December 8, 2009

पहचान की अत्याधुनिक तकनीक बायोमेट्रिक्स



भोपाल (कमल सोनी) >>>> बहुत ही कम लोग ऐसे हैं जिन्होंने बायोमेट्रिक्स का नाम सुना होगा. और यदि सुना भी हो तो शायद इस तकनीकी से निश्चित रूप से अपरिचित होंगे. दरअसल बायोमेट्रिक्स पहचान की अत्याधुनिक तकनीक है. इस तकनीक के माध्यम से इंसानों के विशेष लक्षणों को आधार बनाकर किसी परिस्तिथी विशेष में सही व्यक्ति की पहचान एक ख़ास अंदाज़ में की जाती है. साथ ही आज की Information Technology के युग में बायोमेट्रिक का व्यापक रूप से इस्तेमाल कर जहां एक ओर सुरक्षा के पुख्ता इन्तेजाम किये जा सकते हैं तो दूसरी और शासन-प्रशासन की कार्यप्रणाली में पारदर्शिता लायी जा सकती है. भ्रष्टाचार पर अंकुश भी लग सकता है तो किसी भी विभाग की कार्यशैली की मौजूदा पेचीदिगियों को भी दूर किया जा सकता है. राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय या फिर क्षेत्रीय स्तर पर किसी भी व्यक्ति की पहचान सुनिश्चित की जा सकती है. इन्ही खूबियों के चलते अमेरिका, जापान, जर्मनी, आस्ट्रेलिया जैसे कई विकसित देश अरबों-खरबों रूपये निवेश कर बड़े पैमाने पर इस बायोमेट्रिक्स तकनीक का इस्तेमाल भी कर रहे हैं. साथ ही Information Technology के माध्यम से नए-नए प्रयोग कर Biometric के व्यापक इस्तेमाल के लिए कई अनुसंधान कार्य जारी हैं.


Biometrics Technology के प्रयोग से जहां एक ओर अपराधिक तत्वों और उनकी अपराधिक गतिविधियों पर अंकुश लग सकता है तो दूसरी ओर स्थानीय स्तर से लेकर राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक Database तैयार कर कई जोखिमों से बचा जा सकता है. किसी Organization, Company अथवा किसी विभाग के कर्मचारियों को पंजीबद्ध कर प्रतिदिन की उनकी उपस्तिथी से लेकर राष्ट्रीय स्तर पर Biometrics I-Card के माध्यम से Online Voting करवाकर Fake Voting से भी बचा जा सकता है. इन I-Card के माध्यम से राष्ट्रीय, प्रादेशिक या फिर क्षेत्रीय स्तर पर जनगणना जैसे अहम् कार्य बिना किसी ज़मीनी मशक्कत के सम्पन्न किये जा सकते हैं.


क्या है बायोमेट्रिक्स :- बायोमेट्रिक्स तकनीक इंसानों को ख़ास अंदाज़ में पहचानने का तरीका है। जैसा कि हम सभी जानते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति विशेष में कुछ लक्षण ऐसे होते हैं जो उसे अन्य इंसानों से जुदा अथवा अलग कर देते हैं. यही वो लक्षण हैं जो व्यक्ति विशेष की सटीक पहचान में सहायक होते हैं. इंसानों के इन्ही लक्षणों के नमूने बायोमेट्रिक नमूने कहलाते है. इन बायोमेट्रिक नमूनों को कम्यूटर में एक विशेष डाटाबेस तैयार कर स्टोर कर लिया जाता है. तथा समय आने पर एक विशेष सोफ्टवेयर के माध्यम से व्यक्ति के नमूनों को लेकर डाटाबेस में स्टोर नमूनों से मिलान कर सही व्यक्ति की पहचान कर ली जाती है. जब हम किसी व्यक्ति के बायोमेट्रिक नमूने (फिंगर प्रिंट, आयरिस) एक इलेक्ट्रानिक डिवाइस (फिंगर प्रिंट स्केनर, आयरिस स्केनर) की मदद से कम्प्यूटर में स्टोर करते है इस प्रक्रिया के दौरान सोफ्टवेयर इन नमूनों का विशेष कोड/स्ट्रक्चर तैयार कर लेता है जो कि यूनिक अथवा एक ही होता है तथा दूसरी बार जब मिलान के लिए पुनः फिंगर प्रिंट/आयरिस नमूने लिए जाते है तो सोफ्टवेयर पुनः वही कोड/स्ट्रक्चर तैयार कर डाटाबेस में स्टोर उसी व्यक्ति के कोड/स्ट्रक्चर से मैच कर यह मेसेज दे देता है कि सम्बंधित व्यक्ति कौन है. यह तकनीक उन व्यक्तियों की भी पहचान में सहायक है जो संदिग्ध होते हैं और झुण्ड में रहते हैं. तथा किसी न किसी अपराधिक गतिविधियों में लिप्त रहते हैं.


