ा ना हो. साथ ही बाद मे कामदेव के जीवित होने की खुशी मे रंगो का त्योहार मनाया जाता है.</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">आधुनिकता का रंग :- होली रंगों का त्योहार है, हँसी-खुशी का त्योहार है, लेकिन होली के भी अनेक रूप देखने को मिलते है. प्राकृतिक रंगों के स्थान पर रासायनिक रंगों का प्रचलन, भांग-ठंडाई की जगह नशेबाजी और लोक संगीत की जगह फ़िल्मी गानों का प्रचलन इसके कुछ आधुनिक रूप हैं. लेकिन इससे होली पर गाए-बजाए जाने वाले ढोल, मंजीरों, फाग, धमार, चैती और ठुमरी की शान में कमी नहीं आती. अनेक लोग ऐसे हैं जो पारंपरिक संगीत की समझ रखते हैं और पर्यावरण के प्रति सचेत हैं. इस प्रकार के लोग और संस्थाएँ चंदन, गुलाबजल, टेसू के फूलों से बना हुआ रंग तथा प्राकृतिक रंगों से होली खेलने की परंपरा को बनाए हुए हैं, साथ ही इसके विकास में महत्वपूर्ण योगदान भी दे रहे हैं. रासायनिक रंगों के कुप्रभावों की जानकारी होने के बाद बहुत से लोग स्वयं ही प्राकृतिक रंगों की ओर लौट रहे हैं. होली की लोकप्रियता का विकसित होता हुआ अंतर्राष्ट्रीय रूप भी आकार लेने लगा है. बाज़ार में इसकी उपयोगिता का अंदाज़ इस साल होली के अवसर पर एक अंतर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठान केन्ज़ोआमूर द्वारा जारी किए गए नए इत्र होली है से लगाया जा सकता है.</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;"> </div><div style="text-align: justify;">होली की शुभकामनाएं ..........</div>ABHIVYAKTIhttp://www.blogger.com/profile/11939926628758225099noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-152689614694463577.post-48200408223063191812010-02-27T04:41:00.001-08:002010-02-27T04:41:54.029-08:00खेलें इको फ्रेंडली होली........(होली विशेष)<div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">(कमल सोनी)>>>> यदि आप इस बार होली को किसी नए अंदाज़ में सेलीब्रेट करना चाहते हैं. तो रंगों के इस त्यौहार को इको फ्रेंडली बनायें. होली ऐसी हो जिसमें ज्यादा से ज़्यादा प्राकृतिक रंगों का प्रयोग हो. सबसे ज्यादा अप होली को तभी इंजॉय कर सकेंगे जब वह सूखी होगी. इससे आप जल सरंक्षण भी कर सकते हैं. गौर करें गर्मी की दस्तक होली से ही प्रारम्भ होती है. साथ ही गर्मी की दस्तक के पहले ही जलस्तर गिरावट आने लगती है जो कि एक चिंता का विषय है. इसके फलस्वरूप पानी में रंग मिलाकर हजारों लीटर पानी बर्बाद कर देने से पानी की समस्या और विकराल हो सकती है. पानी की कमी को देखते हुए लोगों को चाहिए कि वह सूखी होली खेलें. इस तरह वह जल संरक्षण में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे. हालांकि कई सामाजिक संस्थाएं और आमजन इस दिशा में लोगों को जागरूक करने का प्रयास कर रहे हैं. पानी की बर्बादी रोकने के लिए सबको मिल-जुलकर प्रयास करने होंगे. वर्तमान जलसंकट को देखते हुए लोगों को होली की उमंग भारी पड़ सकती है एक अनुमान के मुताबिक उमंग व उल्लास के साथ रंगों से सराबोर होकर होली मनाने पर एक शहर में एक दिन में 1 करोड़ 52 लाख 57 हजार 946 लीटर पानी अतिरिक्त खर्च होता है. होली खेलने वालों ने अगर प्राकृतिक रंग या गुलाल से होली खेली तो कुल 36 लाख 95 हजार 518 लीटर पानी की बचत होगी. आज भी कुछ लोग हैं जो प्रकृति से प्राप्त फूल-पत्तियों व जड़ी-बूटियों से रंग बना कर होली खेलते हैं. उनके अनुसार इन रंगों में सात्विकता होती है और ये किसी भी तरह से हानिकारक नहीं होते. विशेषज्ञों के अनुसार सामान्य तौर पर नहाने में 20 लीटर पानी प्रतिदिन प्रति व्यक्ति खर्च होता है. सूखे रंग या गुलाल से होली खेलने के पश्चात 40 लीटर पानी खर्च होगा पर अगर यही होली कैमिकल युक्त रंगों से खेली जाती है तो रंग छुड़ाने व नहाने में 60 लीटर पानी की खपत होगी. साथ ही पानी मिले रंगों से जो पानी बर्बाद होगा वो अलग. </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">जल है तो कल है :- जल बचाने के लिए आमजनमानस को स्वयं विचार करना होगा. क्योंकि जल है तो कल है. हमें स्वयं इस बात पर गौर करना होगा कि रोजाना बिना सोचे समझे हम कितना पानी उपयोग में लाते हैं. यहाँ खास बात यह गौर करने लायक है कि आगामी २२ मार्च “विश्व जल दिवस” है. जी हाँ पानी बचाने के संकल्प का दिन. पानी के महत्व को जानने का दिन और पानी के संरक्षण के विषय में समय रहते सचेत होने का दिन. आँकड़े बताते हैं कि विश्व के १.४ अरब लोगों को पीने का शुद्ध पानी नही मिल रहा है. प्रकृति जीवनदायी संपदा जल हमें एक चक्र के रूप में प्रदान करती है, हम भी इस चक्र का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं. चक्र को गतिमान रखना हमारी ज़िम्मेदारी है, चक्र के थमने का अर्थ है, हमारे जीवन का थम जाना. प्रकृति के ख़ज़ाने से हम जितना पानी लेते हैं, उसे वापस भी हमें ही लौटाना है. हम स्वयं पानी का निर्माण नहीं कर सकते अतः प्राकृतिक संसाधनों को दूषित न होने दें और पानी को व्यर्थ न गँवाएँ यह प्रण लेना आज के दिन बहुत आवश्यक है. यह दिवस हमें होली के दिन भी पानी बचाने का संदेश दे रहा है. आज हमें एक अहम सवाल खुद से पूछने की आवश्यकता है. कि क्या आप पूरा एक दिन बिना पानी के गुजारने की कल्पना कर सकते हैं ? जाहिर है नहीं. पानी अनमोल है, इसलिये संकल्प करें कि इस होली पर पानी बचाकर न सिर्फ़ आप अपने बल्कि समूचे विश्व को एक नए रंग में रंग देंगे. </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">मंडावा की सूखी होली की बात ही अलग :- मंडावा की सूखी होली में जयपुर, दिल्ली व बंबई ही नहीं विदेशों से भी सैलानी यहां आते हैं. यहां की होली में ना फुहड़पन, ना कीचड़, ना पानी और ना ही पक्का रंग, फिर भी रंग ऐसा चढ़े की छुटाए ना छूटे. चेहरे पर लगाया जाता है तो सिर्फ अबीर-गुलाल. पक्के रंग व पानी के प्रयोग पर पब्लिक का प्रतिबंध है. सूखी व शालीन होली की यह परंपरा करीब सौ साल से चली आ रही है. कुछ सालों से यहां होली पर पर्यटकों की संख्या भी बढ़ने लगी है. </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">स्वयं अपने घर पर बनायें प्राकृतिक रंग :- होली रंगों का त्योहार है जितने अधिक से अधिक रंग उतना ही आनन्द, लेकिन इस आनन्द को दोगुना भी किया जा सकता है प्राकृतिक रंगों से खेलकर, पर्यावरण मित्र रंगों के उपयोग द्वारा भी होली खेली जा सकती है और यह रंग घर पर ही बनाना एकदम आसान भी है. इन प्राकृतिक रंगों के उपयोग से न सिर्फ़ आपकी त्वचा को कोई खतरा नहीं होगा, परन्तु रासायनिक रंगों के इस्तेमाल न करने से कई प्रकार की बीमारियों से भी बचाव होता है. </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">ऐसे बनायें लाल रंग :- </div><div style="text-align: justify;"><<*>> लाल गुलाब की पत्तियों को अखबार पर बिछाकर सुखा लें, उन सूखी पत्तियों को बारीक पीसकर लाल गुलाल के रूप में उपयोग कर सकते हैं जो कि खुशबूदार भी होगा. </div><div style="text-align: justify;"><<*>> रक्तचन्दन (बड़ी गुमची) का पावडर भी गुलाल के रूप में उपयोग किया जा सकता है, यह चेहरे पर फ़ेसपैक के रूप में भी उपयोग होता है. </div><div style="text-align: justify;"><<*>> रक्तचन्दन के दो चम्मच पावडर को पाँच लीटर पानी में उबालें और इस घोल को बीस लीटर के पानी में बड़ा घोल बना लें… यह एक सुगन्धित गाढ़ा लाल रंग होगा. </div><div style="text-align: justify;"><<*>> लाल हिबिस्कस के फ़ूलों को छाया में सुखाकर उसका पावडर बना लें यह भी लाल रंग के विकल्प के रूप में उपयोग किया जा सकता है. </div><div style="text-align: justify;"><<*>> लाल अनार के छिलकों को मजीठे के पेड़ की लकड़ी के साथ उबालकर भी सुन्दर लाल रंग प्राप्त किया जा सकता है. </div><div style="text-align: justify;"><<*>> टमाटर और गाजर के रस को पानी में मिलाकर भी होली खेली जा सकती है. </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">पीला रंग :- </div><div style="text-align: justify;"><<*>> दो चम्मच