April 23, 2010

नित्यानंद को मारी चप्पल (आपकी क्या राय है)


चप्पल अब विरोध का प्रतीक बन गई है. बुश, चिदंबरम और कई दूसरी नामी हस्तियों के बाद आज नित्यानंद को को चप्पल मारी गई. गिरफ्तार नित्यानंद को मजिस्ट्रेट हाउस से पेशी के बाद जेल ले जाते वक्त श्रीनिवास नामक एक शख्स ने नित्यानद पर चप्पल फेंक पर हमला किया. पुलिस ने श्रीनिवास को भी गिरफतार कर लिया है. उसके चप्पल मारने के कारणों का खुलासा नहीं हुआ है. लेकिन आम जन की भावनाओं के साथ खिलवाड करने वाले ढोंगी बाबाओं के साथ अगर ऐसा सलूक किया जाए तो कोई गलत न होगा.

April 22, 2010

कैसे बचाएं अपनी वसुंधरा ? (विश्व पृथ्वी दिवस पर विशेष)


(कमल सोनी)>>>> आज पूरे विश्व में विश्व वसुंधरा दिवस यानि विश्व पृथ्वी दिवस मनाया जा रहा है. इसे पहली बार अप्रैल 1970 में इस उद्देश्य से मनाया गया था कि लोगों को पर्यावरण के प्रति संवेदनशील बनाया जा सके. इसमें कोई संदेह नहीं है कि अमेरिका के पूर्व उपराष्ट्रपति अल गोर की पुस्तक 'इनकन्वीनिएंट ट्रुथ' और 2007 में उन्हें संयुक्त राष्ट्र के आईपीसीसी के साथ संयुक्त रूप से मिले नोबेल पुरस्कार ने इस ओर जागरूकता बढ़ाने में मदद की है. अक्सर यह समाचार सुनने को मिलते हैं कि उत्तरी ध्रुव की ठोस बर्फ कई किलोमीटर तक पिघल गई है. सूर्य की पराबैगनी किरणों को पृथ्वी तक आने से रोकने वाली ओजोन परत में छेद हो गया है. इसके अलावा फिर भयंकर तूफान, सुनामी और भी कई प्राकृतिक आपदों की खबरें आप तक पहुँचती हैं, हमारे पृथ्वी ग्रह पर जो कुछ भी हो रहा है? इन सभी के लिए मानव ही जिम्मेदार हैं, जो आज ग्लोबल वार्मिग के रूप में हमारे सामने हैं. धरती रो रही है. निश्चय ही हम ही दोषी हैं. भविष्य की चिंता से बेफिक्र हरे वृक्ष काटे गए. इसका भयावह परिणाम भी दिखने लगा है. सूर्य की पराबैगनी किरणों को पृथ्वी तक आने से रोकने वाली ओजोन परत का इसी तरह से क्षरण होता रहा तो वह दिन दूर नहीं जब पृथ्वी से जीव-जन्तु व वनस्पति का अस्तिव ही समाप्त हो जाएगा. जीव-जन्तु अंधे हो जाएंगे. लोगों की त्वचा झुलसने लगेगी और त्वचा कैंसर रोगियों की संख्या बढ़ जाएगी. समुद्र का जलस्तर बढ़ने से तटवर्ती इलाके चपेट में आ जाएंगे.

विश्व पृथ्वी दिवस और उसका इतिहास :- पृथ्वी दिवस, 22 अप्रैल को मनाया जाता है, यह एक दिवस है जिसे पृथ्वी के पर्यावरण के बारे में प्रशंसा और जागरूकता को प्रेरित करने के लिए डिजाइन किया गया है. इसकी स्थापना अमेरिकी सीनेटर जेराल्ड नेल्सन के द्वारा 1970 में एक पर्यावरण शिक्षा के रूप में की गयी, और इसे कई देशों में प्रति वर्ष मनाया जाता है. यह तारीख उत्तरी गोलार्द्ध में वसंत और दक्षिणी गोलार्द्ध में शरद का मौसम है. संयुक्त राष्ट्र में पृथ्वी दिवस को हर साल मार्च एक्विनोक्स (वर्ष का वह समय जब दिन और रात बराबर होते हैं) पर मनाया जाता है, यह अक्सर 20 मार्च होता है, यह एक परम्परा है जिसकी स्थापना शांति कार्यकर्ता जॉन मक्कोनेल के द्वारा की गयी. सितम्बर 1969 में सिएटल, वाशिंगटन में एक सम्मलेन में विस्कोंसिन के अमेरिकी सीनेटर जेराल्ड नेल्सन घोषणा की कि 1970 की वसंत में पर्यावरण पर राष्ट्रव्यापी जन साधारण प्रदर्शन किया जायेगा. सीनेटर नेल्सन ने पर्यावरण को एक राष्ट्रीय एजेंडा में जोड़ने के लिए पहले राष्ट्रव्यापी पर्यावरण विरोध की प्रस्तावना दी."यह एक जुआ था," वे याद करते हैं "लेकिन इसने काम किया." जानेमाने फिल्म और टेलिविज़न अभिनेता एड्डी अलबर्ट ने पृथ्वी दिवस, के निर्माण में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभायी. हालांकि पर्यावरण सक्रियता का सन्दर्भ में जारी इस वार्षिक घटना के निर्माण के लिए अलबर्ट ने प्राथमिक और महत्वपूर्ण कार्य किये, जिसे उसने अपने सम्पूर्ण कार्यकाल के दौरान प्रबल समर्थन दिया, लेकिन विशेष रूप से 1970 के बाद, एक रिपोर्ट के अनुसार पृथ्वी दिवस को अलबर्ट के जन्मदिन, 22 अप्रैल, को मनाया जाने लगा, एक स्रोत के अनुसार यह गलत भी हो सकता है. अलबर्ट को टीवी शो ग्रीन एकर्समें प्राथमिक भूमिका के लिए भी जाना जाता था, जिसने तत्कालीन सांस्कृतिक और पर्यावरण चेतना पर बहुमूल्य प्रभाव डाला.