क्या होते है वे ख़ास लक्षण :- इंसान के वे खास लक्षण जो उसे किसी दूसरे व्यक्ति से अलग पहचान देते हैं उनमें प्राकृतिक, शारीरिक, व्यवहारिक और अनुवांशिक लक्षण शामिल होते हैं. इन लक्षणों को मुख्यतः दो भागों में विभाजित किया जा सकता है.

१. फिजियोलोजिकल २. बिहेवियरल

फिजियोलोजिकल लक्षण :- ये लक्षण मुख्यतः शारीरिक बनावट से सम्बंधित होते हैं. जैसे कि इंसान के फिंगर प्रिंट, आयरिस यानि आँखों की पुतली, चहरे की बनावट, डीएनए, शरीर की गंध इत्यादि कुछ बायोमेट्रिक लक्षण हैं जो व्यक्ति विशेष की पहचान में सहायक होते हैं.

बिहेवियरल लक्षण :- बिहेवियरल लक्षण अर्थात नाम से ही स्पष्ट हो जाता है कि इन लक्षणों को इंसानों के व्यवहारिक लक्षणों में शामिल किया जाता है जैसे बातचीत का तरीका, चलने का ढंग, आवाज़ इत्यादि.

इन बायोमेट्रिक लक्षणों में सबसे ज़्यादा सफल, सरल और सटीक परिणाम देने वाले लक्षण हैं आयरिस तथा फिंगर प्रिंट. यही वजह है इंसानों के इन दो लक्षणों को आधार बनाकर व्यापक रूप से इसके इस्तेमाल के लिए कई प्रयोग किये जा रहे हैं. जिसके सकारात्मक परिणाम भी मिल रहे हैं.

कैसे करती बायोमेट्रिक्स तकनीक काम :- बायोमेट्रिक्स प्रणाली में सबसे पहले एक समूह विशेष का Enrollment किया जाता है और एक डाटाबेस तैयार कर लिया जाता है. यह समूह विशेष कोई भी हो सकता है. चाहे वह स्थानीय स्तर पर हो या फिर राष्ट्रीय या अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर या फिर किसी विभाग अथवा कोई कंपनी विशेष के कर्मचारी. किसी भी स्तर के उस समूह विशेष के बायोमेट्रिक नमूने (फिंगर प्रिंट, आयरिस, या फिर दोनों) एक सोफ्टवेयर तथा एक इलेक्ट्रौनिक डिवाइस (फिंगर प्रिंट स्केनर, आयरिस स्केनर) के माध्यम से डाटाबेस में स्टोर कर लिए जाते हैं. फिर इन नमूनों के साथ सम्बंधित व्यक्ति की अन्य जानकारी जैसे नाम, पता, लाइसेंस नंबर, फोटोग्राफ इत्यादि कुछ जानकारियाँ भी स्टोर कर ली जाती है तथा व्यक्ति को एक आई कार्ड भी दे दिया जाता है. फिर समय आने पर पुनः इस आई कार्ड के साथ व्यक्ति का नमूना लेकर डाटाबेस में स्टोर नमूने से मिलान कर यह सुनिश्चित किया जाता है कि दावा करने वाला व्यक्ति वही हैं कि नहीं जिसके नाम अथवा पते का आई कार्ड वह लेकर आया है.