हल्दी को चार चम्मच बेसन के साथ मिलाकर उसे पीला गुलाल के रूप में उपयोग किया जा सकता है. </div><div style="text-align: justify;"><<*>> अमलतास और गेंदे के फ़ूलों की पत्तियों को सुखाकर उसका पेस्ट अथवा गीला रंग बनाया जा सकता है. </div><div style="text-align: justify;"><<*>> दो चम्मच हल्दी पावडर को दो लीटर पानी में उबालें, गाढ़ा पीला रंग बन जायेगा. </div><div style="text-align: justify;"><<*>> दो लीटर पानी में 50 गेंदे के फ़ूलों को उबालने पर अच्छा पीला रंग प्राप्त होगा…</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">हरा रंग :- </div><div style="text-align: justify;"><<*>> गुलमोहर, पालक, धनिया, पुदीना आदि की पत्तियों को सुखाकर और पीसकर हरे गुलाल के रूप में उपयोग किया जा सकता है. </div><div style="text-align: justify;"><<*>> किसी भी आटे की बराबर मात्रा में हिना अथवा दूसरे हरे रंग मिलाकर भी हरे गुलाल के रूप में उपयोग किया जा सकता है. </div><div style="text-align: justify;"><<*>> एक लीटर पानी में दो चम्मच मेहंदी को घोलने पर भी हरे रंग का प्राकृतिक विकल्प तैयार किया जा सकता है. </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">नीला :- </div><div style="text-align: justify;"><<*>> एक लीटर गरम पानी में चुकन्दर को रात भर भिगोकर रखें और इस बैंगनी रंग को आवश्यकतानुसार गाढ़ा अथवा पतला किया जा सकता है. </div><div style="text-align: justify;"><<*>> 15-20 प्याज़ के छिलकों को आधा लीटर पानी में उबालकर गुलाबी रंग प्राप्त किया जा सकता है. </div><div style="text-align: justify;"><<*>> नीले गुलमोहर के फ़ूलों को सुखाकर उसके पावडर द्वारा तैयार घोल से भी अच्छा नीला रंग बनाया जा सकता है. </div><div style="text-align: justify;"><<*>> नीले गुलमोहर की पत्तियों को सुखाकर बारीक पीसने पर नीला गुलाल भी बनाया जा सकता है. </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">भगवा रंग :- </div><div style="text-align: justify;"><<*>> हल्दी पावडर और चन्दन पावडर को मिलाकर हल्का नारंगी पेस्ट बनाया जा सकता है. </div><div style="text-align: justify;"><<*>> परम्परागत रूप से जंगलों में पाये जाने वाले टेसू के फ़ूलों को उबालकर भी नारंगी केसरिया रंग प्राप्त किया जाता है. </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">ऐसे खेलें होली :- </div><div style="text-align: justify;"><<*>> अधिक से अधिक सूखे रंगों से होली खेलें, अधिक से अधिक प्राकृतिक रंगों से होली खेलें, आजकल प्राकृतिक रंग आसानी से बाजार में उपलब्ध होते हैं.</div><div style="text-align: justify;"><<*>> होली खेलने से पहले पूरे शरीर और खासकर बालों पर अच्छी तरह से तेल मालिश कर लें या किसी लोशन का लेप लगा लें, इससे होली खेलने के बाद बालों और त्वचा का रंग छुड़ाने में आसानी होगी. </div><div style="text-align: justify;"><<*>> होली खेलने से पहले नाखून को पॉलिश कर लें, ताकि होली खेलने के बाद भी वे वैसे ही चमकते हुए दिखेंगे और उसकी अधिक सफ़ाई नहीं करना पड़ेगी.</div><div style="text-align: justify;"> </div><div style="text-align: justify;">होली की शुभकामनाएं ..........</div>ABHIVYAKTIhttp://www.blogger.com/profile/11939926628758225099noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-152689614694463577.post-18495393707295764712010-02-26T05:21:00.001-08:002010-02-26T05:21:40.649-08:00खंड-खंड होते देश में सुरक्षा के बढ़ते खतरे ?<div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">(कमल सोनी)>>>> पूरी दुनिया में शायद भारत ही एक मात्र ऐसा देश है. जहाँ धर्मवाद, क्षेत्रवाद, जातिवाद, नक्सलवाद और आतंकवाद अपने पैर पसार रहा है. और आज स्थिति यह है कि इसका नियंत्रण एक चुनौती बन गया है. परिणामस्वरूप एक ओर जहां देश टुकड़ों में बाँट रहा है. तो दूसरी ओर आतंरिक और बाहरी सुरक्षा के खतरे भी देश में बढ़ रहे हैं. एक तरफ चीन भारत में घुसपैठ की कोशिशों को अंजाम देता है तो दूसरी तरफ पकिस्तान सीमा पर गोलीबारी की आड लेकर आतंकवादी गतिविधियों को अंजाम दे रहा है. इस मामले में बाग्लादेश भी पीछे नहीं है. इन सबके बावजूद देश के राजनेता सिवाय खोखली राजनीती के अलावा कोई ठोस कदम नहीं उठा रहे. बल्कि इसी धर्मवाद, क्षेत्रवाद, जातिवाद, नक्सलवाद और आतंकवाद का सहारा ले अपने राजनैतिक स्वार्थ की रोटियां सेंकने में लगे हुए हैं. देश की जनता भी सब जानती है. अब वह जागरूक हो रही है. यही वजह है कि मुंबई में हुए आतंकी हमले के बाद जिस तरह से जनता इन राजनेताओं के खिलाफ सड़क पर उतरकर आई. लेकिन राजनेताओं ने इससे कोई सबक लिया इसके कोई प्रमाण अब तक नहीं मिले. धर्मवाद, क्षेत्रवाद, जातिवाद पर राजनीती होती रही. आज भले ही वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने आतंरिक और बाहरी सुरक्षा के मद्देनज़र सिर्फ चार फीसदी बढ़ोतरी करते हुए बजट 2010-11 में रक्षा के लिए 1,47,344 करोड़ रुपये आवंटित किए हैं. लेकिन सुरक्षा के दृष्टिकोण से बजट निर्धारित कर देना ही काफी नहीं होता. इसमें कोई दो मत नहीं कि आज हम जिस दुनिया में जी रहे हैं. वह पूरी तरह से अस्थिर है. और हम भी इस अस्थिरता के साये में जीने को मजबूर हैं. </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">आजादी के बाद 1947 में जिस नए भारत की कल्पना की गई थी. क्या आज हम उस कल्पना पर खरे उतरे हैं ? यह एक अहम सवाल है. इतने लंबे अरसे के बाद देश में 'एकता की भावना' खोती हुई नज़र आ रही है. परिणाम स्वरुप धर्मवाद, क्षेत्रवाद, जातिवाद, नक्सलवाद जैसी समस्याएँ बढ़ीं हैं. लेकिन इनके समाधान के लिए ज़्यादा से ज़्यादा बंद कमरे में बैठकें आयोजित कर फैसले कर लिए जाते हैं. लेकिन इन फैसलों पर अमल नहीं किया जाता. बाबरी विध्वंस और गोधरा कांड जैसे गंभीर मामलों पर आयोग गठित कर दिए जाते हैं. और सालों की जाँच प्रक्रिया के बाद इन आयोगों की रिपोर्ट ही कटघरे में खड़ी हो जाती है. इन समस्याओं का एक मुख्य कारण यह भी रहा कि देश में जातीय और भाषाई अस्मिता पुनः सतह पर आ गई. जिसके बाद महाराष्ट्र में जातिवाद से प्रेरित नारे, जाती और क्षेत्रीयता के आधार पर लोगों से मारपीट, तेलंगाना मुद्दा इत्यादि उभर कर सामने आये. इन सबके बीच पड़ोसी मुल्कों से जेहाद के नाम पर देश में आतंकवाद को बढ़ावा देने से देश की आतंरिक और बाहरी सुरक्षा पर कई सवाल खड़े कर दिए हैं. जिस विषय पर गंभीर चिंतन की आवश्यकता है. देश में हिंदूवादी संगठनों का जन्म हों और उनका राजनितिक सपोर्ट होना भी कई सवाल जन्म लेता है. कुछ राजनेताओं का मानना है कि हिन्हुवादी संगठनो के जन्म के पीछे मुस्लिम आबादी में बढोत्तरी, पड़ोसी मुल्कों से गैरकानूनी घुसपैठ, और मुस्लिम अलगाववाद कारण रहे हैं. लेकिन इन सब का क्या ? कहीं न कहीं देश आतंरिक रूप से बंटता और कमजोर होता जा रहा है. धर्मवाद, क्षेत्रवाद, जातिवाद को बढ़ावा मिल रहा है. और वोट बैंक की राजनीती अभी भी जारी है. कोई राजनैतिक दल प्रत्यक्ष रूप से धर्म, क्षेत्र और जाति का सहारा लेकर वोट बैंक की राजनीती कर रहा है. तो कोई अप्रत्यक्ष रूप से. लेकिन इसका खामियाजा भुगतना पड़ रहा है देश के उस जनता को जो कमाने-खाने और आगे बढकर देश हित में कुछ करना चाहते हैं. </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">वोट बैंक की राजनीती का ही नतीजा है, कि पिछले दो दशकों में मुस्लिम समुदाय में से सबसे ज़्यादा संख्या में आतंकवादी और अलगाववादी उभरकर सामने आये हैं. मालेगांव धमाको के बाद एटीएस ने हिंदू आतंकवाद की बात कही थी. हिंदू आतंकवाद जैसी कोई चीज़ इस देश में है, या नहीं इस पर संदेह अभी भी बरकरार है. लेकिन कहीं न कहीं यह भी वोट बैंक की राजनीती का ही नतीज़ा है. इस बात में कोई संदेह नहीं कि देश में कुछ लोग जेहादी विचारधारा से प्रभावित हुए हैं. और देश में अपनी गतिविधियां चला रहे हैं. सिमी जैसे संगठन ऐसी ही विचारधारा की उपज है. लेकिन