पारिस्थितिकीय फ्लैग का निर्माण :- विश्व के ध्वजों के अनुसार, पारिस्थितिक ध्वज का निर्माण कार्टूनिस्ट रोन कोब्ब के द्वारा किया गया, और इसे 7 नवम्बर, 1969 को लोस एंजेलेस फ्री प्रेस में प्रकाशित किया गया, और फिर इसे सार्वजनिक डोमेन में रखा गया. यह प्रतीक "E" व "O" अक्षरों के संयोजन से बनाया गया था, जिन्हें क्रमशः "Environment" व "Organism" शब्दों से लिया गया था. इस झंडे का प्रतिरूप संयुक्त राज्य अमेरिकी ध्वज से लिया गया था और इसमें एक के बाद एक तेरह हरी और सफ़ेद धारियां थीं.
इसकी केंटन हरी थी और इसमें पीला थीटा था. बाद के ध्वजों में थीटा का उपयोग ऐतिहासिक रूप से या तो एक चेतावनी के प्रतीक के रूप में या शांति के प्रतीक के रूप में किया गया. थीटा बाद में पृथ्वी दिवस से सम्बंधित हो गया.

पृथ्वी दिवस नेटवर्क :- राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पर्यावरण नागरिकता और साल भर उन्नति को बढ़ावा देने के लिए 1970 में पृथ्वी दिवस नेटवर्क की स्थापना पहले पृथ्वी दिवस के आयोजकों के द्वारा की गयी. पृथ्वी दिवस के नेटवर्क के माध्यम से, कार्यकर्ता, राष्ट्रीय, स्थानीय और वैश्विक नीतियों में परिवर्तनों को आपस में जोड़ सकते हैं.अन्तराष्ट्रीय नेटवर्क 174 देशों में 17,000 संस्थानों तक पहुँच गया है, जबकि घरेलू कार्यक्रमों में 5,000 समूह और 25,000 से अधिक शिक्षक शामिल हैं, जो साल भर कई मिलियन समुदायों के विकास और पर्यावरण सुरक्षा कार्यकर्ताओं की मदद करते हैं

धरती खो रही है अपना प्राकृतिक रूप :- आज हमारी धरती अपना प्राकृतिक रूप खोती जा रही है. जहाँ देखों वहाँ कूड़े के ढेर व बेतरतीब फैले कचरे ने इसके सौंदर्य को नष्ट कर दिया है. विश्व में बढ़ती जनसंख्या तथा औद्योगीकरण एवं शहरीकरण में तेज़ी से वृध्दि के साथ-साथ ठोस अपशिष्ट पदार्थों द्वारा उत्पन्न पर्यावरण प्रदूषण की समस्या भी विकराल होती जा रही है. ठोस अपशिष्ट पदार्थों के समुचित निपटान के लिए पर्याप्त स्थान की आवश्यकता होती है. ठोस अपशिष्ट पदार्थों की मात्रा में लगातार वृध्दि के कारण उत्पन्न उनके निपटान की समस्या न केवल औद्योगिक स्तर पर अत्यंत विकसित देशों के लिए ही नहीं वरन कई विकासशील देशों के लिए भी सिरदर्द बन गई है. उदा. के लिए अकेले न्यूयार्क में प्रतिदिन 2500 ट्रक भार के बराबर ठोस अपशिष्ट पदार्थों का उत्पादन होता है, यहाँ प्रतिदिन 25,000 टन ठोस कचरा निकलता है. इस समय विश्व में प्रतिवर्ष प्लास्टिक का उत्पादन 10 करोड़ टन के लगभग है और इसमें प्रतिवर्ष उसे 4 प्रतिशत की वृध्दि हो रही है. भारत में भी प्लास्टिक का उत्पादन व उपयोग बड़ी तेजी से बढ़ रहा है. औसतन प्रत्येक भारतीय के पास प्रतिवर्ष आधा किलो प्लास्टिक अपशिष्ट पदार्थ इकट्ठा हो जाता है. इसका अधिकांश भाग कूड़े के ढेर पर और इधर-उधर बिखर कर पर्यावरण प्रदूषण फैलाता है. एक अनुमान के अनुसार केवल अमेरिका में ही एक करोड़ किलोग्राम प्लास्टिक प्रत्येक वर्ष कूड़ेदानों में पहुंचता है. इटली में प्लास्टिक के थैलों की सालाना खपत एक खरब है. इटली आज सर्वाधिक प्लास्टिक उत्पादक देशों में से एक है.

पर्यावरण में जहर घोल रहा पॉलीथीन :- आधुनिक युग में सुविधाओं के विस्तार ने सबसे अधिक पर्यावरण को ही चोट पहुंचाई. लोगों की सुविधा के लिए इजाद की गई पॉलीथीन आज मानव जाति के लिए सबसे बड़ा सिरदर्द बन गई है. नष्ट न होने के कारण यह भूमि की उर्वरक क्षमता को खत्म कर रही है. यह भूजल स्तर को घटा रही है और उसे जहरीला बना रही है. पॉलीथीन को जलाने से निकलने वाला धुआं ओजोन परत को भी नुकसान पहुंचा रहा है, जो ग्लोबल वार्मिग का बड़ा कारण है. पॉलीथीन कचरे से देश में प्रतिवर्ष लाखों पशु-पक्षी मौत का ग्रास बन रहे हैं. लोगों में तरह-तरह की बीमारियां फैल रही हैं, जमीन की उर्वरा शक्ति नष्ट हो रही है तथा भूगर्भीय जलस्रोत दूषित हो रहे हैं. प्लास्टिक के ज्यादा संपर्क में रहने से लोगों के खून में थेलेट्स की मात्रा बढ़ जाती है. इससे गर्भवती महिलाओं के गर्भ में पल रहे शिशु का विकास रुक जाता है और प्रजनन अंगों को नुकसान पहुंचता है. प्लास्टिक उत्पादों में प्रयोग होने वाला बिस्फेनॉल रसायन शरीर में डायबिटीज व लिवर एंजाइम को असामान्य कर देता है. पॉलीथीन कचरा जलाने से कार्बन डाईऑक्साइड, कार्बन मोनोऑक्साइड एवं डाईऑक्सीन्स जैसी विषैली गैसें उत्सर्जित होती हैं. इनसे सांस, त्वचा आदि की बीमारियां होने की आशंका बढ़ जाती है. इन थैलों का अधिक इस्तेमाल करके हम न सिर्फ पर्यावरण को नुकसान पहुंचा रहे है, बल्कि गंभीर रोगों को भी न्यौता दे रहे है. इन्हे यूं ही फेंक देने से नालियां जाम हो जाती है. इससे गंदा पानी सड़कों पर फैलकर मच्छरों का घर बनता है. इस प्रकार यह कालरा, टाइफाइड, डायरिया व हेपेटाइटिस-बी जैसी गंभीर बीमारियों का भी कारण बनते है.
भारत में प्रतिवर्ष लगभग 500 मीट्रिक टन पॉलीथिन का निर्माण होता है, लेकिन इसके एक प्रतिशत से भी कम की रीसाइकिलिंग हो पाती है. अनुमान है कि भोजन के धोखे में इन्हे खा लेने के कारण प्रतिवर्ष 1,00,000 समुद्री जीवों की मौत हो जाती है. इनको निगलने से मवेशियों की मौत की खबरें तो तुमने भी पढ़ी-सुनी होंगी. जमीन में गाड़ देने पर पॉलीथिन थैले अपने अवयवों में टूटने में 1,000 साल से अधिक ले लेती है. यह पूर्ण रूप से तो कभी नष्ट होते ही नहीं हैं. यहाँ तक कि जिन पॉलीथिन के थैलों पर बायोडिग्रेडेबल लिखा होता है, वे भी पूर्णतया इकोफ्रेंडली नहीं होते है.

