January 17, 2010

प्रतिस्पर्धा के दबाव में आत्महत्या को मजबूर छात्र


(कमल सोनी) >>>> मौजूदा परिवेश में हमारे समाज में युवाओं की एक आत्मबल्हीन पीढी तैयार हो गई है. इसका सीधा अंदाजा इन दिनों देश भर से स्कूली बच्चों के आत्महत्याओं की खबरें से ही लगाया जा सकता है. हालाकि उनकी आत्महत्याओं के पीछे क्या कारण रहे हैं यह खुलकर सामने नहीं आये है लेकिन अनुमानों के मुताबिक़ बच्चों पर बढ़ता पढ़ाई का बोझ और कड़ी प्रतिस्पर्धा के इस दौर में माता पिता का अपने बच्चों पर सबसे आगे निकल जाने का बढ़ता दबाव ही इन बच्चों के आत्महत्या का मुख्य कारण माना जा रहा है. विगत एक सप्ताह में मुंबई में आठ से भी अधिक बच्चों ने आत्महत्या कर लीं. कई बार स्कूल के शिक्षक और शिक्षिकाओं द्वारा पढाई के लिए प्रताड़ित करने के बाद छात्र छात्राओं द्वारा आत्महत्या करने की खबरें भी आती रहीं है. यहां ज्वलंत सवाल यह है कि आखिर बच्चों में आत्महत्या की ये घटनाएं क्या इस शिक्षा प्रणाली के दोष के कारण घटित हों रहीं है अथवा परीक्षा प्रणाली के दोष के कारण, या फिर परिवार व समाज का प्रतिस्पर्धी माहौल इन्हें आत्मघाती बना रहा है. या फिर संभवतः ये तीनो कारण ही बच्चों को इतनी कम उम्र में आत्महत्या के लिए प्रेरित कर रहे है.
गौरतलब है कि अभी सेमेस्टर परीक्षा परिणाम आया ही है कि उसकी नाकामी के चलते विगत दो-तीन दिनों में देश के कई हिस्सों में अब तक दर्जनों से भी अधिक हाईस्कूल, इंटर व तकनीकि शिक्षा के छात्र आत्महत्या कर चुके हैं. सच्चाई यह है कि स्कूली बच्चों में ये सभी आत्महत्याएं परीक्षाओं में नाकामी के भय के चलते ही हो रही हैं. दरअसल, सत्र के मध्य में स्कूली छात्रों पर परीक्षा परिणामों को लेकर भारी दबाब रहता है. यह परीक्षा परिणामों से उपजे मानसिक दबाब का ही दुष्परिणाम है कि उनमें आत्महत्या करने की प्रवृत्ति बढ़ रही है. विगत वर्ष दिल्ली में किए गए एक शैक्षिक अध्ययन के निष्कर्ष के मुताबिक परीक्षाओं के मध्य बच्चों पर इतना अधिक मानसिक दबाव बढ़ा कि इसके कारण उनके बीच आत्महत्या के लगभग 300 प्रयास किए गए. आकडे़ बताते हैं कि वर्ष 2006 में 5857 छात्रों ने केवल परीक्षा के दबाव के चलते आत्महत्या कर ली थी. जो भी छत्र छात्राएं परीक्षा में फेल होने पर आत्महत्या कर चुके हैं, उनकी उम्र महज़ 11 वर्ष से 24 वर्ष के बीच ही रही है.

ऐसा नहीं है कि इन बच्चों के मध्य पनप रही मानसिक दबाब जनित आत्महत्या की घटनाओं से सरकारें बेखबर हैं. मगर राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमजोरी ने इस शिक्षा प्रणाली को अपने हाल पर आंसू बहाने को मजबूर कर दिया है. शैक्षिक शोध यह भी बताते हैं कि बच्चों पर इस मानसिक दबाब के लिए इस शिक्षा प्रणाली के साथ-साथ बच्चों के कैरियर के विकास से जुड़ा समाज में जो प्रति‌र्स्पधी माहौल कायम हो गया है वह भी कम उत्तरदायी नहीं है. भारतीय सामाजिक ढांचे में आ रहे सतत विखराव, संयुक्त परिवार प्रणाली का विखंडन, नगरों में मां-बाप दोनों का कार्यशील होने जैसे कारणों से बच्चे परिवारों में लगातार उपेक्षा के शिकार हो रहे हैं. बच्चों की यही उपेक्षा और प्रतिस्पर्धी माहौल में उनका अकेलापन शायद उन्हें आत्महत्या करने के लिए मजबूर कर रहा है.