देश के आम मुस्लिम और इन जेहादियों में ज़मीन-आसमान का फर्क दिखता है. लेकिन इन सबसे दोनों समुदायों के बीच जो दरार पैदा हुई है. भले ही वह आतंकवाद न हो. लेकिन देश में सम्प्रदायिक विभाजन जैसी संभावनाएं ज़रूर उत्पन्न हुई हैं. इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता. </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">यहाँ बात हिंदू या मुस्लिम की ही नहीं है. भारत के ऊतर पूर्व के नगा क्षेत्रों में सबसे पहले अलगाववाद की आग लगी थी. जिसके बाद यह आसाम, त्रिपुरा और पश्चिम बंगाल तक फ़ैली. इन क्षेत्रों में अलगाववाद के पीछे यहाँ के निवासियों की उपेक्षा तो है ही साथ ही पड़ोसी मुल्कों से इस चिंगारी को भडकाने में मदद भी हैं. आसाम भी वर्षों तक बंगलादेशी घुसपैठ, अल्फा विद्रोह और उसके विदेशी संबंधो के चलते अशांत रहा है. अब जम्मू काश्मीर है. हालांकि भारत-बंगलादेश के बीच हुए समझौते के बाद आसाम में स्थिति में कुछ सुधार हुआ है. </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">भारत के अंदर एक अलग भारत नहीं होना चाहिए. यह समस्या धीरे-धीरे विकराल रूप धारण करती जा रही है. इस समस्या का निदान नौकरशाही से नहीं हो सकता. अराजकता का क्रम अगर आगे चलता रहा. तो आने वाले समय में हमें और भी कई परेशानियों का सामना करना पड़ेगा, इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता. आज भी भारत आर्थिक और सामाजिक तौर पर विभाजित है. दो धर्मो के बीच की खाई, शहरी और ग्रामीण जनता के बीच की खाई तथा क्षेत्रवाद की खाई को पाटना इतना आसान नहीं होगा. भारत में भले ही हाल ही के वर्षों में आर्थिक सुधारों ने रफ़्तार पकड़ी हो. लेकिन इसके अलावा दूसरे मोर्चे पर पर आतंरिक अराजकता के साथ बाहरी खतरे ने नई चिंताओं को जन्म दे दिया है. इन सभी समस्याओं का समाधन तभी संभव है जब कुशल राजनीतिक नेतृत्व, आर्थिक वृद्धी तथा सैन्य ताकत में बढोत्तरी के साथ-साथ नागरिकों की एकजुटता जो क्षेत्रवाद, धर्मवाद, और जातिवाद से परे हो. </div><div style="text-align: justify;"><br /></div>ABHIVYAKTIhttp://www.blogger.com/profile/11939926628758225099noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-152689614694463577.post-49180083582563171482010-02-22T04:09:00.000-08:002010-02-22T04:10:26.087-08:00डीएलएफ-आईपीएल : खेल या खेल का व्यावसाय ?<div style="text-align: justify;">(कमल सोनी)>>>> डीएलएफ-आईपीएल एक खेल नहीं खिलवाड है. इसका सीधा अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब आईपीएल के तीसरे संस्करण के लिए बोली लगे जा रही थी. तब किसी भी टीम ने पाकिस्तानी खिलाडियों को नहीं चुना. यकीनन इससे पाकिस्तान क्रिकेट बोर्ड और पाकिस्तानी खिलाडियों की बेइज्जती हुई है. दरअसल भारत पकिस्तान के बीच मौजूदा तनाव की कीमत इन पाकिस्तानी खिलाडियों को चुकानी पडी है. लेकिन एक अहम सवाल यहाँ जन्म लेता है कि जिस देश में क्रिकेट एक जूनून की तरह है. वहाँ इस खेल को सरहदों में बांधना कितना उचित है. हलाकि इस खिलवाड की कीमत सिर्फ पाकिस्तान क्रिकेट बोर्ड और पाकिस्तानी खिलाडियों को ही नहीं चुकानी पडी. बल्कि शाहरुख, अमिताभ, आमिर खान, समेत कई बड़ी हस्तियों को भी इसकी कीमत चुकानी पडी. जब इस खिलवाड पर राजनीति हावी हुई. जिसके बाद शिवसेना ने वोट बैंक की राजनीती करनी शुरू की. और यह सिलसिला अभी भी जारी है. चारों तरफ से आरोप प्रत्यारोपों का दौर चल रहा है. और तमाम वॉलीवुड हस्तियों को शिवसैनिकों के गुस्से का सामना करना पड़ रहा है.<br /><br />पाकिस्तानी खिलाडियों के साथ जो कुछ भी हुआ वह कम नहीं है. भारत पकिस्तान मौजूदा तनाव के मद्देनज़र पहले पाकिस्तानी खिलाडियों से पीसीबी से अनापत्ति प्रमाण पात्र लेन को कहा गया. जब उन्होंने अनापत्ति प्रमाण पत्र ले लिया. तो उनसे सरकार से एनओसी लें. खिलाडियों के एनओसी ले लेने के बाद उनसे कहा गया कि वे भारत से वीजा ले लें. जब उन्होंने वीजा के लिए आवेदन किया तो उन्हें कहा गया कि यदि उन्हें आईपीएल में चुन लिए जाएगा तो उन्हें वीजा मिल जायेगा. जिसके बाद आईपीएल ने ११ पाकिस्तानी खिलाडियों को उन खिलाडियों की सूची में शामिल कर लिया जिनकी बोली लगाईं जानी थी. जिसके बाद बोली लगी तो सभी पाकिस्तानी खिलाड़ी इस बात का इन्तेज़ार करते रहे कि कौन उन्हें खरीदेगा. लेकिन किसी भी पाकिस्तानी खिलाड़ी पर किसी भी टीम ने कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई. यकीनन यह पाकिस्तानी खिलाडियों के लिए ही नहीं बल्कि एक खेल के लिए भी अपमानजनक है.<br /><br />बीसीसीआई और टीम मालिकों ने झाडा पल्ला :- इस पूरे घटना क्रंम के बाद जब चौतरफा आरोप प्रत्यारोप का दौर शुरू हुआ तो बीसीसीआई और आईपीएल टीम मालिकों ने इस विवाद से अपना पल्ला झाड लिया. बीसीसीआई और आईपीएल टीम मालिक अलग अलग तर्क दे रहे हैं. बीसीसीआई का कहना है कि आईपीएल एक अलग संस्था है. उसका बीसीसीआई से कोई लेना देना नहीं है. आईपीएल के सभी फैसले लेने के लिए वह स्वतंत्र है. दूसरा टीम मालिकों ने भी अपने को शुद्ध व्यावसायी दर्शाते हुए कहा कि भारत पाकिस्तान के मौजूदा हालत यही दर्शाते हैं कि दोनों देशों के रिश्तों का कोई भरोसा नहीं. ऐसे में वे अपनी पूंजी ऐसे खिलाडियों पर नहीं लगा सकते जो उनके लिए असमय संकट पैदा कर दें. हलकी यह सच भी है कि टेम मालिकों के लिए आईपीएल सिर्फ एक टूर्नामेंट न होकर एक धंधा है. और धंधे में भावनाओं की नहीं सिर्फ मुनाफे की जगह होती है. उन्हें किसी खिलाड़ी के जस्बात और किसी देश के अपमान से कोई मतलब नहीं. ऐसे में पाकिस्तानी क्रिकेटरों के साथ सहानुभूति के अलावा उनके पास कुछ और नहीं था. खेल मंत्री एमएस गिल ने भी आईपीएल को क्रिकेट में एक व्यापारिक आंदोलन करार देते हुए यह कह दिया कि सरकार इसमें कुछ नहीं कह सकती. हालाकि गृह मंत्री पी चिदंबरम ने अपने एक बयान में कहा था कि आईपीएल में पाकिस्तानी खिलाडियों को मौक़ा दिया जाना चाहिए था. इस कदम से क्रिकेट का नुक्सान हुआ है.<br /><br />पहले से नहीं की स्थिति साफ़ :- मुबई हमलों के बाद पहले ही साफ कर दिया गया था कि पाकिस्तानी खिलाडियों की खेल पाना संभव नहीं होगा. लिहाजा बगैर पाकिस्तानी खिलाडियों के आईपीएल साउथ अफ्रिका में अपनी पूरी चमक धमक के साथ संपन्न हुआ. लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ. यदि आईपीएल की तरफ से पहले ही यह कह दिया जाता कि किसी भी पाकिस्तानी खिलाड़ी को आईपीएल में खेलने की अनुमति नहीं मिलेगी. तो शायद यह विवादास्पद स्थिति निर्मित नहीं होती. हलाकि पाकिस्तानी खिलाडियों के बिना अब यह तमाशा कितनी चमक धमक के साथ होगा यह देखना बेहद दिलचस्प होगा.<br /><br />बहलहाल भारत-पाकिस्तान के रिश्तों में पहले भी कडूआहट और मिठास का सिलसिला चलता रहा है. और आगे भी चलता रहेगा. जब कभी कोई बड़ा आतंकी हमला होता है. भारत पाकिस्तान के रिश्तों में कडूआहट आ जाती है. और समय के साथ बातचीत का दौर भी शुरू हो जाता है. फिर कभी भारत पकिस्तान मैत्री मैच खेल दोनों देशों में मधुरता लाने का प्रयास करते हैं. लेकिन फिर इन प्रयासों पर आतंकी संगठन पानी फेर देते हैं. और दोनों देशों के बीच कडूआहट आ जाती है. लेकिन दोनों देशो के बीच की इस तपिश को राजनीतिक रंग न देते हुए इसे मैदान से दूर रखा जाना चाहिए. क्योंकि अभी राष्ट्र मंडल खेलों का आयोजन होगा वहाँ भी पाकिस्तानी टीम आयेगी. इसके बाद क्रिकेट वर्ल्ड कप आयोजन भी भारत में ही होना है. इसके लिए भी पाकिस्तानी क्रिकेट टीम आयेगी. इसीलिये यह ज़रूरी है कि यदि कहीं कि आग जल रही है. तो खोखली राजनीति से प्रेरित होकर उस पर घी डालने के बजाय उस पर पानी डाला जाए तो ज़्यादा बेहतर होगा.<br /><br /></div>ABHIVYAKTIhttp://www.blogger.com/profile/11939926628758225099noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-152689614694463577.post-21269227720213933112010-02-20T05:05:00.000-08:002010-02-20T05:06:34.551-08:00असिस्टेड सुसाइड, 'ह्त्या या मदद' ?