February 27, 2010

दुराचार पर सदाचार की विजय और विजय पर रंगों से उत्सव मनाने का पर्व - होली



(कमल सोनी)>>>> होली वसंत ऋतु में मनाया जाने वाला एक महत्वपूर्ण भारतीय त्योहार है. यह पर्व हिंदू पंचांग के अनुसार फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है. रंगों का त्योहार कहा जाने वाला यह पर्व वैसे तो पांच दिनों का हॉट है लेकिन मुख्य रूप से दो दिन मनाया जाता है. पहले दिन को होलिका जलायी जाती है, जिसे होलिका दहन भी कहते है. दूसरे दिन, जिसे धुरड्डी, धुलेंडी, धुरखेल या धूलिवंदन कहा जाता है, लोग एक दूसरे पर रंग, अबीर-गुलाल इत्यादि फेंकते हैं, ढोल बजा कर होली के गीत गाये जाते हैं, और घर-घर जा कर लोगों को रंग लगाया जाता है. ऐसा माना जाता है कि होली के दिन लोग पुरानी कटुता को भूल कर गले मिलते हैं और फिर से दोस्त बन जाते हैं. एक दूसरे को रंगने और गाने-बजाने का दौर दोपहर तक चलता है. इसके बाद स्नान कर के विश्राम करने के बाद नए कपड़े पहन कर शाम को लोग एक दूसरे के घर मिलने जाते हैं, गले मिलते हैं और मिठाइयाँ खिलाते हैं. राग-रंग का यह लोकप्रिय पर्व वसंत का संदेशवाहक भी है. राग अर्थात संगीत और रंग तो इसके प्रमुख अंग हैं ही, पर इनको उत्कर्ष तक पहुँचाने वाली प्रकृति भी इस समय रंग-बिरंगे यौवन के साथ अपनी चरम अवस्था पर होती है. फाल्गुन माह में मनाए जाने के कारण इसे फाल्गुनी भी कहते हैं. होली का त्योहार वसंत पंचमी से ही आरंभ हो जाता है. उसी दिन पहली बार गुलाल उड़ाया जाता है. इस दिन से फाग और धमार का गाना प्रारंभ हो जाता है. खेतों में सरसों खिल उठती है. बाग-बगीचों में फूलों की आकर्षक छटा छा जाती है. पेड़-पौधे, पशु-पक्षी और मनुष्य सब उल्लास से परिपूर्ण हो जाते हैं. खेतों में गेहूँ की बालियाँ इठलाने लगती हैं. किसानों का ह्रदय ख़ुशी से नाच उठता है. बच्चे-बूढ़े सभी व्यक्ति सब कुछ संकोच और रूढ़ियाँ भूलकर ढोलक-झाँझ-मंजीरों की धुन के साथ नृत्य-संगीत व रंगों में डूब जाते हैं. चारों तरफ़ रंगों की फुहार फूट पड़ती है.

क्यों मनाई जाती है होली ? :- होली क्यों मनाई जाती है ? इस पर कई कथाएं भी प्रचलित हैं. होली एक सामाजिक पर्व है. और यह भारत में ही नहीं बल्कि विश्व के कई देशों में मनाया जाता है. यह रंगों से भरा रंगीला त्योहार, बच्चे, वृद्ध, जवान, स्त्री-पुरुष सभी के ह्रदय में जोश, उत्साह, खुशी का संचार करने वाला पर्व है. यह एक ऐसा पर्व है जिसे संपूर्ण विश्व में किसी ना किसी रूप में मनाया जाता है. इसके एक दिन पहले वाले सायंकाल के बाद भद्ररहित लग्न में होलिका दहन किया जाता है. इस अवसर पर लकडियां, घास-फूस, गोबर के बुरकलों का बडा सा ढेर लगाकर पूजन करके उसमें आग लगाई जाती है. वैदिक काल में इस पर्व को नवात्रैष्टि यज्ञ कहा जाता था. उस समय खेत के अधपके अन्न को यज्ञ में दान करके प्रसाद लेने का विधान समाज में व्याप्त था. अन्न को होला कहते है, इसी से इसका नाम होलिकोत्सव पडा. वैसे होलिकोत्सव को मनाने के संबंध में अनेक मत प्रचलित है. कुछ लोग इसको अग्निदेव का पूजन मानते हैं, तो कुछ इसे नवसंम्बवत् को आरंभ तथा बंसतामन का प्रतीक मानते हैं. इसी दिन प्रथम पुरुष मनु का जन्म हुआ था. अतः इसे मंवादितिथि भी कहते हैं.