ग्लोबल वार्मिग :- पृथ्वी के औसत तापमान में वृद्धि ही ग्लोबल वार्मिग कहलाता है. वैसे, पृथ्वी के तापमान में बढोत्तरी की शुरुआत 20वीं शताब्दी के आरंभ से ही हो गई थी. माना जाता है कि पिछले सौ सालों में पृथ्वी के तापमान में 0.18 डिग्री की वृद्धि हो चुकी है. वैज्ञानिकों का मानना है कि यदि धरती का टेम्परेचर इसी तरह बढता रहा, तो 21वीं सदी के अंत तक 1.1-6.4 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान बढ जाएगा. हमारी पृथ्वी पर कई ऐसे केमिकल कम्पाउंड पाए जाते हैं, जो तापमान को बैलेंस करते हैं. ये ग्रीन हाउस गैसेज कहलाते हैं. ये प्राकृतिक और मैनमेड (कल-कारखानों से निकले) दोनों होते है. ये हैं- वाटर वेपर, मिथेन, कार्बन डाईऑक्साइड, नाइट्रस ऑक्साइड आदि. जब सूर्य की किरणें पृथ्वी पर पडती हैं, तो इनमें से कुछ किरणें (इंफ्रारेड रेज) वापस लौट जाती हैं. ग्रीन हाउस गैसें इंफ्रारेड रेज को सोख लेती हैं और वातावरण में हीट बढाती हैं. यदि ग्रीन हाउस गैस की मात्रा स्थिर रहती है, तो सूर्य से पृथ्वी पर पहुंचने वाली किरणें और पृथ्वी से वापस स्पेस में पहुंचने वाली किरणों में बैलेंस बना रहता है, जिससे तापमान भी स्थिर रहता है. वहीं दूसरी ओर, हम लोगों (मानव) द्वारा निर्मित ग्रीन हाउस गैस असंतुलन पैदा कर देते हैं, जिसका असर पृथ्वी के तापमान पर पडता है. यही ग्रीन हाउस इफेक्ट कहलाता है. दरअसल, पृथ्वी के तापमान को स्थिर रखने के लिए दशकों पूर्व काम शुरू हो गया था. लेकिन मानव निर्मित ग्रीन हाउस गैसों के उत्पादन में कमी लाने के लिए दिसंबर 1997 में क्योटो प्रोटोकोल लाया गया. इसके तहत 160 से अधिक देशों ने यह स्वीकार किया कि उनके देश में ग्रीन हाउस गैसों के प्रोडक्शन में कमी लाई जाएगी. आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि 80 प्रतिशत से अधिक ग्रीन हाउस गैस का उत्पादन करने वाले अमेरिका ने अब तक इस प्रोटोकोल को नहीं माना है.

मौसम चक्र हुआ अनियमित :- आज धरती पर हो रहे जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेदार कोई और नहीं बल्कि समस्त मानव जाति है. सुविधाभोगी जीवन शैली में सामाजिक सरोकारों को पीछे छोड़ दिया है. जैसे-जैसे हम विकास के सोपान चढ़ रहे हैं वैसे-वैसे पृथ्वी पर नए-नए खतरे उत्पन्न हो रहे हैं. दिन-प्रतिदिन घटती हरियाली व बढ़ता पर्यावरण प्रदूषण रोज नई समस्याओं को जन्म दे रहा है. इस कारण प्रकृति का मौसम चक्र भी अनियमित हो गया है. अब सर्दी, गर्मी और वर्षा का कोई निश्चित समय नहीं रह गया. हर वर्ष तापमान में हो रही वृद्धि से बारिश की मात्रा कम हो रही है. इस कारण भू जल स्तर में भारी कमी आई है. अगर समय रहते कोई उपाय नहीं किए तो समस्याएं इतना विकराल रूप धारण कर लेंगी. इसलिए सभी को एकजुट होकर पृथ्वी को बचाने के उपाय करने होंगे. इसमें प्रशासन, सामाजिक संगठन, स्कूल, कालेज सहित सभी को इसमें भागीदारी निभानी होगी.

क्या करें :-
1. बाजार जाते समय साथ में कपड़े का थैला, जूट का थैला या बॉस्केट ले जाएं.
2. हम प्रत्येक सप्ताह कितने पॉलीथिन थैलों का इस्तेमाल करते हैं, इसका हिसाब रखें और इस संख्या को कम से कम आधा करने का लक्ष्य बनाएं.
3. यदि पॉलीथिन थैले के इस्तेमाल के अलावा कोई और विकल्प न बचे तो एक सामान को एक पॉलीथिन थैले में रखने के स्थान पर कई सामान एक ही थैले में रखने की कोशिश करे.
4. घर पर पॉलीथिन थैलों का काफी उपयोग किया जाता है. जैसे लंच पैक करना, कपड़े रखना या कोई अन्य घरेलू सामान रखना, इनमें से कुछ को कम करने का प्रयास करे.
5. पॉलीथिन के थैलों से जितना बच सकते है, बचें. पॉलीथिन के थैलों को एक बार इस्तेमाल कर फेंकने के स्थान पर उनका पुन: प्रयोग करने का प्रयास करे.
6. स्थानीय अखबारों में चिट्ठिया लिखकर, स्कूल में पोस्टर के द्वारा या प्रजेंटेशन से इस मसले पर जागरुकता फैलाने का काम करे
7. आज के दिन पोलीथिन के उपयोग से बचें. बाजार जाते समय कप़ड़े का बेग साथ लें जाएँ. ऐसा कर आप पर्यावरण संरक्षण यज्ञ में छोटी ही सही, पर महत्वपूर्ण आहूति दे सकते हैं.
8. बच्चों को प्रोत्साहित करें कि वे अपने पुराने खिलौने तथा गेम्स ऐसे छोटे बच्चों को दे दें जो कि इसका उपयोग कर सकते हैं. एक तरह से यह रिसाइक्लिंग प्रक्रिया ही होगी क्योंकि एक तो आपके घर की सामग्री नष्ट होने से बच जाएगी, दूसरे जिसे वह मिलेगी उसे बाहर से पर्यावरण के लिए नुकसानदायक सामग्री खरीदनी नहीं पड़ेगी. इससे बच्चों में त्याग की भावना भी बलवती होगी. केवल बच्चों ही नहीं बड़े लोग भी अपने कपड़े, इलेक्ट्रॉनिक सामान तथा पुस्तकें भेंट कर सकते हैं.

