(कमल सोनी)>>>> एक ज़माना था जब बेटी के विवाह के बाद दुल्हन की खुशी के लिए दहेज दिया जाता था. लेकिन आज लडकी के माता-पिटा को उनकी हैसियत से ज़्यादा दहेज दिए जाने के लिए मजबूर किया जाने लगा है. इतना ही नहीं शादी के बाद भी ससुराल पक्ष और पति के द्वारा दुल्हन से दहेज की मांग की जाती रही है. मांग पूरी न कर पाने की स्तिथि में या तो बहू को ज़िंदा जला दिया जाता है या फिर ससुराल पक्ष से तंग आकर वह आत्महत्या कर लेती है क्योंकि हमारे समाज ने उस कन्या के लिए दूसरा कोई विकल्प छोड़ा ही नहीं. हर लडकी को यही तो सिखाया जाता है कि शादी के बाद उसकी ससुराल ही उसका घर है. दहेज एक ऐसी राक्षसी कुप्रथा है जिसने भारतीय जनता को संतृप्त, भयभीत, दुर्बल और रोगी बना छोड़ा है. दहेज के कारण सुन्दर से सुन्दर और योग्य से योग्य पुत्री का पिता भयभीत और चिन्तित है तथा जिसके कारण हर भारतीय का सिर लज्जा और ग्लानि से झुक जाता है. दहेज के अभाव में पिता को मन मारकर अपनी लक्ष्मी सरीखी़ बेटी को किसी बूढ़े, रोगी, अपंग, और पहले से ही विवाहित तथा कई सन्तान के पिता के हाथ सौंप देना पड़ता है. मूक गाय की तरह बेटी को यह सामाजिक अनाचार चुपचाप सहन करना पड़ता है. इसके अतिरिक्त केवल एक ही विकल्प उसके पास बच रहता है अपनी जीवन-लीला समाप्त कर दे. दहेज के इस दानव ने समाज में जाने कितनी फूल सी नारियों को असमय ही क्रूरतापूर्वक निगल लिया हे. कितनी लड़कियां आज निर्दयता पूर्वक दहेज के लोभी सास-ससुर द्वारा जलाई जा रहीं हैं. दहेज़ हर माता पिता के लिए परेशानी का सबब है जिनकी बेटियां ब्याह के योग्य है. सर्वगुण संम्पन्न होने के बाद भी मात्र दहेज़ की पूर्ति न होने के कारण या तो लड़कियां कुंवारी बैठी रहती है या फिर शादी के बाद आत्महत्या के जैसे कदम उठाने के लिए मजबूर हो जाती है या फिर उन्हें समाज की उपेक्षा और उलाहना का सामना करना पड़ता है.
स्त्री पुरुष लिगानुपात हुआ प्रभावित :- समाज में व्याप्त दहेज प्रथा का परिणाम यह हुआ कि अनेक निर्धन माता-पिता बेटी के जन्म लेते ही क्रूरता पू्र्वक बेटी का गला दबाकर हत्या करने लगे. इस संबंध में कठोर कानून सरकार को बनाने पड़े फ़िर भी बालिका वध को नहीं रोका जा सका. कन्याओं की गर्भ में ही ह्त्या करवाई जाने लगी. परिणाम स्वरुप समाज में स्त्री पुरुष लिंगानुपात प्रभावित हुआ. आज भी कड़े नियमों की बावजूद भ्रूण लिंग परीक्षा करवाकर कन्याओं को गर्भ में ही ह्त्या करवाने के मामले सामने आते रहते हैं. जो हमारे समाज के लिए बेहद चिंता का विषय है.