क्या होते हैं पहचाने के तरीके :- बायोमेट्रिक्स तकनीक से किसी व्यक्ति की पहचान मुख्यतः दो तरीकों से की जाती है :

१.वेरीफिकेशन २.आइडेंटीफिकेशन

वेरीफिकेशन :- जब वन टू वन की तुलना अथवा पहचान करनी हो तो वेरीफिकेशन किया जाता है. अर्थात वह व्यक्ति जो क्लेम कर रहा है उसके बायोमेट्रिक्स नमूने (फिंगर प्रिंट या फिर आयरिस) को लेकर पहले से ही डाटाबेस में स्टोर उसी व्यक्ति के नाम और कोड के बायोमेट्रिक्स नमूनों (फिंगर प्रिंट या आयरिस) से मिलान कर इस बात की पुश्टी की जाती है कि क्लेम करने वाला व्यक्ति कोई दूसरा व्यक्ति तो नहीं.

उदाहरण के लिए वाल्ट डिस्नी वर्ल्ड में बायोमेट्रिक्स तकनीक का इस्तेमाल किया जाता है. वहां टिकिट बिक्री के वक्त टिकिट खरीदने वाले व्यक्ति का फिंगर प्रिंट ले लिया जाता है तथा जब बाद में वह व्यक्ति टिकिट के साथ डिस्नी वर्ल्ड में प्रवेश करता है तो प्रवेश के वक्त पुनः उस व्यक्ति का फिंगर प्रिंट लेकर डाटाबेस में पहले स्टोर फिंगर प्रिंट के साथ मिलान कर यह सुनिश्चित किया जाता है कि प्रवेश करने वाला व्यक्ति वही व्यक्ति है जिसने टिकिट खरीदा है. कहीं उसकी जगह कोई अन्य व्यक्ति तो टिकिट का इस्तेमाल नहीं कर रहा.

आइडेंटीफिकेशन :- जब वन टू मेनी की तुलना अथवा पहचान करनी हो तो आइडेंटीफिकेशन किया जाता है. आइडेंटीफिकेशन मुख्यतः संदिघ्धों की पहचान के लिए किया जाता है.
कब हुआ पहली बार बायोमेट्रिक्स का इस्तेमाल :- पहली बायोमेट्रिक्स तकनीक का इस्तेमाल वर्ष २००४ में एथेंस (ग्रीस) में हुए ओलम्पिक गेम्स के दौरान किया गया था. जिसमें दर्शकों तथा विसिटर्स जिनमें एथीलीट, कोचिंग स्टाफ, टीम मेनेजमेंट तथा मीडिया कर्मी शामिल थे उनको बायोमेट्रिक्स तकनीक से लैस आई कार्ड दिए गए थे. तथा इन आई कार्ड धारी विसिटर्स को पहचान के बाद ही स्टेडियम में प्रवेश दिया गया था. वर्ष २००४ में एथेंस (ग्रीस) में हुए ओलम्पिक गेम्स के दौरान ऐसा इसीलिये किया गया था क्योंकि वर्ष १९७२ में जर्मनी में हुए ओलम्पिक गेम्स के दौरान आतंकवादी हमले में ११ इस्रायली एथीलीट मारे गए थे.

कहाँ किया जा सकता है बायोमेट्रिक्स तकनीक का इस्तेमाल :-

<><> विभाग,संस्था या किसी कंपनी के कर्मचारियों के बायोमेट्रिक्स नमूनों का डाटाबेस तैयार कर उनकी प्रतिदिन की उपस्तिथी से लेकर उनकी परफोर्मेंस पर नज़र रखी जा सकती है.