चिंतन मनन का दिन :- विश्व पृथ्वी दिवस महज़ एक दिन मनाने का नहीं है. यह दिन है इस बात के चिंतन मनन का कि हम कैसे अपनी वसुंधरा को बचा सकते हैं ? ऐसे कई तरीके हैं जिसे हम अकेले और सामूहिक रूप से अपनाकर धरती को बचाने में योगदान दे सकते हैं. वैसे तो हमें हर दिन को पृथ्वी दिवस मानकर उसके संरक्षण के लिए कुछ न कुछ करते रहना चाहिए, लेकिन अपनी व्यस्तता में व्यस्त इंसान यदि विश्व पृथ्वी दिवस के दिन ही थो़ड़ा बहुत योगदान दे तो धरती के ऋण को उतारा जा सकता है. हम सभी जो कि इस स्वच्छ श्यामला धरा के रहवासी हैं उनका यह दायित्व है कि दुनिया में कदम रखने से लेकर आखिरी साँस तक हम पर प्यार लुटाने वाली इस धरा को बचाए रखने के लिए जो भी सकें करें क्योंकि यह वही धरती है जो हमारे बाद भी हमारी निशानियों को अपने सीने से लगाकर रखेगी. लेकिन यह तभी संभव होगा जब वह हरी-भरी तथा प्रदूषण से मुक्त रहे और उसे यह उपहार आप ही दे सकते हैं. तो हर दिन को पृथ्वी दिवस मानें और आज से ही नहीं अभी से ही करें इसे बचाने के प्रयास करे.


April 17, 2010

'विश्व धरोहर दिवस' (18 अप्रैल विशेष)

* ऐतिहासिक महत्त्व को समझाता 'विश्व धरोहर दिवस'
(कमल सोनी)>>>> 18 अप्रैल को पूरे विश्व में विश्व धरोहर दिवस मनाया जाता है. इस दिवस को मानाने का मुख्य उद्देश्य भी यहे है कि पूरी दुनिया में ऐतिहासिक महत्व की धरोहरों के संरक्षण के प्रति जागरूकता लाइ जा सके. धरोहर अर्थात मानवता के लिए अत्यंत महत्व की जगह, जो आगे आने वाली पीढि़यों के लिए बचाकर रखी जाएँ, उन्हें विश्व धरोहर स्थल के रूप में जाना जाता है. ऐसे महत्वपूर्ण स्थलों के संरक्षण की पहल यूनेस्को ने की थी. जिसके बाद एक अंतर्राष्ट्रीय संधि जो कि विश्व सांस्कृतिक और प्राकृतिक धरोहर संरक्षण की बात करती है के 1972 में लागू की गई. तब विश्व भरा के धरोहर स्थलों को मुख्यतः तीन श्रेणियों में शामिल किया गया. पहला प्राकृतिक धरोहर स्थल, दूसरा सांस्कृतिक धरोहर स्थल और तीसरा मिश्रित धरोहर स्थल. इनके बारे में हम आगे बात करेंगे. लेकिन पहले यह जन लें कि विश्व धरोहर दिवस की शुरुआत कब हुई. विश्व धरोहर दिवस की शुरुआत 18 अप्रैल 1982 को हुई थी जब इकोमास संस्था ने टयूनिशिया में अंतरराष्ट्रीय स्मारक और स्थल दिवस का आयोजन किया. इस कार्यक्रम में कहा गया कि दुनियाभर में समानांतर रूका से इस दिवस का आयोजन होना चाहिए. इस विचार का यूनेस्को के महासम्मेलन में भी अनुमोदन कर दिया गया और नवम्बर 1983 से 18 अप्रैल को विश्व धरोहर दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की गई.

विश्व धरोहरों में भारत महत्वपूर्ण स्थान पर :- विश्व धरोहरों के मामले में भारत का दुनिया में महत्वपूर्ण स्थान है और यहां के ढाई दर्जन से अधिक ऐतिहासिक स्थल, स्मारक और प्राचीन इमारतें यूनेस्को की विश्व धरोहर सूची में शामिल हैं. हर साल 18 अप्रैल को मनाया जाने वाला विश्व धरोहर दिवस 26 साल से निरंतर विश्व की अद्भुत, ऐतिहासिक और सांस्कृतिक धरोहरों के महत्व को दर्शाता रहा है. भारत की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक धरोहरों का जिक्र करें तो ऐसे बहुत से स्थानों का नाम जहन में आता है जिन्हें विश्व धरोहर सूची में महत्वपूर्ण स्थान हासिल है लेकिन मुहब्ब्त के प्रतीक ताजमहल और मुगलकालीन शिल्प की दास्तां बयान करने वाले दिल्ली के लालकिले ने इस सूची को भारत की ओर से और भी खूबसूरत बना दिया है. ताजमहल को पिछले वर्ष कराए गए एक विश्वव्यापी मतसंग्रह के दौरान दुनिया के सात अजूबों में अव्वल नंबर कार रखा गया था. विश्व धरोहर सूची में शामिल भारत की अजंता की गुफाएं 200 साल पूर्व की कहानी कहती नजर आती हैं लेकिन इतिहास के कान्नों में धीरे-धीरे ये भुला दी गईं और बाद में बाघों का शिकार करने वाली एक ब्रिटिश टीम ने इनकी फिर खोज की. विश्व धरोहर सूची में शामिल एलोरा की गुफाएं दुनिया भर को भारत की हिन्दू, बौध्द और जैन संस्कृति की कहानी बताती हैं. ये गुफाएं लोगों को 600 और 1000 ईस्वीं के बीच के इतिहास से रूबरू कराती हैं. भारत को विश्व धरोहर सूची में 14 नवंबर 1977 में स्थान मिला. तब से अब तक 27 भारतीय स्थलों को विश्व धरोहर स्थल के रूप में घोषित किया जा चुका है. इसके अलावा फूलों की घाटी को नंदा देवी राष्ट्रीय पार्क के एक भाग रूप में इस सूची में शामिल कर लिया गया है.