दहेज़ है क्या और इसकी शुरुआत कहा से हुई? :- आम तौर पर विवाह के समय कन्या पक्ष द्वारा जो भेट दी जाती है उसे दहेज़ कहते है. दूसरे शब्दों में दहेज़ वह नगद भुगतान व सामान होता है जो दुल्हे को दुल्हन के परिवार द्वारा विदाई के समय दिया जाता है. भारतीय वैवाहिक संस्कृति में कन्यादान एक महत्वपूर्ण रिवाज है इसी के साथ दहेज़ को भी जोड़ के देखा जा सकता है. दरअसल, भारत की अपनी एक परंपरा और संस्कृति रही है. यहाँ लड़की को सदेव पराया धन समझा जाता रहा है. लड़की को धूम धमाके से विदा किया जाता रहा है. पहले पहल दहेज़ के लेन देन में दोनों ही पक्षों की आपसी सद्भावना प्रकट होती थी. विवाह के बाद पुत्रि पराई हो जाती थी और पिता की संपत्ति पर उसका कोई अधिकार नहीं रह जाता था. यही वजह है कि पिता इसी सम्पति का कुछ भाग अपनी इच्छा से प्रसन्नता पूर्वक दहेज़ के रूप में विदाई के समय अपनी बेटी को देता है. तब दहेज़ देने का उद्देश्य यह होता था कि शादी के बाद यदि लड़की पर कोई विपत्ति आये या फिर उसके पति की मृत्यु हो जाए तो वह पिता द्वारा दिया गए धन का उपयोग अपनी आजीविका आदि में कर सके. ज्यादातर यही माना जाता रहा है कि दहेज़ जैसी कुप्रवृति हमारे समाज की संस्कृति नहीं रही है यह तो विदेशी सभ्यता की देन है. लेकिन एक पुत्री को वस्तु तथा साथ में दिए जाने वाले सामान को उपहार समझना इसी समाज की बहुत पुराणी परंपरा है हमारे पुराणों में कई प्रकार के विवाहों का उल्लेख किया गया है, जिनमे आदर्श विवाह ब्रह्म विवाह को माना गया है. इस विवाह में विद्या और आचार युक्त वर को बुलाकर उसे उत्तम वस्त्रो व अन्य वस्तुओ सहित कन्या का भी दान किया जाता था जो कन्यादान कहा जाता है. तब कन्या एक दान की वस्तु (न कि एक मनुष्य ) मानी जाती थी तथा इस दान के साथ उत्तम वस्त्र तथा अलंकार (आभूषण, उपहार आदि ) भी दिया जाता था. इस प्रकार यहाँ से दहेज़ की शुरुआत मानी जा सकती है. राजाओ के समय में भी दहेज़ में हजारो नौकर चाकर, दास दासियों, हाथी घोड़े दिया जाना सर्वविदित है. अन्य संस्कृति में भी दहेज़ लेने देने का रिवाज है लेकिन वह थोडा अलग है. मसलन मुस्लिम संस्कृति के अनुसार निकाह काजी के सामने दूल्हा दुल्हन को दिए जाने वाले तय मेहर की रकम अदा करेगा तथा दोनों पक्ष विवाह कुबूल करके निकाहनामे में अपने अपने दस्तखत करेंगे. यहाँ पर दूल्हा दुल्हन को मेहर के रूप में कुछ धन देता है. इन समुदायों के अतिरिक्त अन्य समुदायों में भी यह प्रथा अब ज्यादा प्रचलित होने लगी है, जिसके प्रमाण यदा कदा सामने आते रहते है.
दहेज बना स्टेटस सिम्बल :- वर्त्तमान समय में हालात ये हैं दहेज एक स्टेटस सिम्बल बन गया है. दैनिक उपभोग की वस्तुतों के अलावा, नकद में मोटी रकम, भौतिक सुख सुधाओं की वस्तुएं जैसे लेटेस्ट गाड़ी, फ्रीज़, टीवी, या अन्य महंगी वस्तुएं शामिल हैं. दहेज आज एक स्टेटस सिम्बल बना है इसका सीधा उदाहरण इस बात से ही लगाया जा सकता है जिसमें शादी के पहले ही वर पक्ष अपनी प्रतिष्ठा के अनुसार कन्या पक्ष को दहेज देने के दबाव बनाता है. कहने का सीधा मतलब यह है कि जिसको जितना ज़्यादा दहेज मिलता है उसका उतना ज्यादा रुतबा रहता है. लेकिन ऐसा अक्सर देखने में आता है कि शादी के समय वर पक्ष की मांग पूरी कर देने के बाद भी शादी के बाद वर पक्ष और पैसों की मांग करता है. तथा इस बात की कोई गारंटी नहीं होती कि वर पक्ष की हर मांग को मानने के बाद भी कन्या अपनी ससुराल में सुखी रहेगी. दूसरी और इस समस्या के विकराल रूप धारण करने के पीछे एक कारण दहेज देने की होड भी हैं. कन्या पक्ष द्वारा भी ज़्यादा से ज़्यादा दहेज देकर समाज में अपना रुतबा अपन स्टेटस बनाये रखने की भी मंशा रहती है.