आज स्थिति यह है कि बच्चों की शारीरिक व मानसिक स्थिति को जाने व समझें बिना मा-बाप का ध्यान परीक्षा अथवा प्रतियोगिता में बच्चों के प्रोगेसिव रिपोर्ट पर रहता हैं. मनोचिकित्सकों का मानना है कि स्वयं को आत्महत्या की ओर ले जाने वाले बच्चे गहरे अवसाद के शिकार होते हैं. यह अवसाद किसी असफलता, अप्रत्याशित त्रासदी अथवा बच्चे के कक्षा में प्रथम आने के दबाव से जुडी होती है. निरंतर प्रताड़ना बच्चों को गहरे अवसाद, निराशा एवं कमजोर व दीन- हीन भावना की ओर ले जा रहीं है. इसी कारण बच्चा स्वयं अपराध बोध के भावों से ग्रस्त है. उसके मन में यह ग्रंथि पनप रही है कि सामान्य अथवा प्रतियोगी परीक्षा में कम अंक रह जाने के हालात को न समझकर मां-बाप उसकी अल्प सफलता पर उसे प्रताड़ित ही करेंगे. सही मायने में परिवार व समाज में बच्चों से निरंतर संवाद का अभाव उन्हें वह मार्ग प्रदान नहीं कर रहा है, जहां चलकर वे अपने दबाब की भावना से खुद को मुक्त कर सकें.

युवाओं के नैतिक विकास में उनके परिवार की अहम् भूमिका है. मां बाप बच्चों के पहले शिक्षक होते है लेकिन पिछले एक दशक में भारतीय पारिवारिक प्रणाली में जिस तरह से बदलाव आया है उसमें तेजी संयुक्त परिवार प्रणाली का समाप्त हुई है और एकल परिवार प्रणाली का चलन बढ़ा है. पूर्व में संयुक्त परिवारों में दादा, दादी, नाना, नानी व परिवार के अन्य बडे़ सदस्य बच्चों में इस प्रकार के बाहरी दबाब को सहन करने में बच्चों के लिए शाक एब्जार्वर का काम करते थे. और ये सदस्य बच्चों की पढ़ाई जैसे दबाव से जुड़ी विषम परिस्थितियों को संभाल लेते थे, आत्महत्या की बढ़ती हुई इस प्रवृत्ति को रोका जाना बेहद जरूरी है, पर कैसे? मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, और वह समूह में रहना पसंद करता है उसका पहला समूह उसका परिवार ही होता है. अपनी हर आवश्यकताओं के लिए चाहे वह भावनात्मक हों या शारीरिक, दूसरे पर निर्भर होता है और उनमें सबसे पहले होता है 'परिवार' . परिवार वह संस्था है, जो जीवन संघर्ष को प्रेरित करती है और इस संघर्ष में भावनात्मक संबल भी प्रदान करती है, लेकिन दुर्भाग्यवश अगर ऐसा नहीं होता, तो व्यक्ति बिखर जाता है, विशेषकर बात जब किशोर बच्चों की हो. यों तो किशोरावस्था कभी भी सहज नहीं रही है, लेकिन पिछले कुछ दशकों में समाज की संरचना में जो परिवर्तन आए है. उससे एकल परिवार बच्चों के मन में पनप रहे मानसिक दबाब के इस मनोविज्ञान को पढ़ने में स्वयं को असमर्थ पा रहे हैं. बच्चों के लिए चाहे वह किशोर हो या फिर युवा उसका परिवार ही उसके लिए सुरक्षा कवच होता है. इस सुरक्षा को टूटने न देना प्रत्येक अभिभावक का कर्तव्य है. यदि हमें भावी पीढ़ी के जीवन को किसी भी अनहोनी से बचाना है, तो भावनात्मक संबल के साथ-साथ संवाद बनाए रखने की भी आवश्यकता है. अपनों द्वारा दिया गया प्रेम और विश्वास ही बच्चों को जीवन की निराशाओं से बचाएगा और यही आत्महत्या को रोकने का कारगर उपाय है.

2 comments:

दिनेशराय द्विवेदी said...

सही कहा, कल कोटा में दो छात्रों ने आत्महत्या की है।

kavita verma said...

aaj kal ke vyast jeevan me maata pita ke paas apane bachchon se "beta ham tumhare saath hai"ye kahane ka bhi samay nahi hai,is bhavanatmak riktata ki hi upaj hai ye aatmbalheen peedhi.