ऐतिहासिक दिल्ली :- दिल्ली की संस्कृति यहां के लंबे इतिहास और भारत की राजधानी रूप में ऐतिहासिक स्थिति से पूर्ण प्रभावित रहा है. यह शहर में बने कई महत्वपूर्ण ऐतिहासिक स्मारकों से विदित है. भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण विभाग ने दिल्ली शहर में लगभग 1200 धरोहर स्थल घोषित किए हैं, जो कि विश्व में किसी भी शहर से कहीं अधिक है. और इनमें से 175 स्थल राष्ट्रीय धरोहर स्थल घोषित किए हैं. पुराना शहर वह स्थान है, जहां मुगलों और तुर्क शासकों ने कई स्थापत्य के नमूने खडए किए हैं, जैसे जामा मस्जिद (भारत की सबसे बड़ी मस्जिद) और लाल किला. दिल्ली में फिल्हाल तीन विश्व धरोहर स्थल हैं – लाल किला, कुतुब मीनार और हुमायुं का मकबरा. अन्य स्मारकों में इंडिया गेट, जंतर मंतर (१८वीं सदी की खगोलशास्त्रीय वेधशाला), पुराना किला (१६वीं सदी का किला). बिरला मंदिर, अक्षरधाम मंदिर और कमल मंदिर आधुनिक स्थापत्यकला के उदाहरण हैं.

आगरा का किला :- आगरा का किला एक यूनेस्को घोषित विश्व धरोहर स्थल है, जो कि भारत के उत्तर प्रदेश राज्य के आगरा शहर में स्थित है। इसे लाल किला भी कहा जाता है। इसके लगभग 2.5 कि.मी. उत्तर-पश्चिम में ही, विश्व प्रसिद्ध स्मारक ताज महल स्थित है। इस किले को चहारदीवारी से घिरी प्रासाद (महल) नगरी कहना बेहतर होगा। यह भारत का सबसे महत्वपूर्ण किला है। भारत के मुगल सम्राट बाबर, हुमायुं, अकबर, जहांगीर, शाहजहां व औरंगज़ेब यहां रहा करते थे, व यहीं से पूरे भारत पर शासन किया करते थे। यहां राज्य का सर्वाधिक खजाना, सम्पत्ति व टकसाल थी। यहां विदेशी राजदूत, यात्री व उच्च पदस्थ लोगों का आना जाना लगा रहता था, जिन्होंने भारत के इतिहास को रचा।

साँची का स्तूप :- सांची भारत के मध्य प्रदेश राज्य के रायसेन जिले, में स्थित एक छोटा सा गांव है। यह भोपाल से ४६ कि.मी. पूर्वोत्तर में, तथा बेसनगर और विदिशा से १० कि.मी. की दूरी पर मध्य-प्रदेश के मध्य भाग में स्थित है। यहां कई बौद्ध स्मारक हैं, जो तीसरी शताब्दी ई.पू से बारहवीं शताब्दी के बीच के काल के हैं। सांची में रायसेन जिले की एक नगर पंचायत है। यहीं एक महान स्तूप स्थित है। इस स्तूप को घेरे हुए कई तोरण भी बने हैं। यह प्रेम, शांति, विश्वास और साहस के प्रतीक हैं। सांची का महान मुख्य स्तूप, मूलतः सम्राट अशोक महान ने तीसरी शती, ई.पू. में बनवाया था। इसके केन्द्र में एक अर्धगोलाकार ईंट निर्मित ढांचा था, जिसमें भगवान बुद्ध के कुछ अवशेष रखे थे। इसके शिखर पर स्मारक को दिये गये ऊंचे सम्मान का प्रतीक रूपी एक छत्र था।

विश्व धरोहर में शामिल हो सकता है मध्यप्रदेश का भोजपुर शिवालय :- भोजपुर के शिव मंदिर का नाम जल्दी ही वर्ल्‍ड हेरिटेज में जुड़ सकता है. अगर ऐसा होता है, तो मध्‍यप्रदेश और भारत की कीर्ति में भी वृद्धि होगी. अब जबकि भोजपुर के शिव मंदिर को भी विश्व धरोहर में शामिल करने की कवायद तेज हो चली है, ऐसे में अगर यूनेस्को की मुहर इस पर लग जाती है, तो रायसेन जिला विश्व का एकमात्र ऐसा जिला होगा, जिसमें तीन विश्व धरोहरें होंगी. चंदेल वंश के राजा भोज द्वारा ग्यारहवीं शताब्दी में निर्मित भोजपुर का शिव मंदिर एक ऐतिहासिक धरोहर है. भोजपुर मंदिर की देखरेख कर रहे पुरातत्व अधिकारियों द्वारा 29 जनवरी को एक प्रस्ताव तैयार कर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई), नई दिल्ली को भेजा गया है. इसमें प्रमुख रूप से इस बात को दर्शाया गया है कि इस तरह का अनूठा शिव मंदिर विश्‍व में इकलौता है. इतना विशाल शिवलिंग दुनिया भर में कहीं नहीं है. शिव मंदिर में रोजाना औसतन तीन से चार हजार पर्यटक एवं श्रद्धालु दर्शन के लिए आते है. छुट्टी के दिन यह तादाद बढ़ कर पांच हजार तक हो जाती है. भोजपुर का शिव मंदिर अगर विश्व धरोहर में शामिल हो जाता है, तो रायसेन जिले का नक्‍शा ही बदल जायगा क्योंकि जिले में दो विश्व धरोहर पूर्व से ही मौजूद हैं. इसमें सांची एंव भीमबैठका के जिले में स्थित होने के कारण विश्‍व पटल पर अपनी अलग पहचान कायम करने वाले रायसेन जिले के राजस्व में बढ़ोतरी होगी. वर्ल्‍ड हेरिटेज में भोजपुर शिवालय को शामिल कराए जाने के प्रयासों के मद्देनजर मंदिर के आस-पास अतिक्रमण को हटाया जाएगा.

ग्‍यारहवीं शताब्‍दी में हुआ निर्माण :- महाभारत में वर्णित पवित्र वेतवा नदी के तट पर स्थित इस मंदिर का निर्माण ग्यारहवीं शताब्‍दी में चंदेश राजा भोज ने कराया था. विश्व में सर्वाधिक विशालकाय इस शिवलिंग की ऊचांई लगभग 22 फीट और जलेहरी 12X12 फीट की आंकी गई है. 600 फीट लंबाई का मिट्टी से निर्मित रपटा, जो मंदिर से सटा हुआ है, अब तक पूर्ण रूप से सुरक्षित है. उत्‍कीर्ण चट्टानें दुनिया भर में केवल इस मंदिर के अंदर है, जिनमें मंदिर निर्माण के समय का मंदिर का डिजाईन मंदिर के अंदर चट्टान पर अब भी स्पष्‍ट दिखाई देता है. इतना विशाल शिवलिंग भारत ही नहीं, वल्कि दुनिया में भी कहीं नहीं है.