दहेज प्रतिषेध अधिनियम :- दहेज बुरी प्रथा है. इसको रोकने के लिये दहेज प्रतिषेध अधिनियम १९६१ बनाया गया है पर यह कारगर सिद्घ नहीं हुआ है. इसकी कमियों को दूर करने के लिये फौजदारी (दूसरा संशोधन) अधिनियम १९८६ के द्वारा, मुख्य तौर से निम्नलिखित संशोधन किये गये हैं:
* भारतीय दण्ड संहिता में धारा ४९८-क जोड़ी गयी.
* साक्ष्य अधिनियम में धारा ११३-क, यह धारा कुछ परिस्थितियां दहेज मृत्यु के बारे में संभावनायें पैदा करती हैं.
* दहेज प्रतिषेध अधिनियम को भी संशोधित कर मजबूत किया गया है.
पर क्या केवल कानून बदलने से दहेज की बुराई समाप्त हो सकती है. - शायद नहीं. यह तो तभी समाप्त होगी जब हम दहेज मांगने, या देने या लेने से मना करें. उच्चतम न्यायालय ने भी १९९३ में, कुण्डला बाला सुब्रमण्यम प्रति आंध्र प्रदेश राज्य में कुछ सुझाव दिये हैं. एक प्रकरण में उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि दहेज की बुराई केवल कानून से दूर नहीं की जा सकती है. इस बुराई पर जीत पाने के लिये सामाजिक आंदोलन की जरूरत है. खास तौर पर ग्रामीण क्षेत्र में, जहां महिलायें अनपढ़ हैं और अपने अधिकारों को नहीं जानती हैं. वे आसानी से इसके शोषण की शिकार बन जाती हैं.
न्यायालयों को इस तरह के मुकदमे तय करते समय व्यावहारिक तरीका अपनाना चाहिये ताकि अपराधी, प्रक्रिया संबन्धी कानूनी बारीकियों के कारण या फिर गवाही में छोटी -मोटी, कमी के कारण न छूट पाये. जब अपराधी छूट जाते हैं तो वे प्रोत्साहित होते हैं और आहत महिलायें हतोत्साहित. महिलाओं के खिलाफ आपराधिक मुकदमे तय करते समय न्यायालयों को संवेदनशील होना चाहिये.
अधिनियम के दुरुपयोग :- दहेज प्रथा को रोकने के लिए दहेज प्रतिषेध अधिनियम भी बनाया गया लेकिन यह अधिनियम भी विवादों के घेरे में आ गया. इस अधिनियम के दुरुपयोग की भी खबरें आने लगीं. कई बार ससुराल पक्ष की कुंवारी लडकी या फिर बुज़ुर्ग व्यक्ति को भी शिकायत के आधार पर जेल भेज दिया जाता है. तथा जब अदालती कार्यवाही के बाद में जब फैसला आता है तो ससुराल पक्ष के उन लोगों को बरी कर दिया जाता है. ऐसे में वर पक्ष का भी समाज में सर नीचा हो जाता है. कई बार वर पक्ष निर्दोष होते हुए भी इस कदर उलझ जाते हैं कि वे स्वयं को बेगुनाह साबित नहीं कर पाते.