<><> इलेक्ट्रौनिक मतदाता पहचान पत्र/इलेक्ट्रौनिक पहचान पत्र बनाकर देश के नागरिकों का रिकॉर्ड एक जगह स्टोर किया जा सकता है. तथा चुनाव के वक्त उसी इलेक्ट्रौनिक मतदाता पहचान पत्र के साथ बायोमेट्रिक्स नमूने से पहचान कर राष्ट्रीय प्रादेशिक अथवा क्षेत्रीय स्तर के ऑनलाइन मतदान संपन्न कराये जा सकते है जिससे न केवल बूथ कैप्चरिंग और फेक वोटिंग से बचा जा सकता है. बल्कि सही मतदान के प्रतिशत का पता भी लगाया जा सकता है.

<><> जन्म के तुरत बाद ही यदि किसी बच्चे के बायोमेट्रिक्स नमूने को लेकर उसकी समस्त जानकारी स्टोर कर लिया जाए और इलेक्ट्रौनिक मतदाता पहचान पत्र/इलेक्ट्रौनिक पहचान पत्र बना दिया जाए तो आने वाले 25 सालों में राष्ट्रहित में पूरा डिजिटल डाटाबेस तैयार किया जा सकता है. साथ ही सुरक्षा के दृष्टिकोण पर किसी संस्था, विभाग, कार्यालय, होटल, या किसी खेल के मैदान या फिर वे सभी स्थान जहां प्रतिदिन कई लोगों का आना-जाना होता है उन जगहों पर प्रवेश के पूर्व इलेक्ट्रौनिक मतदाता पहचान पत्र/इलेक्ट्रौनिक पहचान पत्र अनिवार्य कर प्रवेश कर रहे व्यक्ति की सम्पूर्ण जानकारी लेकर कई जोखिमों से बचा जा सकता है. इसके अलावा रेलवे रिसर्वेशन के वक्त, फ्लाईट रिसर्वेशन वक्त भी इलेक्ट्रौनिक मतदाता पहचान पत्र/इलेक्ट्रौनिक पहचान पत्र को अनिवार्य कर कई आत्मघाती घटनाओं और हमलों को होने से रोका जा सकता है.

<><> अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर डिजिटल पासपोर्ट बनाए जा सकते है.

<><> बैंक अपने ग्राहकों को बायोमेट्रिक्स तकनीक से लैस ATM और Credit Card देकर किसी भी तरह की फ्रॉड गतिविधियों पर रोक भी लगा सकते हैं.

<><> सुरक्षा तंत्र को मज़बूत बनाने के लिए अपराधिक गतिविधियों में संलग्न व्यक्तियों का पृथक से बायोमेट्रिक्स रिकॉर्ड रख उनकी पहचान के साथ उनकी गतिविधयों पर आसानी से नज़र रखी जा सकती है.

भारत में भी हो रहा है बायोमेट्रिक्स का सफल इस्तेमाल :-

<><> 29 जुलाई 2009 से गुरु जंभेश्वर विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय हिसार हरयाना में शिक्षकों व गैर शिक्षक कर्मचारियों की हाजिरी के लिए विवि प्रशासन ने बायोमेट्रिक्स सिस्टम शुरू किया.

<><> 5 अगस्त 2008 से ग्वालियर महापौर विवेक नारायण शेजवलकर ने कर्मचारियों में अनुशासन तथा अपने कार्य के प्रति जबाबदेही बढ़ाने के लिये महाराज बाड़े पर स्थित मुख्यालय पर बायोमेट्रिक्स मशीन का उद्धाटन किया. यह मशीन कर्मचारी के कार्यालय में आने एवं जाने के समय को रजिस्टर करेगी, इसमें प्रत्येक कर्मचारी के ''थम्ब इम्प्रेशन'' को ''स्केन'' कर एक ''कोड नम्बर'' दबाकर एवं अपना ''थम्ब'' (अंगूठा) मशीन के ''स्केनर'' के सामने रखकर अपनी उपस्थिति दर्ज करायेगा। साथ ही इस प्रकार का साफ्टवेयर भी तैयार किया जा रहा है जिसके आधार पर बायोमेट्रिक्स मशीन में प्राप्त डाटा सीधे वेतन संबंधी साफ्टवेयर से लिंक किया जावेगा ताकि इस मशीन में दर्ज उपस्थिति का वेतन निर्धारण में उपयोग किया जा सके।