धरोहरों की श्रेणियाँ :- विश्व की धरोहरों को मुख्यतः तीन श्रेणियों में बांटा गया है. पहला प्राकृतिक धरोहर स्थल, दूसरा सांस्कृतिक धरोहर स्थल और तीसरा मिश्रित धरोहर स्थल.

(१) प्राकृतिक धरोहर स्थल - ऐसी धरोहर भौतिक या भौगोलिक प्राकृतिक निर्माण का परिणाम या भौतिक और भौगोलिक दृष्टि से अत्यंत सुंदर या वैज्ञानिक महत्व की जगह या भौतिक और भौगोलिक महत्व वाली यह जगह किसी विलुप्ति के कगार पर खड़े जीव या वनस्पति का प्राकृतिक आवास हो सकती है.

(२) सांस्कृतिक धरोहर स्थल - इस श्रेणी की धरोहर में स्मारक, स्थापत्य की इमारतें, मूर्तिकारी, चित्रकारी, स्थापत्य की झलक वाले, शिलालेख, गुफा आवास और वैश्विक महत्व वाले स्थान; इमारतों का समूह, अकेली इमारतें या आपस में संबद्ध इमारतों का समूह; स्थापत्य में किया मानव का काम या प्रकृति और मानव के संयुक्त प्रयास का प्रतिफल, जो कि ऐतिहासिक, सौंदर्य, जातीय, मानवविज्ञान या वैश्विक दृष्टि से महत्व की हो, शामिल की जाती हैं.

(३) मिश्रित धरोहर स्थल - इस श्रेणी के अंतर्गत् वह धरोहर स्थल आते हैं जो कि प्राकृतिक और सांस्कृतिक दोनों ही रूपों में महत्वपूर्ण होती हैं.

यूनेस्को द्वारा स्वीकृत भारत के विश्व धरोहर स्थल :- भारत को विश्व धरोहर सूची में 14 नवंबर 1977 में स्थान मिला. तब से अब तक २७ भारतीय स्थलों को विश्व धरोहर स्थल के रूप में घोषित किया जा चुका है. आने वाले समय में कुछ और धरोहरों को विश्व धरोहार की सूची में स्थान मिल सकता है.

<<>> आगरे का किला, उत्तर प्रदेश
<<>> अजंता की गुफाएँ, महाराष्ट्र
<<>> साँची के बौद्ध स्तूप, मध्य प्रदेश
<<>> चंपानेर पावागढ का पुरातत्व पार्क, गुजरात
<<>> छत्रपति शिवाजी टर्मिनस, महाराष्ट्र
<<>> गोवा के पुराने चर्च गोवा
<<>> एलीफैन्टा की गुफाएँ, महाराष्ट्र
<<>> एलोरा की गुफाएँ, महाराष्ट्र
<<>> फतेहपुर सीकरी, उत्तर प्रदेश
<<>> चोल मंदिर, तमिलनाडु
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April 12, 2010

राईट टू एजुकेशन: क्या बच्चों को दिला पायेगा शिक्षा का अधिकार ?


* पैसा आया आड़े, राज्यों ने फैलाए हाथ ?
(कमल सोनी)>>>> चाहे केन्द्र सरकार हो या राज्य सरकारें एक तरफ तो शिक्षा के लिए धन की कमी नहीं आने देने के बात कहती हैं तो दूसरी तरफ राईट टू एजुकेशन क़ानून को लागू करने में धन के अभाव की बात कहते हुए केन्द्र और राज्य सरकारे आमने सामने खादी है. राईट टू एजुकेशन एक्ट 1 अप्रैल से पूरे भारत में लागू तो हो गया. साथ ही शिक्षा का अधिकार अधिनियम लागू होने के बाद भारत उन 130 से अधिक देशों की सूची में शामिल भी हो गया है, जो बच्चों को नि:शुल्क और आवश्यक शिक्षा उपलब्ध कराने की कानूनी गारंटी प्रदान करते हैं. लेकिन अब सरकार के सामने नई चुनौतियां सामने आने लगीं हैं. देश के राज्यों ने पैसे का आभाव बताते हुए केंद्र के सामने अरबों रुपये की मांग कर दी है. मध्यप्रदेश समेत देश के ११ राज्यों ने केन्द्र से पैसों की मांग की है. परिणामस्वरूप केन्द्र सरकार को इस क़ानून को लागू करवाने में पसीना आ रहा है. वैसे भी शिक्षा अधोसंरचना में कमी सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती है लेकिन राज्यों का केन्द्र के सामने हाथ फैलाना राईट टू एजुकेशन एक्ट की रह में रोडे अटका रहा है. हालांकि सभी राज्य सरकारें इस क़ानून को लागू करवाने के लिए केंद्र सरकार के साथ होने के बात कर रही हैं लेकिन धन का आभाव बताते हुए असमर्थता भी व्यक्त कर रही हैं. राज्यों का कहना है कि इस कानून को लागू करने में होने वाले खर्च में केन्द्र अपना प्रस्तावित हिस्सा ५५ प्रतिशत से बढ़ाकर ७५-९० प्रतिशत के बीच रखे. बिहार का तो यह कहना है कि केन्द्र शत प्रतिशत राशि वाहन करे. एक अनुमान के मुताबिक़ इस ऐतिहासिक क़ानून को लागू करने में आने वाले पांच सालों में १.७१ लाख करोड रुपये का खर्च आएगा. यहे मुख्य वजह है कि राज्य सरकारों ने केन्द्र के सामने हाथ फैलाये हैं.

