<><><>(कमल सोनी)<><><> एकता ही शक्ति है का नारा देने वाले हमारे देश के नेता किस तरह से आम जनता को बाँट रहे हैं इसका सीधा अनुमान देश में निरंतर बढ़ती राजनीतिक दलों की संख्या से लगाया जा सकता है अपने व्यक्तिगत स्वार्थ और अपना प्रभुत्व कायम रखने के लिए इन नेताओं ने पूरे देश को धर्म, जाती, आरक्षण, क्षेत्रीयता और प्राशासनिक आधारों पर बाँट रखा है और वास्तव में जनता को देश, समाज, धर्म और अपने अधिकारों के प्रति गंभीर चिंतन - मनन का मौका ही न मिले जनता सही-गलत, उचित-अनुचित, में स्वयं फैसला न कर सके जनता के सामने असमंजस और भ्रम की स्थिति बनी रहे और इन नेताओं की स्वार्थ की रोटियाँ सिकती रहें यही मुख्या वजह है की हमारे देश में कुकुरमुत्तों की तरह राजनितिक पार्टियां पैदा हो गई हैं और निरंतर इनकी संख्या में इजाफा भी हो रहा है सुशासन की बात करने वाले इन राजनितिक दलों में अनुशासन का घोर आभाव नज़र आता है
दुनिया के अधिकांशतः लोकतांत्रिक राष्ट्रों में चाहे वहां राष्ट्रपति पद्धति का ही लोकतंत्र क्यों न हो उन देशों में दो से चार राजनीतिक दल नज़र आते हैं अगर कहीं इनकी संख्या ज़्यादा भी हो तो वहां धर्म, जाती, सम्प्रदाय और क्षेत्रीयता जैसी कोई बात नहीं होती और वे सभी राष्ट्रीय दल होते हैं उदहारण के लिए फ्रांस में लगभग दर्ज़न भर राजनितिक दल हैं लेकिन वहां राष्ट्रपति पद्धति का लोकतंत्र होने के कारण वह ज़्यादा साफ़ पाक नज़र आता है भारत की तरह ही जापान में भी गठबंधन की राजनीति चलती है परन्तु वहां सभी राष्ट्रीय पार्टियां हैं अमेरिका में भी दो दलीय व्यवस्था है ब्रिटेन में तें दल हैं लेकिन मुख्या संघर्ष दो दलों के बीच ही होता हैं यही वजह है कि इन देशों का लोकतंत्र भारतीय लोकतंत्र के मुकाबले ज़्यादा मजबूत और साफ़ सुथरा है हमारे महान भारतीय लोकतंत्र की तरह इन देशों में सरकार बनाने की कावायद के चलते सांसदों की खरीद फरोख्त नहीं होती और न ही किसी गठबंधन का घटक दल किसी मुद्दे विशेष पर समर्थन वापस लेकर मध्यावधि चुनाव जैसे हालात पैदा करता और न ही इन देशों की राजनीति और सत्ता अवैध कमाई का साधन हैं
लेकिन ठीक इसके विपरीत हमारे देश में राजनीति का व्यापारीकरण हो गया यहाँ नेता अपने, अपने परिवार और अपने परिचितों का उद्धार करने के लिए आते हैं दूसरा अंग्रेज़ चले गए और अपनी नीति छोड़ गए "फूट डालो और राज करो" यह नीति हमारे देश के नेताओं का सबसे बड़ा हथियार है कोई इसका प्रत्यक्ष तो कोई आप्रत्यक्ष रूप से इस्तेमाल करता है ऐसा नहीं है कि संवैधानिक व्यवस्था में कोई सार्थक बदलाव लाकर इस समस्या का कोई हल नहीं निकाला जा सकता सब संभव है लेकिन ऐसा होने पर इन नेताओं की अवैध कमाई, दबंगता और बाहुबल पर अंकुश लग जायेगा जो स्वयं ये राजनेता नहीं चाहते क्यूंकि कानून बनाने वाले भी तो यही हैं