<div style="text-align: justify;"><br />(कमल सोनी)>>>> किसी को आत्महत्या में मदद करना 'हत्या है या फिर सहायता' इस विषय पर एक नई बहस छिड़ गई है. असिस्टेड सुसाइड को लेकर इसके समर्थकों और विरोधियों में वैचारिक मतभेद उभरकर सामने आये हैं. आत्म ह्त्या में मदद करने वाले भाले ही अपने परिचितों, रिश्तेदारों और दोस्तों की मौत आसान बना रहे हों. लेकिन इसको लेकर कई विवाद हैं. लोगों का यह भी कहना है कि असिस्टेड सुसाइड एक ह्त्या है. लोगों का कहना है कि असिस्टेड सुसाइड को कानूनी मान्यता मिल जाने पर इसका दुरुपयोग होने लगेगा. और अपराधी इस कानून का सहारा लेकर बच निकलेंगे. हालाकिं विश्व में कई देश ऐसे हैं. जहां असिस्टेड सुसाइड को कानूनी मान्यता है. स्विटज़र लैंड को इस मामले में सबसे आगे जाना जाता है. इसके अलावा बेल्जियम, कनाडा, चीन और अमेरिका में भी असिस्टेड सुसाइड को कानूनी मान्यता है. इसके अलावा दुनिया भर की कई संस्थाएं भी असिस्टेड सुसाइड का समर्थन करती हैं.<br /><br />असिस्टेड सुसाइड सही या गलत :- असिस्टेड सुसाइड यानी आत्म ह्त्या में मदद करना सही है या गलत इसको लेकर विवाद है. विवाद का मुख्य कारण एक निजी समाचार चैनल की एंकर गोसलिंग है . जिसने अपने प्रेमी को आत्महत्या में मदद की थी. गोसलिंग ने स्वीकार किया है कि उन्होंने दर्द से पीड़ित प्रेमी को आत्महत्या में मदद कर उसे हमेशा के लिए राहत दी है. मामला यह है कि गोसलिंग का प्रेमी घातक बीमारी एड्स से पीड़ित था. गोसलिंग का कहना है कि "कुछ समय पहले मेरे प्रेमी ने मुझसे एग्रीमेंट किया था. जिसमें लिखा है कि जब उसे बहुत दर्द हो और मौत के अलावा कोई रास्ता न हो तो में उसे मौत की नींद सुला दूं. और मैंने जो कुछ भी किया एग्रीमेंट के तहत किया."<br /><br />असिस्टेड सुसाइड को लेकर कोई सहमति दर्शा रहा है तो कोई असहमत हैं. नेशनल काउन्सिल फॉर पैलियातिव केयर, एज कंसर्न, हेल्प द होस्पीशीज इत्यादि के किये गए सर्वे में ३७३३ डॉ. को शामिल किया गया. जिसमें ६५ फेआसदी डॉ. ने आत्महत्या में मदद को गलत करार दिया है. उन्होंने यह भी कहा कि इसे कानूनी मान्यता दिया जाना गलत है. वहीं दूसरी और अमेरिका में १५६० नर्सों पर किये गए सर्वे में यह तथ्य निकलकर सामने आया है कि "दर्द से मौत के करीब पहुंचे मरीज़ के लिए यह सही है. उनका कहना है कि गंभीर रूप से बीमार, और मरणासन्न स्थिति में यदि कोई मरीज हो. या फिर उसके शारीरिक अंगों एन काम करना बंद कर दिया हो ऐसी स्थिति में उसे दर्द से छुटकारा दिलाना पाप नहीं है. कुछ लोगों ने असिस्टेड सुसाइड को "ह्त्या का लाइसेंस" करार दिया है.<br /><br />कई देशो में है कानूनी मान्यता :- बेल्जियम में सुसाइड के लिए आवेदन कर अनुमति मंगाने के इजाजत है. वह व्यक्ति जो बीमार है, और वयस्क है और उसकी बीमारी का कोई उपचार न हो सकता हो, ऐसी स्थिति में यदि मरीज के साथ दो डॉ. सहमती प्रमाण पत्र दे. तो असिस्टेड सुसाइड की अनुमति मिल सकती है. विपरीत कनाडा में भी असिस्टेड सुसाइड और सुसाइड करना जुर्म नहीं है बल्कि अपने शरीर को किसी तरह की कोई क्षति पहुँचाना अपराध ज़रूर है. वहीं चीन तथा अमेरिका के तीन राज्यों में भी असिस्टेड सुसाइड के लिए अनुमति लेने का प्रावधान है. इन मामलों में स्विट्जरलैंड सबसे आगे है. लोग जाकर मर्सी किलिंग, असिस्टेड सुसाइड, सुसाइड के लिए स्विट्जरलैंड जाते हैं. यही वजह है कि स्विट्जरलैंड को दुनिया का सुसाइड पॉइंट कहा जाता है.<br /><br />बदल सकता है आत्महत्या का मददगार कानून :- स्विट्जरलैंड सरकार जल्द ही अपने देश के एक विवादित कानून में संशोधन कर सकती है जिसके तहत लोगों को आत्महत्या करने में मदद मिलती है। सरकार ने अब इसमें बदलाव की ठान ली है और संशोधन के प्रस्ताव पेश किए जा रहे हैं। दरअसल, इस नीति के तहत गम्भीर रूप से बीमार लोगों को डॉक्टरी सलाह पर आत्महत्या करने का हक दिया गया है। लेकिन इसकी आड़ में ऎसे लोगों को अपना जीवन खत्म करने में मदद की जा रही है जो गम्भीर रोगी नहीं हैं।<br /><br /><span>इस</span> <span>विषय</span> <span>में</span> <span>आपके</span> <span>क्या</span> <span>विचार</span> <span>हैं</span> ?<br /><br /><br /></div>ABHIVYAKTIhttp://www.blogger.com/profile/11939926628758225099noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-152689614694463577.post-21241195990217162422010-02-19T04:39:00.000-08:002010-02-19T04:40:14.423-08:00दुष्कर्म के लिए महिलाएं भी ज़िम्मेदार - रिपोर्ट<div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">* "द वेक अप टू रेप" रिपोर्ट पर विवाद </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">(कमल सोनी)>>>> दुनिया भर में आये दिन बलात्कार के कई मामले सामने आते हैं. इसीलिये बलात्कार जैसे संगीन मामलों के पीछे छिपे कारणों का आंकलन करने के लिए ब्रिटेन में एक अध्ययन के आधार पर एक रिपोर्ट तैयार की गई है. हाल ही में जारी यह रिपोर्ट विवादों में घिर गई है. रिपोर्ट के मुताबिक "५४ % महिलाओं का मानना है कि बलात्कार की घटना के लिए महिलाएं ही ज़िम्मेदार होती हैं" रिपोर्ट के इस खुलासे के बाद विवाद की स्थिति निर्मित हो गई है. और कई स्वयंसेवी संगठन इसका जमकर विरोध कर रहे हैं. रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि बलात्कार के लिए अपराधी हे नहीं पीडिता भे ज़िम्मेदार होती हैं. वहीं इस रिपोर्ट का विरोध करने वालों का अपना तर्क है. विरोधियों ने रिपोर्ट की विश्वसनीयता पर सवाल उठाते हुए कहा कि बलात्कार एक अपराध है. और इसके लिए महिलायें और हालात ज़िम्मेदार नहीं होते. </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">खास बात यह है कि जिन संगठनो ने इस रिपोर्ट के खिलाफ मोर्चा खोला है उनमें कई संगठन पुरुष प्रधान हैं. जिनका कहना है कि "रिपोर्ट सिर्फ आपत्तिजनक ही नहीं बल्कि सिरे से ख़ारिज करने लायक है" उनका यह भी कहना है कि रिपोर्ट के तथ्यों को यदि आधार बना लिया जाए तो बलात्कार की पीड़ित महिला को न्याय मिलने में बेहद मुश्किलें पैदा होंगी. कुछ महिलाओं ने भी इस रिपोर्ट पर आपति जताई है उनका कहना है कि जो पीड़ित महिला खुद यह कैसे कह सकती है कि वह भी जिम्मेदार है. हालाकि दुष्कर्म के ऐसे कई मामले भी सामने आये हैं. जिनमें पीडिता का बयान सच नहीं था. सुप्रीम कोर्ट ने भी बलात्कार के एक मामले की सुनवाई के दौरान कहा था कि इस तरह की घटनाएँ और आरोप झूठे भी हो सकते हैं. इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने आरोपी को 'बेनिफिट्स ऑफ डाउट' के आधार पर रिहा कर दिया था. </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">रिपोर्ट के मुताबिक ५४%महिलाएं मानती हैं कि दुष्कर्म के लिए महिलाएं भी ज़िम्मेदार होती हैं. तो २४ प्रतिशत महिलाओं ने माना कि छोटे और भडकाऊ कपडे तथा नशे की हालत अजनबियों को दुष्कर्म के लिए प्रेरित करता है. रिपोर्ट में यह भी खुलासा किया गया है कि दुष्कर्म की शिकार ५ महिलाओं में से १ महिला शर्मिन्दिगी और बदनामी के डर से रिपोर्ट नहीं लिखवाती हैं. परिणाम स्वरुप अपराधियों के हौसले और बुलंद होते हैं. रिपोर्ट में यह भी खुलासा किया गया है कि १३ प्रतिशत पुरुषों ने इस बात को स्वीकार किया है कि उन्होंने अपने महिला साथी के नशे के हालत का फ़ायदा उठाया है. वहीं १४% महिलाओं ने यह भी माना कि दुष्कर्म के सभी मामले सच नहीं होते. कई मामलों में द्वेष या बदला लेने की प्रवृत्ति के चलते झूठे आरोप लगाये जाते हैं. ब्रिटेन के पोर्टमैन ग्रुप ने इस रिपोर्ट के बारे में कहा है कि "दुष्कर्म की शिकार तीन में से एक महिला अत्यधिक नशे में होती है. ऐसी महिलायें नहीं जानते कि वे कहाँ और किसके साथ हैं. और वे रेप जैसी घटनाओं का शिकार होती हैं ऐसे में उन्हें भी अपराध में शामिल माना जाना चाहिए." रिपोर्ट में पारिवारिक यौन उत्पीडन के मामले में कुछ भी नहीं कहा गया है.