क्या हैं चुनौतियां :- क्या सिर्फ कानून बन जाने से देश भर के बच्चों की मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का रास्ता तय हो जाएगा ? निश्चित रूप से नहीं. और फिर यदि देश में कानून बनाने और उसके अमल करने के इतिहास पर गौर करें तो भय सिर्फ इसी बात का लगता है कि कहीं यह क़ानून भी कागजों में ही न रह जाए. शिक्षा का अधिकार कानून लागू होते ही सरकार के सामने नई नई चुनौतियां है. 1५ लाख नए शिक्षकों की भर्ती, नए स्कूल बनाना, स्कूलों में क्लासरूम बढ़ाना, शिक्षकों को प्रशिक्षण देना, निजी स्कूलों के लिए क़ानून को सख्ती से लागू करना. देश के दूर दराज़ के इलाके जहां शिक्षा का परिदृश्य और वहा की जमीनी हकीकत किसी से छिपी नहीं हैं वहाँ क़ानून का सख्ती से पालन करवाना. अपने आप में किसी चुनौती से कम नहीं है. इतना ही नहीं दूर दराज़ के क्षेत्रों की शालाओं में शिक्षकों की अनुपस्थिति, अभिभावकों की उदासीनता, सही पाठय़क्रम का अभाव, अध्यापन में खामियां, अव्यवस्था, भ्रष्टाचार इत्यादि कई खामियां है जो राईट टू एजुकेशन एक्ट के अमल में रोडे अटका सकती हैं. भले ही प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने यह कह दिया हो कि 'सब हो जाएगा और कानून के अमल में धन की कमी आड़े नहीं आने दी जाएगी' लेकिन यकीन जाने तो चुनौतियों की सूची बहुत लंबी है. और फिर शिक्षा के लिए बजट में इतना प्रावधान करना सरकार भी सरकार के लिए इतना आसान नहीं होगा.

सरकार ने भी स्वीकारी चुनौतिया :- अब एक अहम सवाल यह उठता है कि क्या यह कानून वास्तव में हर बच्चे को शिक्षा का अधिकार दिला पायेगा ? राईट टू एजुकेशन एक्ट महज़ लागू कर देना ही काफी नहीं है. सरकार के समक्ष इसके अमल का असली इम्तिहान तो अब शुरू हो गया है. स्वयं मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल भी इसे बड़ी चुनौती माना है. उन्होंने कहा, 'सभी को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देना बड़ी चुनौती है. इसीलिए अब हर राज्य के शिक्षा सचिवों को अलग-अलग बुला कर उनसे मशविरा किया जाएगा.' केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल का दावा तो यह है कि इससे देश के करीब एक करोड़ बच्चों को फायदा होगा. उनके अनुसार इससे छह से 14 वर्ष के बीच की उम्र के इन बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा पाने का अधिकार मिल जाने से शिक्षा हासिल करके अपनी और अपने परिवार की गरीबी दूर करने और विकास की मुख्यधारा में शामिल हो पाने का नया अवसर मिलेगा. मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 को लागू करने की जिम्मेदारी केंद्र और राज्य सरकारों के अलावा न्यायपालिका और शैक्षिक प्रशासन की भी होगी.

क्या कह रहे हैं राज्य :-

राजस्थान :- प्रमुख सचिव स्कूल शिक्षा डॉ. ललित पवारने कहा कि राज्य धनराशी की भागीदारी में ७५:२५ की भागीदारी चाहता है.
गुजरात :- शिक्षामंत्री रमनलाल वोरा ने कहा कि राज्यों को फंडिग में ४५ प्रतिशत की भागीदारी के लिए कहने का कोई मतलब नहीं है, फंडिग ७५:२५ के अनुपात में होनी चाहिए.
महाराष्ट्र :-कानून को लागू करने के लिए तैयार है. राज्य में पर्याप्त संख्या में मानावाबल उपलब्ध है तथा यहाँ शिक्षको की कमी की कोई विशेष समस्या नहीं है. इससे ६ से १४ वर्ष की आयु के लगभग १.३७ लाख बच्चो को फ़ायदा मिलेगा जो कभी स्कूल नहीं गए है.
मध्यप्रदेश :- शिक्षा को अनिवार्य करने के लिए राज्य को १३ हजार करोड़ रुपये की आवश्यकता होगी. यह राशि केंद्र सरकार को बहन करनी चाहिए. प्रदेश में इसके लिए १.२५ लाख अतिरिक्त शिक्षको की भी जरुरत होगी.
तमिलनाडू :- स्कूल शिक्षा थंगम थेनारासु के अनुसार शिक्षको की कोई कमी नहीं है. राज्य को सिर्फ एक हजार और शिक्षको की आवश्यकता होगी.
अरुणाचल प्रदेश : शिक्षामंत्री बोसीराम सिराम के अनुसार अच्छे शिक्षको की कमी एक बड़ी समस्या है.
उतरप्रदेश :- मुख्यमंत्री मायावती ने केंद्र पर आरोप लगाया है. कि कानून को लागू करने के लिए धन की व्यवस्था न कर केंद्र इस कानून को लागू करने में व्यावहारिक दिक्कतों को अनदेखा कर रहा है. राज्य के वित्तीय हालात ऐसे नहीं है. कि कानून को लागू करने की लागत को वहन कर सके.
बिहार :- इस अधिनियम को लागू करने के लिए बिहार को ३.३० लाख और शिक्षको तथा १.८ लाख अतिरिक्त क्लासरुम्स की आवश्यकता होगे. मानव संसाधन मंत्री कानून को लागू करने के लिए राज्य को २० हजार करोड़ की जरुरत होगी.
पश्चिम बंगाल :- शिक्षा मंत्री पार्थ डे का कहना है कि हम केंद्र-राज्य में ७५:२५ अनुपात की भागीदारी चाहते है. सरकार एक लाख शिक्षको की भर्ती कर रही है तथा ५०% भर्ती हो चुकी है. निजी स्कूलों का रोना रोया कि हम उन्हें कोटा आरक्षण के लिए बाध्य नहीं कर सकते.
उडीसा :- स्कूल शिक्षा मंत्री प्रताप की मांग है कि फंडिंग ९०:१० के अनुपात में की जाए. इस कानून को लागू करने के लिए उड़ीसा को १६०० करोड़ रुपये की आवश्यकता होगी. उड़ीसा जैसा गरीब राज्य इस धनराशि को वहन नहीं कर सकता.
आन्ध्र प्रदेश :- राज्य के शिक्षा मंत्री डीएमवी प्रसाद राव ने कहा हम कानून लागू करने के लिए तैयार है. राज्य में शिक्षको की कोई कमी नहीं है क्योकि कुछ स्थानों में उनकी अधिकता है.