मौजूदा हालत तो ये हैं कि जिसका जहां वर्चस्व होता है वो वहीं अपनी राजनीति का शो रूम खोलकर बैठ जाता है किसी राष्ट्रीय राजनीतिक दल ने अपने किसी नेता की बात नहीं मानी तो नेताजी अपने समर्थकों समेत पार्टी से अलग होकर नई पार्टी बना लेते हैं और फिर वही राष्ट्रीय दल अपनी ही पार्टी से अलग हुए नेता के दरवाजे पर सरकार बनाने के लिए हाथ जोड़े समर्थन मांगता फिरता है और क्षेत्रीय दल समर्थन देने की नाम पर किसी मंत्रालय की डिमांड कर देते हैं अब यहाँ योग्यता का कोई प्रश्न ही नहीं उठता सरकार बनाने के लिए राष्ट्रीय दल मजबूर होता है क्षेत्रीय दलों की बात मानने के लिए उदाहरण के लिए बीजेपी से अलग हुई उमा भारती ने भारतीय जनशक्ति पार्टी बना ली शरद पवार ने कांग्रेस से अलग होकर राष्ट्रवादी कांग्रेस का गठन कर लिया तो करुणाकरण ने कांग्रेस से अलग होकर केरल कांग्रेस बना ली ये तो महज़ उँगलियों पर गिन लेने वाले चाँद उदाहरण ही हैं देश में ऐसी कोई पार्टी नहीं बची जो इस राजनीतिक उथल-पुथल से अछूती हो चुनाव नज़दीक आते ही ये उथल-पुथल और बढ़ जाती है दूसरी और दुगनी रफ्तार से कषेत्रीय दलों की संख्या और सक्रियता बढ़ रही है जिन पार्टियों का प्रभाव तीन-चार जिलों तक सीमित रहता है वह पार्टी खुद को राष्ट्रीय पार्टी घोषित कर देती है जिस पार्टी की पास छेह से सात सांसद भी हो गए उस पार्टी का प्रमुख खुद को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर देता है
सबसे दुखद पहलू तो ये है कि टेलीविजन, फिल्मी सितारों और राजनीति से संन्यास ले चुके खिलाड़ियों की राजनीति में भूमिका बढ़ रही है दबंगों. बाहुबलियों और अपराधियों की भी अच्छी खासी भीड़ है इस बीच हाल ही में दिए गए दो महत्वपूर्ण फैसलों में जनता ने तब थोड़ी राहत महसूस की जब सुप्रीम कोर्ट ने संजय दत्त और पटना हाई कोर्ट ने पप्पू यादव के चुनाव लड़ने पर रोक लगा दी
आज देश के राजनितिक गलियारों में जो उठा-पटक मची है और उससे जो राजनीतिक परिद्रश्य उभरकर आता है यह अपने आप में बड़ा दुर्भाग्यपूर्ण लगता है और भविष्य में भारतीय लोकतंत्र के लिए अच्छे संकेत कतई नहीं देता चुनाव आयोग में भी मान्यता संबन्धी नियम कड़े नहीं होने के कारण पार्टियों को क्षेत्रीय स्टार पर मान्यता तो मिल ही जाती है
बहरहाल देश की राजनीतिक पार्टियों की संख्या की बात करें तो वर्ष २००४ के आम चुनावों में देश में ६ राष्ट्रीय दल और ३६ क्षेत्रीय दल थे वहीं गैर मान्यता प्राप्त राजनीतिक दलों की संख्या १७३ थी लेकिन इस बार के चुनावों में राष्ट्रीय पार्टियों की संख्या ७ और क्षत्रिय दलों की संख्या ४४ है गैर मान्यता प्राप्त दलों की संख्या में भी इजाफा हुआ है इस बात से अंदाजा लगाया जा सकता है कि आज देश की जनता के सामने किस तरह से भ्रम और असमंजस की स्थिति बनी हुई है