</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">भारत में भी पिछले कुछ समय में बलात्कार की घटनाओं में इजाफा हुआ है. नेशनल क्राइम रिकोर्ड ब्यूरों के आंकड़ों पर नज़र डालें तो पता चलता है कि भारत में वर्ष २००७ में दुष्कर्म के २०,७३७ मामले दर्ज हुए हैं. वर्ष २००३ - २००७ के बीच बलात्कार के मामलों की संख्या में बढोत्तरी हुई है. वर्ष २००४ में ही १५% की वृद्धी दर्ज की गई. वहीं २००५ में २००३-२००४ के मुकाबले ०.७% की बढोत्तरी हुई. तथा वर्ष २००६ में ५.४% २००५ के मुकाबले में. व ७.२% २००७ में २००६ के मुकाबले वृद्धी दर्ज की गई है. बलात्कार के मामले में चौकाने वाला तथ्य यह है कि इन मामलों में मध्यप्रदेश अव्वल रहा है. मध्यप्रदेश में सर्वाधिक ३०१० मामले दर्ज हैं. जो कि पूरे भारत में दर्ज बलात्कार के मामलों से लगभग १४% से भी अधिक है.</div><div style="text-align: justify;"> </div><div style="text-align: justify;"> </div>ABHIVYAKTIhttp://www.blogger.com/profile/11939926628758225099noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-152689614694463577.post-15616264632466631402010-02-13T21:49:00.000-08:002010-02-13T21:50:08.494-08:00आओ मनाएँ प्रेम दिवस (वेलेंटाइन डे विशेष)<div align="justify"></div><p align="justify">दुनिया में शायद ही कोई शख्स ऐसा होगा जो प्यार के एहसास से अछूता होगा. प्यार चाहे वह किसी भी रूप में क्यों न हो. एक ऐसा सुखद एहसास देता है. जिसे शब्दों में बयान कर पाना बेहद कठिन होता है. इसलिए 14 फरवरी को वेलेंटाइन डे मनाया जाता है. वेलेंटाइन डे संत वेलेंटाइन की स्मृति में मनाया जाता जिन्हें प्रेम का पक्ष लेने पर 14 फरवरी को फांसी पर चढ़ा दिया गया था. वेलेंटाइन डे यानि प्रेम दिवस. वैसे तो यह दिन हर उम्र वर्ग के व्यक्तियों के लिए होता है. लेकिन इस दिन को लेकर सबसे ज़्यादा उत्साह और इन्तेज़ार होता हैं युवा पीढी में. नया साल आते ही युवाओं को इंतजार होता है इस प्रणय दिवस का. और हर युवा चाहता है कि इस दिन वह कुछ अलग, कुछ खास दिखे ताकि हर एक की नजरें उनकी तरफ हों. युवा प्रेमी युगल इस दिन को मनाने काफी तैयारियां करते हैं. वैसे भी जब बात प्रिय से मिलने की आती है तो आईने के साथ आपका रिश्ता गहरा हो जाता है और जब दिन वेलेंटाइन जैसा खास हो तो किसी प्रश्न की कोई गुंजाइश ही नहीं होती. वाकई जब प्यार किसी से होता है तो हर दिन कोई नया अफसाना बनता है और फिर आगे बढ़ती है प्रेम कहानी. हर प्रेमी युगल अपने प्यार को हमेशा अपने साथ रखने का ख्वाहिशमंद होता है. हर कोई चाहता है कि महबूब के साथ गुजरे हर पल का लेखा-जोखा उसके पास हो ताकि तन्हाइयों में वह उन पलों को याद करके एक बार फिर उस सुखद अहसास की अनुभूति कर सके. आज हर दिल धड़क रहा है, प्यार के इज़हार के लिए, प्यार एक सुहाना अहसास है. साथ ही मन की सबसे प्रभावशाली प्रेरणा भी है. दुनिया में ऐसा कोई भी नहीं जो इस खुशनुमा एहसास से अछूता हो. प्यार के बारे में सदियों से बहुत कुछ लिखा पढा और कहा जाता रहा है. लेकिन फिर भी प्यार एक अबूझ पहेली ही रहा हैं. तभी तो इसे समझ पाने में भूल हो जाती है सिर्फ इसीलिये क्योंकि वास्तव में इसे शब्दों में बयाँ कर पाना हर किसी के बस की बात नहीं. 14 फरवरी एक ऐसा दिन है जो प्रेमियों के लिए सभी त्योहारों से भी बढ़कर है. इस दिन उनका जीवन अपने वेलेंटाइन के प्यार की सतरंगी रोशनी से जगमगा उठता है और हल्की मीठी सर्दी की तरह सुस्त पड़े जीवन में गुनगुनी धूप की तरह प्यार की दस्तक लेकर आता है. </p><p align="justify">प्यार वास्तव में किसी के प्रति त्याग और समर्पण की प्रवृत्ती है। प्रेम के कई रूप हैं, प्रेम में सत्य, निष्ठा, आस्था, भरोसा सब है, लेकिन लादा गया समझौता नहीं है प्रेम. इसमें किसी प्रकार की अपेक्षा और स्वार्थ नहीं रह जाता. प्यार तभी प्यार कहा जा सकता है जब उसमें पवित्रता, संवेदना, त्याग, गहराई, साधना, श्रद्धा, और विश्वसनीयता हो. प्यार को सच और झूठ के तराजू में भी नहीं तौला जा सकता. प्यार हमेशा झुकना सिखाता है. बुराई से लड़ने को प्रेरित करता है. सदा आगे बढ़ने का मार्ग दिखाता है. प्रेम का यह पर्व वेलेंटाइन डे महज प्रेम करने या फिर सिर्फ एक त्यौहार की तरह मना लेने का ही अवसर नहीं है, बल्कि प्रेम को समझने का वाला दिन है. वेलेंटाइन-डे भले ही पश्चिम से आया है, जिसकी परिणिति में विरोध के स्वर निकल रहे हैं. लेकिन हम उस देश के वासी हैं जहाँ राधा कृष्ण के अमर प्रेम की पूजा की जाती है. हाँ महज़ कुछ मिथ्यावादी और घटिया राजनीति से प्रेरित लोगों के कारण प्यार को ही पूरी तरह से नकारना या फिर उसे धर्म और संस्कृति के खिलाफ बताना भी उचित नहीं है.</p><p align="justify">क्यों मनाया जाता है वेलेंटाइन डे :- रोम में तीसरी शताब्दी में सम्राट क्लॉडियस का शासन था। उसके अनुसार विवाह करने से पुरूषों की शक्ति और बुद्धि कम होती है. उसने तानाशाह पूर्ण आदेश जारी कर कहा कि उसका कोई सैनिक या अधिकारी विवाह नहीं करेगा. संत वेलेंटाइन ने इस क्रूर आदेश का विरोध किया. उन्हीं के आह्वान पर अनेक सैनिकों और अधिकारियों ने विवाह किए. आखिर क्लॉडियस ने 14 फरवरी सन् 269 को संत वेलेंटाइन को फाँसी पर चढ़वा दिया. तब से उनकी स्मृति में प्रेम दिवस मनाया जाता है.</p><p align="justify">आज हमें वेलेंटाइन डे मनाने की ज़रूरत है क्योंकि आज हमारे समाज में प्रेम को गलत नज़रिए से देखा जाता है. आज हमारे समाज में व्याप्त रूढीवादी परम्पराएँ रोम के सम्राट क्लॉडियस की तानाशाह रवैये से कम नहीं हैं. संत वेलेंटाइन भले ही पाश्चात्य संस्कृति से रहे हो लेकिन वे हमारे भी संत हो सकते हैं. यदि उनके सन्देश हमारी जीवन में खुशहाली ला सकते हैं तो क्यों नहीं हम भी 14 फरवरी को प्रेम दिवस मनाएं. प्रेम करने की आजादी प्रत्येक स्त्री-पुरुष का नैसर्गिक अधिकार है. लेकिन हमारे परंपरागत समाज में लडके और लडकी के जीवन के हर फैसले को उसकी इच्छा या अनिच्छा जाने वगैर उस पर थोपे जाते है. वे सभी परिस्थितियां हमारे यहां भी मौजूद हैं जिनमें राजा की तो नहीं, पर परिवार और समाज की तानाशाही से युवा हृदयों की तमन्नाओं का गला घोंट दिया जाता है. धर्म और समाज मूलतः धरती पर जीवन की समस्याओं के समाधान के लिए अस्तित्व में आये थे. इनके अस्तित्व का एक मुख्य कारण यह भी रहा कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी और समूह में रहना पसंद करता है. जिसे हम समाज कहते हैं. लेकिन हमारे समाज में बने नियम क़ानून आज की मौजूदा परिस्तिथियों में हमारे युवाओं की तमन्नाओं का गला घोंट रहे हैं. संत वेलेंटाइन की स्मृती में मनाया जाने वाले प्रेम दिवस एक ऐसा पर्व है. जिसके माध्यम से युवा धर्म और समाज के तानाशाह रवैये को तोड़ सकते हैं......<br />हैप्पी वेलेंटाइन डे<br /> </p>ABHIVYAKTIhttp://www.blogger.com/profile/11939926628758225099noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-152689614694463577.post-158149503512893132010-02-11T05:05:00.000-08:002010-02-11T05:06:25.025-08:00सबसे ज़्यादा होशियार शार्क पर विलुप्ती का संकट<div style="text-align: justify;">(कमल सोनी)>>>> आप सभी ने शार्क का नाम तो <span>अवश्य</span> सुना होगा. आइये उसके बारे में जाने कुछ खास बातें. शार्क समुद्र में रहती है, यह तो सभी जानते हो, लेकिन यह समुद्र के अन्य प्राणियों में सबसे बेहतरीन शिकारी तो होती ही है. समुद्री जानवरों में सबसे ज़्यादा होशियार भी होती है. साथ ही अन्य मछलियों से ज़्यादा खूंखार भी. शार्क के विशाल जबड़े ओर बड़े बड़े दांतों के बाल पर यह कछुआ ओर सील जैसे बड़े जानवरों को भी आसानी से अपना निवाला बना लेती है. अपने दाँतों और जबड़ों से यह दूसरी मछलियों, कछुओं यहाँ तक की लकड़ी की नावों तक को काट देती है. यह अपने दाँतों की सहायता से चमड़ी को काट सकती है और हड्डियों को भी चबा सकती है. कुछ दिनों बाद इसके दांत अपने आप ही घिस जाते हैं और उस जगह नए दाँत आ जाते हैं. टाइगर शार्क और सफेद शार्क कभी-कभी मनुष्यों पर भी हमला कर देती हैं, लेकिन ज्यादातर शार्क मनुष्यों से डरती हैं और उन्हें देख कर दूर चली जाती हैं. शार्क की सबसे खास बात होती है उसकी सूंघने की क्षमता. शार्क लगभग १०० किमी दूर से ही अपने शिकार की मौजूदगी का पता लगा लेती है. यह अपने सर पर मौजूद छिद्रनुमा एंतीनों के ज़रिये इस बात का पता लगा लेती है कि शिकार कहाँ छिपा है. वैसे तो सभी एनिमल थोड़ी-बहुत मात्रा में बिजली पैदा करते हैं, लेकिन मात्रा कम होने के कारण यह महसूस नहीं होती है. शार्क ही ऐसी मछली है, जिसमें बिजली महसूस की जा सकती है. अन्य मछलियों की तरह इसमें भी गिल्स स्लिट पाई जाती हैं, जिनकी संख्या 10 होती है. ये पाँच-पाँच दोनों तरफ मौजूद होती हैं. शार्क के तैरने का तरीका बिलकुल अलग होता है. सबसे पहले यह सिर घुमाती है, उसके बाद शरीर और आखिर में अपनी लंबी पूँछ. शार्क की पूँछ नीचे से छोटी और ऊपर से बड़ी होती है. इसके ऐसा शेप होने से इसे तैरने में सहायता मिलती है.