क्या है शिक्षा का अधिकार कानून :- भारत आज विश्व की एक प्रमुख आर्थिक महाशक्ति है. चीन के बाद सबसे तेज आर्थिक विकास दर हमारी है. हमारे यहाँ दुनिया का दूसरे नंबर का सबसे बड़ा और गतिशील व मजबूत उपभोक्ता बाजार मौजूद है. इन तमाम तमगों के बीच अशिक्षा हमारी एक बड़ी भयावह सच्चाई है. अब एक अप्रैल से देश के 6-14 आयुवर्ग के बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा देना कानूनी रुप से सरकार के लिए जरुरी हो जाएगा. यह सब कुछ संभव हो रहा है बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा के अधिकार एक्ट-2009 की वजह से. केंद्र सरकार ने इस बिल पर पिछले साल ही अपनी मुहर लगा दी थी और तय किया था कि एक अप्रैल 2010 को इसे पूरे देश में लागू कर दिया जाएगा. अनामांकित एवं शाला से बाहर बच्चों के लिए विशेष प्रशिक्षण की व्यवस्था भी की जायेगी. किसी भी बच्चे को कक्षा 8 तक फेल करने पर प्रतिबंध भी लगा दिया गया है. तो दूसरी और शिक्षा सत्र के दौरान कभी भी प्रवेश दिया जाएगा. यह कानून स्कूलों में शिक्षक और छात्रों के अनुपात को सुधारने की बात करता है. मसलन अभी कई स्कूलों में सौ-सौ बच्चों पर एक ही शिक्षक हैं. लेकिन इस कानून में प्रावधन है कि एक शिक्षक पर 40 से अधिक छात्र नहीं होंगे. शालाओं में बच्चों को शारीरिक दण्ड देने एवं मानसिक रूप से प्रताड़ित करना पूर्णत: प्रतिबंधित कर दिया गया है. इस कानून के अनुसार राज्य सरकारों को बच्चों की आवश्यकता का ध्यान रखते हुए लाइब्रेरी, क्लासरुम, खेल का मैदान और अन्य जरूरी चीज उपलब्ध कराना होगा. शिक्षकों का गैर शिक्षकीय कार्य में लगाना प्रतिबंधित कर दिया गया है. यानि अब शिक्षकों को गैर शिक्षकीय कार्यों में नहीं लगाया जायेगा. कानून के मुताबिक बिना मान्यता के किसी भी स्कूल का संचालन नहीं होगा.

क्या है क़ानून में कमियां :- शिक्षा विदों का कहना है कि इस कानून में 0-6 आयुवर्ग और 14-18 के आयुवर्ग के बीच के बच्चों की बात नहीं कई गई है. जबकि संविधान के अनुछेच्द 45 में साफ शब्दों में कहा गया है कि संविधान के लागू होने के दस साल के अंदर सरकार 0-14 वर्ग के आयुवर्ग के बच्चों को अनिवार्य और मुफ्त शिक्षा देगी. हालांकि यह आज तक नहीं हो पाया. वहीं अंतराष्ट्रीय बाल अधिकार समझौते के अनुसार 18 साल तक की उम्र तक के बच्चों को बच्चा माना गया है. जिसे 142 देशों ने भी स्वीकार किया है. भारत भी उनमें से एक है. ऐसे में 14-18 आयुवर्ग के बच्चों को शिक्षा की बात इस कानून में क्यों नहीं कई गई है ? वहीं दूसरी और इस कानून पर जानकारी के अभाव में असमंजस की स्थिति भी बनी हुई है. और कुछ सवाल हैं जिनके उत्तर उन्हें ढूंढे नहीं मिल रहे. जैसे स्कूल में किन बच्चों को मुफ्त में पढ़ाना है, इसका खर्च क्या सरकार देगी और देगी भी तो कैसे और कितना. २५ फीसदी बच्चों को मुफ्त शिक्षा देने का प्रावधान कानून में है तो क्या क्लास में बच्चों की संख्या बढ़ानी है या पहले की तरह ही यथावत रखनी है. ऐसे कई सवाल स्कूल संचालकों ने उठाए हैं. नए अधिनियम की जानकारी देने के लिए अब तक शिक्षा विभाग ने निजी स्कूल संचालकों को कोई पत्र नहीं लिखा है और ना ही मामले में कोई कार्यशाला का आयोजन किया है. लिहाजा स्कूल संचालक पशोपेश की स्थिति में है.

शिक्षा का अधिकार वाला भारत 135वां देश :- शिक्षा का अधिकार अधिनियम लागू होने के बाद भारत उन 130 से अधिक देशों की सूची में शामिल हो गया है, जो बच्चों को नि:शुल्क और आवश्यक शिक्षा उपलब्ध कराने की कानूनी गारंटी प्रदान करते हैं. वहीं दुनिया के सिर्फ 13 देश ही ऐसे हैं जहां पूरी तरह नि:शुल्क शिक्षा मिलती है. बच्चों को पंद्रह साल तक पूरी तरह नि:शुल्क शिक्षा मुहैया कराने के मामले में चिली सबसे शीर्ष स्थान पर है. यह देश छह से 21 साल की उम्र तक के बच्चों को पूरी तरह मुफ्त और आवश्यक शिक्षा मुहैया कराता है. शिक्षा के अधिकार को दुनियाभर में अहम मानव अधिकार के तौर पर मान्यता है. इसे सबसे पहले मानवाधिकार संबंधी सार्वभौम घोषणापत्र 1948 [यूनिवर्सल डिक्लरेशन आफ ह्यूमन राइट्स 1948] के तहत मान्यता मिली थी.

बहरहाल विश्व स्तर पर आज हमारा भारत देश हर तरह से संपन्न और प्रगतिशील माना जाता हैं. आज देश ने आकाश से बढ़कर ब्रह्माण्ड को छूने में कामयाबी हासिल की हैं. लेकिन इस पूरे प्रगतिशील दौर में आज भी देश में शिक्षा का स्तर पहले अधिक चिंताजनक बना हुआ है. आज भले ही हमारे पास हर एक किलोमीटर पर स्कूल और पाठशालाएं मौजूद हों लेकिन शिक्षा का स्तर लगातार गिरता रहा है. आज दौर में भले ही हमने ज्यादा से ज्यादा बच्चों को स्कूल में दाखिला दिला दिया हो लेकिन शिक्षा के पैमानों में इन बच्चों की स्थिति और भी अधिक चिंताजनक हो गई है. देश में सभी के लिए राईट टू एजुकेशन क़ानून भले ही लागू हो गया हो. लेकिन यह अधिकार महज़ कागजों पर ही सिमट कर ना रह जाए इसके लिए निश्चित रूप कई चुनौतियों का सामना करना होगा. आज राज्य सरकारों का पैसे का अभाव बताकर केन्द्र से राशि की मांग करना भले ही केन्द्र सरकार के पसीने निकाल रहा हो. लेकिन अब जब इस क़ानून को लागू कर ही दिया है. तो हर बच्चे को शिक्षा का अधिकार मिले इसके लिए हर चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा.