November 10, 2009

भोपाल गैस त्रासदी: आम लोगों के लिए खुलेगा युनियन कार्बाइड कारखाना


कमल सोनी >>>> तीन दिसंबर 1984 से लेकर अब तक भोपाल गैस त्रासदी को गुजरे हुए 25 वर्ष होने वाले हैं, लेकिन आज भी इस इलाके में जाने पर लगता है मानों कल की ही बात हो. आज 25 साल बाद भी हर सुबह दुर्घटना वाले दिन की अगली सुबह ही नजर आती है. यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री से ज़हरीले गैस रिसाव और रसायनिक कचरे के कहर का प्रभाव आज भी बना हुआ है। बच्चे अपंग होते रहे, मां के दूध में ज़हरीले रसायन पाये जाने की बात भी सामने आई, चर्म रोग, दमा, कैंसर और न जाने कितनी बीमारियां धीमा ज़हर बनकर आज भी गैस प्रभावितों को अपनी चपेट में ले रही हैं।


मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में आज से 25 वर्ष पहले हुए दुनिया के सबसे बड़े औद्योगिक हादसे को लोग अभी तक नहीं भूल पाए हैं, लेकिन अब आम लोग उस यूनियन कार्बाइड कारखाने को करीब से देख सकेंगे, जिससे हुए गैस रिसाव से सैकड़ों लोग मारे गए थे। आगामी 3 दिसंबर को भोपाल गैस त्रासदी को 25 साल पूरे हो जाएंगे। यह कारखाना कैसा है, हादसे के वक्त कहां से गैस रिसी थी, मौत का वह कुआं कौन-सा है जिसमें से कई शव निकाले गए थे, इसे आम लोगों ने अब तक देखा नहीं है। यह कारखाना 20 नवंबर से पांच दिसंबर तक आम जनता के लिए खोल दिया जाएगा। इसके लिए कारखाने से 25 फीट दूर बेरीकेट्स लगाए जाएंगे। प्रदेश के गैस त्रासदी एवं पुनर्वास मंत्री बाबूलाल गौर ने प्रशासनिक अमले के साथ सोमवार शाम कारखाने का निरीक्षण किया।


गौर का कहना है कि कारखाने को आम लोगों के लिए खोलने के पीछे मकसद यह है कि लोग जान सकें कि कारखाने में खतरनाक रासायनिक कचरा नहीं है। उन्होंने स्पष्ट किया कि विभिन्न वैज्ञानिक संगठन कचरे का परीक्षण कर स्पष्ट कर चुके हैं कि कारखाने में मौजूद अपशिष्ट खतरनाक नहीं है। इतना ही नहीं कारखाना परिसर में लगे वृक्ष और घास-फूस भी अपशिष्ट के खतरनाक नहीं होने की पुष्टि करते हैं।


क्या थी त्रासदी :- मध्य प्रदेश के भोपाल शहर मे 3 दिसम्बर सन् 1984 की रात भोपाल वासियों के लियी काल की रत बनाकर सामने आई इस दिन एक भयानक औद्योगिक दुर्घटना हुई। इसे भोपाल गैस कांड, या भोपाल गैस त्रासदी के नाम से जाना जाता है। ३ दिसम्बर १९८४ को युनियन कार्बाइड कारखाने से अकस्मात मिथाइल आइसोसायनाईट अन्य रसायनों के रिसाव होने से कई जाने गईं थी


न्याय को तरस रहे हैं पीड़ित :- एक नई पीढ़ी तैयार हो गई, सरकारें आई और चली गईं, लेकिन किसी को गैस पीड़ितों की सुध नहीं आई। मुआवजा तो दूर असहाय लोगों को ईलाज के लिए भी तरसना पड़ गया। गैस पीड़ितों के लिए एक केन्द्रीय आयोग गठित होना चाहिए, यह बात 25 सालों के बाद केन्द्र सरकार को समझ में आई है। हालांकि केन्द्रीय आयोग बनने में भी अभी कई पेंच हैं। बहरहाल हालात अभी भी उतने ही खराब हैं, जितने कि हादसे के बाद अगली सुबह में थे। गैस जनित बीमारियों से आज करीब सवा लाख लोग जूझ रहे हैं और प्रभावित लोगों की औसत उम्र महज 46-47 वर्ष रह गई है। टी।बी. एवं कैंसर जैसी भयानक बीमारियां लोगों को काल के गाल में धकेल रही हैं। हैण्डपंप पानी के स्थान ज़हर उगल रहे हैं और मजबूरन लोगों को यही पानी पीना पड़ता है। हालांकि पानी सप्लाई का कुछ जरूर हुआ है, लेकिन अभी कसर बाकी है। पानी सप्लाई कर देना मुद्दा नहीं है, मुद्दा पीड़ितों के दीर्घकालीन अस्तित्व और पर्यावरण से अधिक जुड़ा है। इतने वर्षों के बाद भी सरकार अभी यह फैसला नहीं कर पाई है कि कारखाने के भीतर दबे 10 हजार टन रसायनिक कचरे का निपटान कैसे किया जाए। हालात यह हो गए हैं कि आज करीब 3 किलोमीटर का क्षेत्र घातक रसायनों के जमीन में रिसाव के कारण स्थिती संवेदनशील हो चुकी है, जो स्वास्थ्य के लिहाज से किसी भी सूरत में सही नहीं ठहराया जा सकता।


केंद्र नहीं दे रहा मदद :- गौर ने बताया कि गैस त्रासदी एक्ट 1985 के अंतर्गत केंद्र सरकार ने गैस पीड़ितों को मदद देने की पूरी जिम्मेदारी ली थी। इसके बावजूद 1999 से अब तक कोई राशि केंद्र सरकार ने नहीं दी है। राज्य सरकार गैस पीड़ितों पर 250 करोड़ रुपए खर्च कर चुकी है। राज्य सरकार ने 982 करोड़ रुपए की कार्य योजना केंद्र को भेजी है जो मंजूर की जानी चाहिए। उन्होंने कहा कि राज्य सरकार एक स्मारक भी बनाना चाहती है। इसके लिए राज्य सरकार ने 11 करोड़ रुपए भी मंजूर किए हैं।