<br /><br />कैसी होती है शार्क :- शरीर बहुत लम्बा होता है जो शल्कों से ढका रहता है. इन शल्कों को प्लेक्वायड कहते हैं. त्वचा चिकनी होती है. त्वचा के नीचे वसा (चर्बी) की मोटी परत होती है. इसके शरीर में हड्डी की जगह उपास्थि (कार्टिलेज) पाई जाती है. शरीर नौकाकार होता है. इसका निचला जबड़ा ऊपरी जबड़े से छोटा होता है. अतः इसका मुँह सामने न होकर नीचे की ओर होता है जिसमें तेज दाँत होते हैं. यह एक माँसाहारी प्राणी है. शार्क के शरीर में देखने के लिए एक जोड़ी आँखें, तैरने के लिए पाँच जोड़े पखने और श्वांस लेने के लिए पाँच जोड़े क्लोम होते हैं. ग्रेट व्हाइट शार्क 15 वर्ष की युवा अवस्था में पूर्ण विकसित होकर लगभग 20 फीट से अधिक हो जाती है. वहीं टाइगर शार्क युवा अवस्था में लगभग 16 फीट की हो जाती है. इन दोनों को ही आक्रामक और घातक प्रजातियों में रखा जाता है. शार्क की स्किन स्मूथ नहीं होती है. इसे छूने पर बिलकुल सैंड पेपर पर हाथ लगाने का अहसास होता है. शार्क बहुत प्रकार की होती है. कुछ शार्क को उनके शेप के अनुसार वर्गीकृत किया जाता है जैसे- कुकीकटर शार्क, हेमरहेड शार्क, प्रिकली डॉम फिश शार्क, वूबबिगांग शार्क और ग्रेट व्हाइट शार्क.<br /><br />बन सकती हैं डॉलफिन जैसी :- अभी तक यह माना जाता रहा है कि शार्क मछलियां खतरनाक होती हैं. उनका मकसद ही दूसरों को नुकसान पहुंचाना होता है लेकिन अमेरिका के वैज्ञानिकों ने एक चौंकाने वाला रिसर्च पेश किया है, जिसके मुताबिक शार्क मछलियां भी डॉलफिन की तरह आपकी दोस्त बन सकती हैं. यदि उन्हें ट्रेनिंग दी जाए तो वह सभी मनोरंजक कारनामे कर सकती हैं, जिन्हें डॉलफिन्स को ही करते देखा गया है. अमेरिका के सी लाइफ सेंटर्स पर शार्क मछलियों पर कुछ प्रयोग किये गए है. यहां सौ से भी अधिक शार्क मछलियों को डॉलफिन्स की तरह ट्रेनिंग दी गई है. वैज्ञानिकों का मानना है कि शार्क केवल मनुष्यों पर हमले ही नहीं करतीं, बल्कि उन्हें लोगों के मनोरंजन के लिए ट्रेंड भी किया जा सकता है. इन सेंटर्स पर ट्रेनर्स शार्क मछलियों को रंगीन बोर्डस और म्यूजिक के जरिए ट्रेनिंग दी हैं. वैज्ञानिक इवान पैवलोव शार्क को उसी तरह से प्रशिक्षण दे रहे हैं जैसे कुत्तों को दिया जाता है.<br /><br />विलुप्ती की कगार पर :- शार्क की कई प्रजातियों पर लुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है. ये आकलन पर्यवारण संरक्षण के लिए बने अंतरराष्ट्रीय संघ (आईयूसीएन) ने किया है. इस सूची में 64 प्रकार की शार्क का विवरण है जिनमें से 30 फ़ीसदी पर लुप्त होने का खतरा है. आईयूसीएन के शार्क स्पेशलिस्ट ग्रुप से जुड़े लोगों का कहना है कि इसका मुख्य कारण ज़रूरत से ज़्यादा शार्क और मछली पकड़ना है. हैमरहेड शार्क की दो प्रजातियों को लुप्त होने वाली श्रेणी में रखा गया है. इन प्रजातियों में अक्सर फ़िन या मीनपक्ष को हटाकर शार्क के शरीर से हटा कर फेंक दिया जाता है. इसे फ़िनिंग कहते हैं. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पशु-पक्षियों पर नज़र रखने की कोशिश के तहत आईयूसीएन ने नई सूची जारी कर चेतावनी दी थी. संगठन का कहना है कि शार्क ऐसी प्रजाति है जिसे बड़े होने मे काफ़ी समय लगता है और नए शार्क कम पैदा होते हैं.<br /><br />रक्षा के लिए पर्याप्त कदम नहीं :- आईयूसीएन शार्क ग्रुप के उपाध्यक्ष सोंजा फ़ॉर्डहैम का कहना है कि ख़तरे के बावजूद शार्क की रक्षा के लिए पर्याप्त क़दम नहीं उठाए गए हैं. उन्होंने कहा है कि राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इन प्रजातियों को बड़े पैमाने पर पकड़ा जा रहा है जिसका मतलब है कि वैश्विक स्तर पर कदम उठाने की ज़रूरत है. संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन ने करीब एक दशक पहले शार्क को होने वाले खतरों से आगाह किया था. कई बार शार्क ग़लती से उन जालों में फँस जाते हैं जो मछली पकड़ने के लिए फेंके जाते हैं लेकिन पिछले कई सालों से शार्क को भी निशाना बनाया जा रहा है ताकि उन्हें माँस, दाँत और जिगर का व्यापार किया जा सके. हैमरहैड जैसी प्रजातियों ख़ास तौर पर शिकार बनती हैं क्योंकि उनके फ़िन काफ़ी उच्च गुणवत्ता के होते हैं. गौरतलब है कि शार्क के फ़िन की एशियाई बाज़ार में काफ़ी माँग है.<br /><br /><br /></div>ABHIVYAKTIhttp://www.blogger.com/profile/11939926628758225099noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-152689614694463577.post-55705505823128337582010-02-10T05:41:00.001-08:002010-02-10T05:41:51.053-08:00संगाई हिरण के अस्तित्व पर संकट के बादल.....?<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh_pFB_XDadhjBYMs5fYFzznaylgaQhNIiLwHG1YTc6C56MtNkaiuEETz6dQeQ8K99byb6V8i0AcVnpmhtYAkvA6hCrxiEEFL9yK2SfzuWHfEk7F70ZfH6f1pHI-I6MO2_BLysb6oZ7Ee9g/s1600-h/sangai1.jpg"><img style="margin: 0px auto 10px; display: block; text-align: center; cursor: pointer; width: 250px; height: 273px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh_pFB_XDadhjBYMs5fYFzznaylgaQhNIiLwHG1YTc6C56MtNkaiuEETz6dQeQ8K99byb6V8i0AcVnpmhtYAkvA6hCrxiEEFL9yK2SfzuWHfEk7F70ZfH6f1pHI-I6MO2_BLysb6oZ7Ee9g/s400/sangai1.jpg" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5436609547838120130" border="0" /></a><br /><br /><div style="text-align: justify;">भोपाल (कमल सोनी) 10/फरवरी/2010/(ITNN)>>>> संगाई दक्षिण इसे वर्मी में थमीं ओर मणिपुरी भाषा में संगाई कहते हैं. दक्षिण एशिया में इस प्रजाती के तीन हिरन पाए जाते हैं पहला थाईलैंड का संगाई, दूसरा वर्मा का संगाई ओर तीसरा मणिपुर का संगाई. भारत में यह हिरन सिर्फ मणिपुर में पाया जाता है. मणिपुर पृथ्वी पर एक मात्र ऐसा स्थान है जहां ब्रो एंट लर्ड हिरण पाया जाता है जिसे स्थानीय भाषा में संगाई कहते हैं। जहां यह संगाई पाए जाते हैं उस स्थान को 1997 में एक नेशनल पार्क घोषित किया गया था, जिसका नाम लोकतक झील रहा गया. जहां का क्षेत्रफल 40 वर्ग किलो मीटर है। यह अनोखी भौतिक विशेषताओं वाला पार्क है जहां लगभग पूरा पार्क पानी की सतह के नीचे डूबा है और जहां वनस्पतियों के टुकड़े गुच्छा बनाकर तैरते दिखाई देते हैं जैसे घास, झाडियां और मिट्टी जिसे फुमडी कहते हैं। वैसे पर्यटन के लिहाज़ से मणिपुर को संगाई हिरणों के लिए ही जाना जाता है. संगाई के लिए मणिपुर अब अंतिम शरणस्थली है.<br /><br />किसी समय में सभी जातियों के संगाई हिरण वियतनाम से लेकर मणिपुर तक काफी अधिक संख्या में पाए जाते थे. लेकिन मानवीय अतिक्रमण के चलते लोकतक झील में पाए जाने वाले संगाई का अस्तित्व पर अब संकट के बादल मंडरा रहे हैं. यदि इनके संरक्षण पर ध्यान ना दिया गया तो संगाई हिरण की विलुप्ति निश्चित है. लुप्तप्राय वन्य जीव का दर्ज़ा मिल जाने के बाद भी इनकी संख्या में लगातार गिरावट दर्ज की जा रही है. किसी समय में वियतनाम से लेकर पश्चिमी मणिपुर तक हज़ारों की संख्या में पाए जाने वाले संगाई की संख्या जहां पिछली गणना में १६७ थी तो इस बार वह घटकर १०० रह गई है. अब यदि यह यहाँ से भी समाप्त हो गया. तो धरती से संगाई का नामोनिशान मिट जाएगा. ओर संगाई सिर्फ एक इतिहास बन जायेगा. संगाई की तीनो प्रजातियां लुप्त होने की कगार पर हैं जिनमें सबसे ज़्यादा दयनीय स्तिथि मणिपुर संगाई की है. थाईलैंड में संगाई की एक चौथे प्रजाती भी हुआ करती थी. लेकिन पर्याप्त संरक्षण के आभाव में १९३२ से १९३७ के मध्य यह प्रजाती विलुप्त हो गई.<br /><br />संगाई का बसेरा :- संगाई का बसेरा लोकतक झील के दक्षिणी हिस्से में तैरती कई की मोटी परत पर उगी हुई घास है. संगाई का यह बसेरा 40 वर्ग किलो मीटर तक फैला हुआ है. इसका मुख्या क्षेत्र १५ वर्ग किमी. है जहां ये संगाई निवास करते हैं. लोकतक झील पूर्वोत्तर भारत की ताज़े पानी की सबसे बड़ी झील है. जिसमें वर्ष भर पानी भरा रहता है. संगाई को इन तैरती घास पर रहना पसंद है. सन १९५२ में मणिपुर सरकार ने इस प्रजाति को विलुप्त घोषित कर दिया था. लेकिन कुछ समय बाद इनका झुण्ड दिख जाने पर इनके संरक्षण ओर इनकी संख्या बढ़ाने की दिशा में काम शुरू हुआ. लेकिन कोई सार्थक परिणाम नहीं मिले.<br /><br />कैसे दिखते हैं :- संगाई एक सुदर ओर शानदार हिरण है. तथा दूर से दिखने पर साम्भर की तरह ही दिखता है. लेकिन इसका आकार संभार से छोटा होता है. संगाई के कन्धों की लम्बाई १०० सेंटीमीटर से लेकर १२० सेंटीमीटर तक होती है. पूंछ को मिलाकर इनकी कुल लम्बाई १२० सेंटीमीटर से १५० सेंटीमीटर रहती है. नर संगाई का रंग कालापन लिए हुए गहरा भोरा या बादामी होता है. इसकी एक खूबी ओर यह होती है कि यह मौसम के अनुसार अपना रंग बदलता है. सर्दियों में गहरा भूरा तथा गर्मियों में हल्का भूरा हो जाता है.<br /><br />दिवाचार होते हैं :- संगाई हिरण दिवाचार होते हैं अर्थात ये दिन में भोजन करते हैं ओर रात्री में आराम करते हैं. ये मुख्यतः झुंडों में प्रातः काल से ही चरना आरम्भ कर देते हैं. इसे खुले मैदानों, झाडी वाले समतल वनों, तथा दलदल वाले जंगलों में चरना पसंद है.<br /><br />संरक्षण के लिए स्थानीय प्रयास :- विलुप्ती की कगार पर पहुँच चुके संगाई के संरक्षण के लिए स्थानीय स्तर पर भी कई प्रयास किये जा रहे हैं. संगाई की लगातार कम संख्या होते देख पार्क के आसपास के लोगों ने इनके संरक्षण के लिए क्लब का गठन किया है. इसके अलावा उनके साथ कुछ गैर सरकारी संगठन ने मिलकर इन्वायरमेंटल सोशल रिफौर्मेशन एंड संगाई प्रोटेक्शन फोरम बनाया है. इनकी इकाइयां झील के चारों तरफ हैं जो संगाई के साथ साथ अन्य दुर्लभ प्राणियों के संरक्षण की दिशा में काम कर रहे हैं.<br /><br />शिकार विलुप्ती का कारण :- संगाई की लगातार कम होती संख्या के पीछे इसका शिकार मुख्या कारण माना जा रहा है. मानवीय हस्तक्षेप की वजह से संगाई का अस्तित्व तो वैसे भी संकट में था रही सही कसर उग्रवादियों ने पूरे कर दी. दूसरी ओर संगाई का मुख्या बसेरा लोकतक झील का विनाश भी आरम्भ हो गया. जो कि संगाई के लिए शुभ नहीं है.<br /><br /></div>ABHIVYAKTIhttp://www.blogger.com/profile/11939926628758225099noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-152689614694463577.post-28814364601942201742010-02-08T04:39:00.000-08:002010-02-08T04:40:02.411-08:00करोड़ों खर्च: फिर भी नहीं सुधरी नदियों की दशा<div style="text-align: justify;">(कमल सोनी)>>>> देश में बहने वाली नदियों का बढता प्रदूषण बेहद चिंता का विषय बनता जा रहा है. इसका मुख्य कारण है कारखानों ओर शहरों का गंदा पानी प्रवाहित किया जाना. जो नदियाँ प्रदूषण का दंश झेल रही हैं उनमें यमुना, नर्मदा ओर गंगा देश की प्रमुख नदियाँ भी शामिल हैं. यमुना के प्रदूषण स्तर का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि यमुना में ओक्सिजन लेवल शून्य तक पहुँच गया है. सबसे अलग भारत जैसे सांस्कृतिक देश में धार्मिक महत्व वाली इन नदियों में कारखानों ओर शहरों का गंदा जल प्रवाहित किया जाना बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है. इन नदियों की सफाई के लिए जहां करोड़ों खर्च किये जा रहे हैं वहीं इन्हें प्रदुषण मुक्त करने के कोई सार्थक परिणाम सामने नहीं आ रहे. मध्यप्रदेश की जीवनदायनी और धार्मिक महत्व रखने वाली नर्मदा नदी भी अब प्रदूषित नदियों की श्रेणी में आ गई है चिंता की बात तो यह है कि नर्मदा अपने उदगम स्थल अमरकंटक में ही सबसे ज़्यादा मैली हो गई है मध्यप्रदेश प्रदूषण निवारण मंडल की एक रिपोर्ट के मुताबिक पुण्य दायनी नर्मदा अब मैली हो गई है और यदि अभी इसके प्रदूषण मुक्त करने के प्रयास नहीं किया गए तो आगे इसके और भी अधिक मैली होने की संभावना है रिपोर्ट में यह भी खुलासा किया गया है कि अपने उदगम स्थान से रेवा सागर संगम तक के लगभग १२५० किमी के सफ़र में नर्मदा नदी का जल यदि सबसे ज़्यादा प्रदूषित है तो वह है धार्मिक घाटों पर. साथ ही शहरों का प्रदूषित जल भी नर्मदा में प्रवाहित किया जाता है. दूसरी ओर यमुना के प्रदुषण के बारे में तो सभी परिचित हैं.<br /><br />सभी प्रयास असफल :- इन नदियों को प्रदूषण मुक्त करने के लिए केंद्र ओर राज्य सरकारें कई सालों से प्रयासरत हैं. लेकिन सरकार के ये प्रयास बिलकुल नाकाफी साबित हो रहे हैं. केंद्र ओर राज्य सरकारों के तमाम प्रयासों के बावजूद देश में लगभग १५० नदियाँ प्रदूषित हैं. इनमें कई तो ऐसी नदियाँ हैं जो कि गंदे नाले में परिवर्तित हो गई हैं. इसका सीधा उदाहरण है मध्यप्रदेश का जबलपुर शहर. जहां का मोती नाला कभी मोती नदी हुआ करता था. लेकिन शहर का गंदा पानी कई दशकों से इसमें बहाए जाने के कारण अब यह मोती नाले में तब्दील हो गया है. ठीक इसी तरह एक रिपोर्ट के अनुसार नदियों को पर्दूशन मुक्त करने के लिए केंद्र सरकार द्वारा नदी संरक्षण योजना चलाई जा रही है. यह योजना देश के २० राज्यों की ३८ नदियों को प्रदूषण मुक्त करने का काम कर रही है. इस योजना में १६७ शहरों को शामिल किया गया है. केंद्र सरकार ने गंगा को प्रदूषण मुक्त करने के लिए गत वर्ष गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण का गठन किया. तथा वर्ष २००९-१० में गंगा की साफ़ सफाई के लिएय २५० करोड रु. आवंटित भी किये गए. इससे पूर्व भी १९८५ में तत्कालीन केंद्र सरकार ने गंगा कार्य योजना प्रारम्भ कर ८३७ करोड रुपये गंगा की साफ़ सफाई पर खर्च किये थे बाद में गंगा कार्ययोजना फेज २ प्रारम्भ की गई जिसमे अन्य नदियों यमुना, गोमती, दामोदर ओर महानंदा को भी शामिल कर लिया गया.<br /><br />बचाया का सकता है यमुना को :- यदि समय रहते सार्थक प्रयास किये गए तो बेहद प्रदूषित नदी यमुना को बचाया जा सकता है. इस बात का खुलासा केंद्रीय जल संसाधन मंत्रालय की एक रिपोर्ट में किया गया है. केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने केंद्रीय जल संसाधन मंत्रालय की रिपोर्ट में कहा है कि अब भी कोशिश कर नर्मदा को बचाया जा सकता है. बोर्ड का कहना है कि यद्दपि यमुना का ओक्सिजन लेवल शून्य तक पहुँच गया है लेकिन फिर भी इसे बचाया जा सकता है. जिसके लिए शीघ्र अतिशीघ्र कार्यवाही करनी होगी. इससे पहले भी केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड दिली जल बोर्ड ओर पर्यावरण मंत्रालय के चेतावनी दे चुका है. लेकिन इच्छाशक्ति के अभाव में इस दिशा में कोई सार्थक प्रयास नहीं किये जा रहे. यमुना के प्रदूषित होने का अंदाजा बोर्ड की एक रिपोर्ट से लगाया जा सकता है. रिपोर्ट के मुताबिक गंगा अपने बहाव क्षेत्र का कुल २ प्रतिशत दिल्ली में बहती है लेकिन इतनी दूरी में ही इसका पानी ७० प्रतिशत प्रदूषित हो जाता है. जिसके बाद यमुना का पानी पीने के लिए तो दूर खेती ओर कपडे धोने के लायक भी नहीं रह जाता. बोर्ड का कहना है कि यमुना को प्रदूषण मुक्त करने के लिए काफी प्रयास किये जाने की आवश्यकता है. युमना के विषय में इस बात का खुलासा भी हुआ है यमुना के २२ किमी बहने से पहले यमुना का पानी इस्तेमाल के लयक होता है लेकिन दिल्ली के बाद इसका पानी इस्तेमाल के लायक नहीं रहता.