<><> 26 जून 2009 से दिल्ली की पांच अदालतों जल्द ही बायोमेट्रिक उपस्थिति प्रणाली प्राम्भ करने के आदेश जारी किये. अदालत के द्वारा कर्मचारियों में अनुशासन बनाए रखने और कार्य संस्कृति विकसित करने के लिए यह कदम उठाया जा रहा है।

<><> 1 सितम्बर 2009 से केंद्रीय गृह मंत्री पी. चिदम्बरम ने कर्मचारियों का तय समय पर आना-जाना सुनिश्चित करने के लिए मंगलवार को नार्थ ब्लॉक स्थित जैसलमेर हाउस और लोकनायक भवन के कार्यालयों में बायोमेट्रिक उपस्थिति नियंत्रण प्रणली (बीएसीएस) का उद्घाटन किया। समय की पाबंदी के मामले में चिदम्बरम ने खुद ही पहल की और सुबह 9 बजे नार्थ ब्लॉक पहुंच गए और बीएसीएस के माध्यम से अपनी उपस्थिति दर्ज कराई।

<><> इसके अलावा भी कई कंपनियों और विभागों ने बायोमेट्रिक्स तकनीक का इस्तेमाल कर पायलट बेस पर इस तकनीक का प्रयोग कर रहे हैं

December 1, 2009

भोपाल गैस त्रासदी: ज़ख्म के 25 बरस, मरहम को तरस रहे पीड़ित

* ठीक 25 साल पहले भोपाल में बरसी थी आसमान से मौत
* 2-3 दिसम्बर 1984 को युनियन कार्बाइड कारखाने से अकस्मात मिथाइल आइसोसायनाईट अन्य रसायनों का हुआ था रिसाव

* 25 साल बाद भी यूनियन कार्बाइड का जहरीला प्रदूषण नहीं छोड़ रहा पीछा
* आज भी कई लोग शारीरिक और मानसिक कमजोरी से हैं पीड़ित
* गैस पीड़ितों की संख्या में सरकारी आंकड़े और गैर सरकारी आंकड़ों में भिन्नता
* यूनियन कार्बाइड के मुखिया वारेन एंडरसन को 5 दिसंबर 1984 को ही दे दी गई थी ज़मानत
* 25 बरस बीत जाने बाद भी दोषियों को कि सज़ा नहीं

भोपाल (कमल सोनी) >>>> ठीक 25 साल पहले दो-तीन दिसंबर 1984 की दरमियानी रात भोपाल में मौत का कहर बरसाने वाली रात थी। तब से लेकर अब तक इस भीषण भोपाल गैस त्रासदी को गुजरे हुए 25 वर्ष हो गए हैं, लेकिन आज भी इस इलाके में जाने पर लगता है मानों कल की ही बात हो. आज 25 साल बाद भी हर सुबह दुर्घटना वाले दिन की अगली सुबह ही नजर आती है. यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री से ज़हरीले गैस रिसाव और रसायनिक कचरे के कहर का प्रभाव आज भी बना हुआ है. बच्चे अपंग होते रहे, मां के दूध में ज़हरीले रसायन पाये जाने की बात भी सामने आई, चर्म रोग, दमा, कैंसर और न जाने कितनी बीमारियां धीमा ज़हर बनकर आज भी गैस प्रभावितों को अपनी चपेट में ले रही हैं. मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में आज से 25 वर्ष पहले हुए दुनिया के सबसे बड़े औद्योगिक हादसे को लोग अभी तक नहीं भूल पाए हैं.