बहरहाल आज अगर यह कहा जाए कि दहेज एक नारीवादी समस्या है तो यह गलत होगा. क्योंकि दहेज एक सामाजिक समस्या है. भले ही समाज में दहेज प्रथा को बंद करने के लिए नियम बने हों लेकिन इस समस्या को तब तक काबू नहीं किया जा सकता जब तक की समाज ज्यादा से ज़्यादा दहेज लेने और देने की होड समाप्त न हो जाए. समाज में अमीर गरीब और माध्यम सभी वर्गों के लोग रहते हैं अमीर वर्ग को दहेज लेने और देने की होड से कोई फर्क नहीं पडता. माध्यम और गरीब परिवारों में इसके गंभीर परिणाम सामने आते हैं. आज यदि इस दहेज प्रथा पर रोक लगानी है तो इसके लिए समाज के योवाओं को ही आगे आना होगा. महिलाओं को शिक्षित होना होगा. महिलायें यदि आर्थिक रूप से स्वतंत्र होंगी, शिक्षित होंगी तो अपने हक की लड़ाई ज्यादा बेहतर तरीके से लड़ सकती हैं साथ ही शोषण होने से भी खुद को बचा सकती हैं. जब तक सारा समाज ही दहेज दानव के विरुद्ध उठ खड़ा नहीं होता तथा दहेज लेने वालों के मुंह काले करके सारे नगर में घूमाने की प्रथा सामान्य नहीं हो जाती, तब तक दहेज का दानव अपने दुष्ट खेल ही खेलता रहेगा.
स्त्री पुरुष लिगानुपात हुआ प्रभावित :- समाज में व्याप्त दहेज प्रथा का परिणाम यह हुआ कि अनेक निर्धन माता-पिता बेटी के जन्म लेते ही क्रूरता पू्र्वक बेटी का गला दबाकर हत्या करने लगे. इस संबंध में कठोर कानून सरकार को बनाने पड़े फ़िर भी बालिका वध को नहीं रोका जा सका. कन्याओं की गर्भ में ही ह्त्या करवाई जाने लगी. परिणाम स्वरुप समाज में स्त्री पुरुष लिंगानुपात प्रभावित हुआ. आज भी कड़े नियमों की बावजूद भ्रूण लिंग परीक्षा करवाकर कन्याओं को गर्भ में ही ह्त्या करवाने के मामले सामने आते रहते हैं. जो हमारे समाज के लिए बेहद चिंता का विषय है.
दहेज़ है क्या और इसकी शुरुआत कहा से हुई? :- आम तौर पर विवाह के समय कन्या पक्ष द्वारा जो भेट दी जाती है उसे दहेज़ कहते है. दूसरे शब्दों में दहेज़ वह नगद भुगतान व सामान होता है जो दुल्हे को दुल्हन के परिवार द्वारा विदाई के समय दिया जाता है. भारतीय वैवाहिक संस्कृति में कन्यादान एक महत्वपूर्ण रिवाज है इसी के साथ दहेज़ को भी जोड़ के देखा जा सकता है. दरअसल, भारत की अपनी एक परंपरा और संस्कृति रही है. यहाँ लड़की को सदेव पराया धन समझा जाता रहा है. लड़की को धूम धमाके से विदा किया जाता रहा है. पहले पहल दहेज़ के लेन देन में दोनों ही पक्षों की आपसी सद्भावना प्रकट होती थी. विवाह के बाद पुत्रि पराई हो जाती थी और पिता की संपत्ति पर उसका कोई अधिकार नहीं रह जाता था. यही वजह है कि पिता इसी सम्पति का कुछ भाग अपनी इच्छा से प्रसन्नता पूर्वक दहेज़ के रूप में विदाई के समय अपनी बेटी को देता है. तब दहेज़ देने का उद्देश्य यह होता था कि शादी के बाद यदि लड़की पर कोई विपत्ति आये या फिर उसके पति की मृत्यु हो जाए तो वह पिता द्वारा दिया गए धन का उपयोग अपनी आजीविका आदि में कर सके. ज्यादातर यही माना जाता रहा है कि दहेज़ जैसी कुप्रवृति हमारे