<br /><br />कई एजेंसिया प्रयासरत :- मध्यप्रदेश राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अलावा कुछ एजेंसियां भी राज्य की नदियों को प्रदुषण मुक्त करने के लिए प्रयासरत हैं. ये एजेंसियां प्रदेश की जीवनदायनी नर्मदा सहित बेतवा, तापी, बाणगंगा, केन, क्षिप्रा, चम्बल, ओर मन्दाकिनी की साफ सफाई में लगी हुई हैं. इसके अलावा पश्चिम बंगाल में कोलकाता मेट्रोपोलिटन विकास प्राधिकरण गंगा को, उत्तरप्रदेश जल निगम गंगा, यमुन, गोमती को प्रदूषण मुक्त करने प्रयासरत हैं.<br /><br />क्या हो सार्थक हल :- इन नदियों को यदि जल्द से जल्द स्वच्छ न किया गया तो वो दिन दूर नहीं जब ये नदियाँ सिर्फ इतिहास बनकर रह जायंगी. इन नदियों के प्रदूषण का मुख्य कारण है इसमें प्रवाहित किया जाने वाला कचरा. चाहे वह किसी भी रूप में क्यों न हो. दूसरा सबसे बड़ा कारण है धार्मिक कारण. इन नदियों में प्रतिदिन लोग अपने घरों से पूजा के बाद के अवशेष लाकर बहा देते हैं साथ ही प्रतिदिन स्नान और उसमें कपडे धोना जानवरों को नहलाना इत्यादि अनेकों कारण नर्मदा को प्रदूषित कर रहे हैं. इन सबसे अलग कारखानों का रासायनिक कचरा भी इन नदियों में बहा दिया जाता है. लेकिन यदि इन नदियों में कचरा प्रवाहित होना बंद हो जाए तो इन नदियों का पानी स्वतः स्वच्छ हो सकता है. अन्यथा सारे प्रयास विफल ही साबित होंगे. इन रासायनिक कचरों के नदियों में प्रवाहित होने के कारण इन नदियों में स्वयं को साफ़ करने की क्षमता भी कम हुई है. एक रिपोर्ट के मुताबिक नदियों में एक प्रकार का जीव पाया जाता है जो पत्थरों को जोड़ता है पानी को फिल्टर करता है यह प्रकृति का ही एक स्वरुप है जिससे नदियाँ स्वयं को स्वच्छ रखती हैं लेकिन पिछले कुछ सालों में इसमें कमी के चलते नदियों में स्वयं को स्वच्छ करने की क्षमता में भी कमी आई है यदि आज इन नदियों को बचाने की मुहिम न छेड़ी गई तो वह दिन दूर नहीं जब या तो नदियाँ पूरी तरह से प्रदूषित हो जायेगी या उनका अस्तित्व भी खतरे में पड़ जायेगा इन नदियों को स्वच्छ रखने में धार्मिक, सामाजिक, राजनितिक और प्रशासनिक सभी के सहयोग की आवश्यकता है साथ ही ज़रुरत है आमजनमानस में नदियों के महत्व और आगामी भविष्य में नदियों की ज़रुरत को प्रसारित कर जागरुक बनाया जाए ताकि लोग स्वतः ही इन्हें प्रदूषित करने से परहेज़ करें.<br /></div>ABHIVYAKTIhttp://www.blogger.com/profile/11939926628758225099noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-152689614694463577.post-22377965411525700412010-02-04T03:15:00.000-08:002010-02-04T03:17:16.284-08:00क्या भारत में भी वोटिंग अनिवार्यता कानून ज़रूरी....?<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhvZyC1Hl2sKTwN4Gz8_K7ACevBi0MPJDZ7MN1gFINQR2rAY0YN8XanbdtTpc4205ry-oUJw8Qfb6CzShRkj49ldoLdhsRO-VXWjbJo3jx5jhnBP9sgio0yXpoSvKWhAfuHPURgzhYY_-H4/s1600-h/compulsoryvoting.jpg"><img style="margin: 0px auto 10px; display: block; text-align: center; cursor: pointer; width: 350px; height: 350px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhvZyC1Hl2sKTwN4Gz8_K7ACevBi0MPJDZ7MN1gFINQR2rAY0YN8XanbdtTpc4205ry-oUJw8Qfb6CzShRkj49ldoLdhsRO-VXWjbJo3jx5jhnBP9sgio0yXpoSvKWhAfuHPURgzhYY_-H4/s400/compulsoryvoting.jpg" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5434345773186759778" border="0" /></a><br /><br /><div style="text-align: justify;">(कमल सोनी)>>>> क्या भारत में भी वोटिंग अनिवार्यता ज़रूरी है ? इस सवाल ने एक नई बहस को छेड़ दिया है. बहस इसलिए भी जरूरी है. कि क्या देश की जनता अपने अधिकारों के प्रति जागरूक नहीं है ? या फिर वह नेताओं की वादाखिलाफी से तंग आ चुकी है ? कई बार जनता अपने अधिकारों के मायने भी नहीं जानती. यही मुख्य वजह है कि देश में होने वाले लोकसभा चुनावों से लेकर, विधानसभा, नगरिय निकाय तथा पंचायत स्तर के चुनावों में ज्यादा से ज्यादा ६० प्रतिशत मतदान की खबरें आती हैं. क्या बाकी की ४० प्रतिशत जनता अपने अधिकारों से अनभिज्ञ है. या वह अपने अधिकारों के मायने नहीं जानती. आज़ादी के ६३ साल बीत जाने के बाद मतदान के लिए आमजनमानस को जागरूक करने न जीन कितने जागरूकता कार्यक्रम चलाये गए. फिर भी जनता जागरूक कैसे नहीं हुई ? देश में पहली बार स्थानीय निकाय चुनावों में वोटिंग को अनिवार्य बनाया गया है. इस दिशा में सबसे पहला कदम उठाया है गुजरात सरकार ने. गुजरात विधानसभा में पारित अनिवार्य वोटिंग बिल ने नई बहस को जन्म दे दिया है. इस बिल के पारित हो जाने के बाद कुछ ने इसका स्वागत किया है तो कुछ ने इसे गैर संवैधानिक.<br /><br />अनिवार्य वोटिंग कानून :- अनिवार्य वोटिंग क़ानून के तहत उसमें एक नियमावली बनाई गई है. क़ानून के अंतर्गत इस नियमावली में उल्लेखित कारणों के अतिरिक्त अगर कोई मतदाता मतदान नहीं करता तो चुनाव आयोग उसे डिफाल्टर वोटर घोषित कर देगा. इतना ही नहीं चुनाव आयोग उस मतदाता को जिसने अपने मताधिकार का प्रयोग नहीं किया उसे दण्डित भी करेगा. यानि नियमावली में उल्लेखित कारणों के अलावा अन्य कोई भी कारण हो आपको मतदान करना की होगा अन्यथा मतदाता को इसका खामियाजा भी भुगतना होगा.<br /><br />अन्य देशो में भी बना है कानून :- अनिवार्य वोटिंग कानून अन्य देशो में भी बन है. दुनिया के १९ देशों में अनिवार्य वोटिंग कानून लागू है. जिन देशों में अनुवार्य वोटिंग कानून लागू है. उनमें आस्ट्रेलिया, अर्जेंटीना, ब्राजील, सिंगापूर, तुर्की आड़े देश भी शामिल हैं. जिन देशों में अनिवार्य वोटिंग लागू है उनमें से अधिकांश देशों ने ७० वर्ष से अधिक के बुजुर्गों को अनिवार्य वोटिंग कानून के दायरे से बाहर रखा है.<br /><br />कहीं स्वागत कहीं विरोध :- गुजरात सरकार द्वारा अनिवार्य वोटिंग कानून बनाने के बाद चुनाव की दिशा में क्रांतिकारी परिवर्तन आएंगे या नहीं इस बात का पता तो आने वाले समय में ही चलेगा लेकिन फिलवक्त अनिवार्य वोटिंग कानून को लेकर दो पक्ष आमने सामने हैं. केंद्र की कांग्रेस नीट यूपीए सरकार इस कानून का विरोध कर रही है. कांग्रेस का कहना है कि मतदाता पर दबाव डालकर मतदान करवाना गैर संवैधानिक है. मतदाता अपना मत देने और न देने के लिए स्वतंत्र है. लेकिन ठेक इसके विपरीत चुनाव सुधार के समर्थकों ने इस कानून का स्वागत किया है चुनाव सुधार समर्थकों ने इस कानून को एक ऐतिहासिक कदम बताया है उनका कहना है कि अनिवार्य मतदाक के साथ नकारात्मक वोटिंग का अधिकार मिलने से मतदाता उम्मीदवारों के प्रति अपने गुस्से का इज़हार खुलकर कर सकेंगे. उनका यह भी कहना है कि इससे निर्वाचन प्रणाली में गुणात्मक सुधार आएगा और धीरे-धीरे मतदाता अपने मतदान के अधिकारों का मूल्य समझने लगेगा. परिणाम स्वरुप मतदान को और अधिक सकारात्मक बनाया जा सकेगा. इस क़ानून के लागू हो जाने के बाद उम्मीदवारों को भय रहेगा कि यदि जनहित में काम न किये तो मतदाता का गुस्सा भी झेलना पड़ेगा.<br /><br />बहरहाल चुनावों में प्रत्येक मतदाता की भागीदारी जब तक नहीं होगी. तब तक मज़बूत लोकतंत्र की कल्पना नहीं की जा सकती. हमें किसी न किसी रूप में वोटिंग का प्रतिशत बढ़ाना होगा. धन बल के बल पर जीते हुए बाहुबली देश के सच्चे प्रतिनिधि कभी नहीं हो सकते. और ऐसे में देश न ही मज़बूत लोकतंत्र बन सकता. नरेन्द्र मोदी के इस कदम को चुनाव सुधारों से जोडकर देखा जा रहा है. अब गुजरात में इस कानून के लागू हो जाने के बाद गुजरात में ज्यादा से ज़्यादा लोग मतदान के लिए आगे आयेंगे. लेकिन यहाँ देखने वाली दिलचस्प बात यह होगी कि इस क़ानून को कैसे लागू किया जाता है और मतदाता इस पर क्या प्रतिक्रया देते हैं. अगर अनिवार्य और नकारात्मक वोटिंग कानून गुजरात में सफल रहा तो यह गुजरात सरकार का सही कदम होगा. तथा गुजरात पूरे देश में एक रोल मोडल बन जायेगा. और इसे अन्य राज्यों समेत देश भर में लागू किया जा सकेगा. हलाकि इससे पूर्व भी लोकसभा में बीजेपी के एक सांसद अनिवार्य वोटिंग विधेयक लाये थे लेकिन वह पारित न हो सका. लेकिन गुजरात में अनिवार्य वोटिंग कानून बनने के बाद यह देखना दिलचस्प होगा कि यह कितना सफल रहता है.<br /></div>ABHIVYAKTIhttp://www.blogger.com/profile/11939926628758225099noreply@blogger.com0