क्या थी त्रासदी :- मध्य प्रदेश के भोपाल शहर मे 2-3 दिसम्बर सन् 1984 की रात भोपाल वासियों के लिए काल की रात बनकर सामने आई। इस दिन एक भयानक औद्योगिक दुर्घटना हुई। इसे भोपाल गैस कांड, या भोपाल गैस त्रासदी के नाम से जाना जाता है. 2-3 दिसम्बर 1984 को युनियन कार्बाइड कारखाने से अकस्मात मिथाइल आइसोसायनाईट अन्य रसायनों के रिसाव होने से कई जाने गईं थी. इस त्रासदी को 25 साल पूरे होने आए हैं, उस त्रासदी के वक्त जो जख्म यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री से निकली जहरीली हत्यारी गैस ने दिए थे वह आज भी ताजा हैं. हजारों लोगों को आधी रात हत्यारी गैस ने मौत की नींद सुला दिया, सैंकड़ो को जानलेवा बीमारी के आगोश में छोड़ गई यह जहरीली गैस. आज भी गैस के प्रभाव उन लोगों में साफ देखे और महसूस किए जा सकते हैं. उनकी यादों में वह आधी रात दहशत और दर्द की काली स्याही से इतिहास बनकर अंकित हो गई है. उसे न अब कोई बदल सकता है और न ही मिटा सकता.


25 साल बाद भी नहीं पीछा छोड़ रहा जहर :- भोपाल गैस त्रासदी के 25 साल बाद भी यूनियन कार्बाइड का जहरीला प्रदूषण पीछा नहीं छोड़ रहा है। सेंटर फॉर साइंस एंड इंवायरंमेंट द्वारा किए गए परीक्षण में इस बात की पुष्टि हुई है कि फैक्ट्री और इसके आसपास के 3 किमी क्षेत्र के भूजल में निर्धारित मानकों से 40 गुना अधिक जहरीले तत्व मौजूद हैं। सीएसई की निदेशक सुनीता नारायण ने बताया कि फैक्ट्री के कचरे को लेकर भोपाल की जनता को आवाज उठानी चाहिए.


भूजल प्रदूषित :- मध्य प्रदेश प्रदूषण बोर्ड के अलावा कई सरकारी और ग़ैरसरकारी एजेंसियों ने पाया है कि फैक्ट्री के अंदर पड़े रसायन के लगातार ज़मीन में रिसते रहने के कारण इलाक़े का भूजल प्रदूषित हो गया है. कारखाने के आस-पास बसी लगभग 17 बस्तियों के ज़्यादातर लोग आज भी इसी पानी के इस्तेमाल को मजबूर हैं. एक सर्वेक्षण के मुताबिक़ इसी इलाक़े में रहने वाले कई लोग शारीरिक और मानसिक कमजोरी से पीड़ित है. गैस पीड़ितों के इलाज और उन पर शोध करने वाली संस्थाओं के मुताबिक़ लगभग तीन हज़ार परिवारों के बीच करवाए गए एक सर्वेक्षण में पाया गया है कि इस तरह के 141 बच्चे हैं जो या तो शारीरिक, मानसिक या दोनों तरह की कमजोरियों के शिकार हैं कई के होंठ कटे हैं, कुछ के तालू नहीं हैं या फिर दिल में सुराख हैं, इनमें से काफ़ी सांस की बीमारियों के शिकार हैं. दूसरी और इसे एक विडम्बना ही कहेंगे कि अब तक किसी सरकारी संस्था ने कोई अध्ययन भी शुरू नहीं किया है या न ये जानने की कोशिश की है कि क्या जन्मजात विकृतियों या गंभीर बीमारियों के साथ पैदा हो रही ये पीढियां गैस कांड से जुड़े किन्ही कारणों का नतीजा हैं या कुछ और. और ना ही शासन ने अब तक इस तरह के बच्चों को लेकर कोई कार्रवाई नहीं की है. इन बस्तियों में नज़र दौडाने पर अधूरा पडा सरकारी काम अपने ढुलमुल रवैये की कहानी खुद बताता है.