समाज की संस्कृति नहीं रही है यह तो विदेशी सभ्यता की देन है. लेकिन एक पुत्री को वस्तु तथा साथ में दिए जाने वाले सामान को उपहार समझना इसी समाज की बहुत पुराणी परंपरा है हमारे पुराणों में कई प्रकार के विवाहों का उल्लेख किया गया है, जिनमे आदर्श विवाह ब्रह्म विवाह को माना गया है. इस विवाह में विद्या और आचार युक्त वर को बुलाकर उसे उत्तम वस्त्रो व अन्य वस्तुओ सहित कन्या का भी दान किया जाता था जो कन्यादान कहा जाता है. तब कन्या एक दान की वस्तु (न कि एक मनुष्य ) मानी जाती थी तथा इस दान के साथ उत्तम वस्त्र तथा अलंकार (आभूषण, उपहार आदि ) भी दिया जाता था. इस प्रकार यहाँ से दहेज़ की शुरुआत मानी जा सकती है. राजाओ के समय में भी दहेज़ में हजारो नौकर चाकर, दास दासियों, हाथी घोड़े दिया जाना सर्वविदित है. अन्य संस्कृति में भी दहेज़ लेने देने का रिवाज है लेकिन वह थोडा अलग है. मसलन मुस्लिम संस्कृति के अनुसार निकाह काजी के सामने दूल्हा दुल्हन को दिए जाने वाले तय मेहर की रकम अदा करेगा तथा दोनों पक्ष विवाह कुबूल करके निकाहनामे में अपने अपने दस्तखत करेंगे. यहाँ पर दूल्हा दुल्हन को मेहर के रूप में कुछ धन देता है. इन समुदायों के अतिरिक्त अन्य समुदायों में भी यह प्रथा अब ज्यादा प्रचलित होने लगी है, जिसके प्रमाण यदा कदा सामने आते रहते है.
दहेज बना स्टेटस सिम्बल :- वर्त्तमान समय में हालात ये हैं दहेज एक स्टेटस सिम्बल बन गया है. दैनिक उपभोग की वस्तुतों के अलावा, नकद में मोटी रकम, भौतिक सुख सुधाओं की वस्तुएं जैसे लेटेस्ट गाड़ी, फ्रीज़, टीवी, या अन्य महंगी वस्तुएं शामिल हैं. दहेज आज एक स्टेटस सिम्बल बना है इसका सीधा उदाहरण इस बात से ही लगाया जा सकता है जिसमें शादी के पहले ही वर पक्ष अपनी प्रतिष्ठा के अनुसार कन्या पक्ष को दहेज देने के दबाव बनाता है. कहने का सीधा मतलब यह है कि जिसको जितना ज़्यादा दहेज मिलता है उसका उतना ज्यादा रुतबा रहता है. लेकिन ऐसा अक्सर देखने में आता है कि शादी के समय वर पक्ष की मांग पूरी कर देने के बाद भी शादी के बाद वर पक्ष और पैसों की मांग करता है. तथा इस बात की कोई गारंटी नहीं होती कि वर पक्ष की हर मांग को मानने के बाद भी कन्या अपनी ससुराल में सुखी रहेगी. दूसरी और इस समस्या के विकराल रूप धारण करने के पीछे एक कारण दहेज देने की होड भी हैं. कन्या पक्ष द्वारा भी ज़्यादा से ज़्यादा दहेज देकर समाज में अपना रुतबा अपन स्टेटस बनाये रखने की भी मंशा रहती है.
दहेज प्रतिषेध अधिनियम :- दहेज बुरी प्रथा है. इसको रोकने के लिये दहेज प्रतिषेध अधिनियम १९६१ बनाया गया है पर यह कारगर सिद्घ नहीं हुआ है. इसकी कमियों को दूर करने के लिये फौजदारी (दूसरा संशोधन) अधिनियम १९८६ के द्वारा, मुख्य तौर से निम्नलिखित संशोधन किये गये हैं:
* भारतीय दण्ड संहिता में धारा ४९८-क जोड़ी गयी.
* साक्ष्य अधिनियम में धारा ११३-क, यह धारा कुछ परिस्थितियां दहेज मृत्यु के बारे में संभावनायें पैदा करती हैं.