कितने हुए प्रभावित :- जिस वख्त यह हादसा हुआ उस समय भोपाल की आबादी कुल 9 लाख के आसपास थी और उस समय लगभग 6 लाख के आसपास लोग युनियन कार्बाइड कारखाने की जहरीली गैस से प्रभावित हुए थे सरकारी आंकड़ों के मुताबिक़ लगभग 3000 लोग मारे गए थे. खैर ये थे सरकारी आंकड़े लेकिन यदि गैर सरकारी आंकड़ों की बात की जाए तो अब तक इस त्रासदी में मरने वालों की संख्या 20 हज़ार से भी ज़्यादा है. और लगभग 6 लाख लोग आज भी स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं से जूझ रहे हैं.

क्या है सरकारी क़वायद :- 2-3 दिसंबर 1984 की दरमियानी रात हुई गैस के रिसाव के बाद 1985 में भारत सरकार ने भोपाल गैस विभीषिका अधिनियम पारित कर जिसके बाद अमेरिका में यूनियन कार्बाइड के खिलाफ अदालती कार्यवाही शुरू हुई. लेकिन इससे पूर्व ही यूनियन कार्बाइड के मुखिया वारेन एंडरसन को 5 दिसंबर 1984 को ही भोपाल आने पर ज़मानत दे दी गई थी साथ देश से बाहर जाने अनुमति भी. अमेरिकी अदालत ने इसे क्षेत्राधिकार की बात करते हुए अदालती कार्यवाही भारत में ही चलाने के बात कही. जिसके पश्चात भारत सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर फरवरी 1989 को यूनियन कार्बाइड से 470 मिलियन डालर यानि उस वख्त के हिसाब से लगभग सात सौ दस करोड़ इक्कीस लाख रूपए लेना स्वीकार कर लिया. उसमें से मवेशियों के लिए 113 करोड़ और बाकी की राशी लगभग 1 लाख 5 लज़ार पीडितो के लिए अनुमानित थी जिनको 1989 के आदेशों के मुताबिक़ 57 हज़ार रुपये प्रति व्यक्ति मिलाने वाले थे. जबकि उस दौरान तक पीड़ितों की संख्या बढाकर 5 लाख पहुँच गई थी सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 31 अक्टूबर 2009 तक पांच हज़ार चौहत्तर हज़ार तीन सौ बहत्तर गई पीड़ितों को मुआवजा दिया जा चुका है वह भी सिर्फ 200 रुपये प्रतिमाह अंतरिम राहत के तौर पर. कुछ लोगों का यह कहना है कि गैस पीड़ितों को मुआवजे में कम राशि दी गई है मृतकों के परिवार को महज़ 1 लाख रुपये की दो किस्त देकर मामला दबा दिया गया. तो कुछ पीड़ितों को मात्र 25 हज़ार रुपये दे दिए गए.

न्याय को तरस रहे हैं पीड़ित :- 2-3 दिसंबर की दरमियानी रात जहां भोपाल में हवा में मौत घुली थी तो आज कई पीड़ितों जिंदगियों में मौत घुली हुए है एक नई पीढ़ी तैयार हो गई, सरकारें आई और चली गईं, लेकिन किसी को गैस पीड़ितों की सुध नहीं आई. मुआवजा तो दूर असहाय लोगों को ईलाज के लिए भी तरसना पड़ गया. गैस पीड़ितों के लिए एक केन्द्रीय आयोग गठित होना चाहिए, यह बात 25 सालों के बाद केन्द्र सरकार को समझ में आई है. हालांकि केन्द्रीय आयोग बनने में भी अभी कई पेंच हैं. बहरहाल हालात अभी भी उतने ही खराब हैं, जितने कि हादसे के बाद अगली सुबह में थे. गैस जनित बीमारियों से आज करीब सवा लाख लोग जूझ रहे हैं और प्रभावित लोगों की औसत उम्र महज 46-47 वर्ष रह गई है. टी.बी. एवं कैंसर जैसी भयानक बीमारियां लोगों को काल के गाल में धकेल रही हैं. हैण्डपंप पानी के स्थान ज़हर उगल रहे हैं और मजबूरन लोगों को यही पानी पीना पड़ता है. हालांकि पानी सप्लाई का कुछ जरूर हुआ है, लेकिन अभी कसर बाकी है. पानी सप्लाई कर देना मुद्दा नहीं है, मुद्दा पीड़ितों के दीर्घकालीन अस्तित्व और पर्यावरण से अधिक जुड़ा है. इतने वर्षों के बाद भी सरकार अभी यह फैसला नहीं कर पाई है कि कारखाने के भीतर दबे 10 हजार टन रसायनिक कचरे का निपटान कैसे किया जाए. हालात यह हो गए हैं कि आज करीब 3 किलोमीटर का क्षेत्र घातक रसायनों के जमीन में रिसाव के कारण स्थिती संवेदनशील हो चुकी है, जो स्वास्थ्य के लिहाज से किसी भी सूरत में सही नहीं ठहराया जा सकता.

केंद्र नहीं दे रहा मदद :- नगरिय प्रशासन मंत्री बाबूलाल गौर का कहना है कि गैस त्रासदी एक्ट 1985 के अंतर्गत केंद्र सरकार ने गैस पीड़ितों को मदद देने की पूरी जिम्मेदारी ली थी. इसके बावजूद 1999 से अब तक कोई राशि केंद्र सरकार ने नहीं दी है. राज्य सरकार गैस पीड़ितों पर 250 करोड़ रुपए खर्च कर चुकी है. राज्य सरकार ने 982 करोड़ रुपए की कार्य योजना केंद्र को भेजी है जो मंजूर की जानी चाहिए. उन्होंने कहा कि राज्य सरकार एक स्मारक भी बनाना चाहती है. इसके लिए राज्य सरकार ने 11 करोड़ रुपए भी मंजूर किए हैं.

बहरहाल अफसोस की बात तो यह है कि इतना बड़ा हादसा होने के बाद इसके ज़िम्मेदारों को कोई सजा नहीं मिली सज़ा तो दूर इस हादसे से प्रभावित हुए लोगों की सही न्याय भी नहीं मिला. जबकि इस हादसे में सबसे ज़्यादा प्रभावित ऐसे लोग थे जो रोज़ कुआ खोदने और रोज़ पानी पीने का काम किया करते थे. काफ़ी विरोध के बाद 1992 में भोपाल की एक अदालत ने वारेन एंडरसन के खिलाफ वारंट जारी कर सीबीआई से इस मामले में कार्यवाही करने को कहा था. 2001 से यूनियन कार्बाइड पर मालिकाना डाओ केमिकल्स अमेरिका का है जिसने अभी तक कारखाना परिसर से जहरीला रासायनिक कचरा हटाने में भी कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई. और आज भी 25 वर्षों से गैस पीड़ित इस ज़ख्म के साथ दर्द भरा जीवन जीने को मजबूर है और मरहम को तरस रहे हैं इसे हमारे देश की विडम्बना कहें या फिर इस देश के निवासियों का दुर्भाग्य, सरकार 11 करोड़ रुपये खर्च कर स्मारक बनाने की बात तो करती है लेकिन भ्रष्टाचार में डूबे सरकारी तंत्र में सुधार लाकर वास्तविक गैस पीड़ितों न्याय दिलाने की दिशा में कोई सकारात्मक कदम नहीं उठा सकती.