* दहेज प्रतिषेध अधिनियम को भी संशोधित कर मजबूत किया गया है.
पर क्या केवल कानून बदलने से दहेज की बुराई समाप्त हो सकती है. - शायद नहीं. यह तो तभी समाप्त होगी जब हम दहेज मांगने, या देने या लेने से मना करें. उच्चतम न्यायालय ने भी १९९३ में, कुण्डला बाला सुब्रमण्यम प्रति आंध्र प्रदेश राज्य में कुछ सुझाव दिये हैं. एक प्रकरण में उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि दहेज की बुराई केवल कानून से दूर नहीं की जा सकती है. इस बुराई पर जीत पाने के लिये सामाजिक आंदोलन की जरूरत है. खास तौर पर ग्रामीण क्षेत्र में, जहां महिलायें अनपढ़ हैं और अपने अधिकारों को नहीं जानती हैं. वे आसानी से इसके शोषण की शिकार बन जाती हैं.
न्यायालयों को इस तरह के मुकदमे तय करते समय व्यावहारिक तरीका अपनाना चाहिये ताकि अपराधी, प्रक्रिया संबन्धी कानूनी बारीकियों के कारण या फिर गवाही में छोटी -मोटी, कमी के कारण न छूट पाये. जब अपराधी छूट जाते हैं तो वे प्रोत्साहित होते हैं और आहत महिलायें हतोत्साहित. महिलाओं के खिलाफ आपराधिक मुकदमे तय करते समय न्यायालयों को संवेदनशील होना चाहिये.
अधिनियम के दुरुपयोग :- दहेज प्रथा को रोकने के लिए दहेज प्रतिषेध अधिनियम भी बनाया गया लेकिन यह अधिनियम भी विवादों के घेरे में आ गया. इस अधिनियम के दुरुपयोग की भी खबरें आने लगीं. कई बार ससुराल पक्ष की कुंवारी लडकी या फिर बुज़ुर्ग व्यक्ति को भी शिकायत के आधार पर जेल भेज दिया जाता है. तथा जब अदालती कार्यवाही के बाद में जब फैसला आता है तो ससुराल पक्ष के उन लोगों को बरी कर दिया जाता है. ऐसे में वर पक्ष का भी समाज में सर नीचा हो जाता है. कई बार वर पक्ष निर्दोष होते हुए भी इस कदर उलझ जाते हैं कि वे स्वयं को बेगुनाह साबित नहीं कर पाते.
बहरहाल आज अगर यह कहा जाए कि दहेज एक नारीवादी समस्या है तो यह गलत होगा. क्योंकि दहेज एक सामाजिक समस्या है. भले ही समाज में दहेज प्रथा को बंद करने के लिए नियम बने हों लेकिन इस समस्या को तब तक काबू नहीं किया जा सकता जब तक की समाज ज्यादा से ज़्यादा दहेज लेने और देने की होड समाप्त न हो जाए. समाज में अमीर गरीब और माध्यम सभी वर्गों के लोग रहते हैं अमीर वर्ग को दहेज लेने और देने की होड से कोई फर्क नहीं पडता. माध्यम और गरीब परिवारों में इसके गंभीर परिणाम सामने आते हैं. आज यदि इस दहेज प्रथा पर रोक लगानी है तो इसके लिए समाज के योवाओं को ही आगे आना होगा. महिलाओं को शिक्षित होना होगा. महिलायें यदि आर्थिक रूप से स्वतंत्र होंगी, शिक्षित होंगी तो अपने हक की लड़ाई ज्यादा बेहतर तरीके से लड़ सकती हैं साथ ही शोषण होने से भी खुद को बचा सकती हैं. जब तक सारा समाज ही दहेज दानव के विरुद्ध उठ खड़ा नहीं होता तथा दहेज लेने वालों के मुंह काले करके सारे नगर में घूमाने की प्रथा सामान्य नहीं हो जाती, तब तक दहेज का दानव अपने दुष्ट खेल ही खेलता रहेगा.
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दहेज एक सामाजिक समस्या है-पूरे समाज को जागरुक होना होगा.
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