प्रचलित कथाएं :- बसंतोत्सव रंगों के पर्व होली पर कई कथाएं भी प्रचलित हैं. जिनमे सबसे ज्यादा प्रचलित कहानी है, हिरण्यकशिपु की. माना जाता है कि प्राचीन काल में हिरण्यकशिपु नाम का एक अत्यंत बलशाली असुर था. अपने बल के दर्प में वह स्वयं को ही ईश्वर मानने लगा था. उसने अपने राज्य में ईश्वर का नाम लेने पर ही पाबंदी लगा दी थी. हिरण्यकशिपु का पुत्र प्रह्लाद ईश्वर भक्त था. प्रह्लाद की ईश्वर भक्ति से क्रुद्ध होकर हिरण्यकशिपु ने उसे अनेक कठोर दंड दिए, परंतु उसने ईश्वर की भक्ति का मार्ग न छोड़ा. हिरण्यकशिपु की बहन होलिका को वरदान प्राप्त था. कि वह आग में भस्म नहीं हो सकती. हिरण्यकशिपु ने आदेश दिया कि होलिका प्रह्लाद को गोद में लेकर आग में बैठे. आग में बैठने पर होलिका तो जल गई, पर प्रह्लाद बच गया. ईश्वर भक्त प्रह्लाद की याद में इस दिन होली जलाई जाती है. प्रतीक रूप से यह भी माना जता है कि प्रह्लाद का अर्थ आनन्द होता है. वैर और उत्पीड़न की प्रतीक होलिका (जलाने की लकड़ी) जलती है और प्रेम तथा उल्लास का प्रतीक प्रह्लाद (आनंद) अक्षुण्ण रहता है.

प्रह्लाद की कथा के अतिरिक्त यह पर्व राक्षसी ढुंढी, राधा कृष्ण के रास और कामदेव के पुनर्जन्म से भी जुड़ा हुआ है. कुछ लोगों का मानना है कि होली में रंग लगाकर, नाच-गाकर लोग शिव के गणों का वेश धारण करते हैं तथा शिव की बारात का दृश्य बनाते हैं. कुछ लोगों का यह भी मानना है कि भगवान श्रीकृष्ण ने इस दिन पूतना नामक राक्षसी का वध किया था. इसी खु़शी में गोपियों और ग्वालों ने रासलीला की और रंग खेला था. होली खेलते राधा और कृष्णहोली भारत के सबसे पुराने पर्वों में से है. यह कितना पुराना है इसके विषय में ठीक जानकारी नहीं है लेकिन इसके विषय में इतिहास पुराण व साहित्य में अनेक कथाएँ मिलती है. इन कथाओं पर आधारित साहित्य और फ़िल्मों में अनेक दृष्टिकोणों से बहुत कुछ कहने के प्रयत्न किए गए हैं. लेकिन हर कथा में एक समानता है कि असत्य पर सत्य की विजय और दुराचार पर सदाचार की विजय और विजय को उत्सव मनाने की बात कही गई है. होली का त्योहार राधा और कृष्ण की पावन प्रेम कहानी से भी जुडा हुआ है. वसंत के सुंदर मौसम में एक दूसरे पर रंग डालना उनकी लीला का एक अंग माना गया है. मथुरा और वृन्दावन की होली राधा और कृष्ण के इसी रंग में डूबी हुई होती है. बरसाने और नंदगाँव की लठमार होली तो प्रसिद्ध है ही देश विदेश में श्रीकृष्ण के अन्य स्थलों पर भी होली की परंपरा है. यह भी माना गया है कि भक्ति में डूबे जिज्ञासुओं का रंग बाह्य रंगों से नहीं खेला जाता, रंग खेला जाता है भगवान्नाम का, रंग खेला जाता है सद्भावना बढ़ाने के लिए, रंग होता है प्रेम का, रंग होता है भाव का, भक्ति का, विश्वास का. होली उत्सव पर होली जलाई जाती है अंहकार की, अहम् की, वैर द्वेष की, ईर्ष्या मत्सर की, संशय की और पाया जाता है विशुद्ध प्रेम अपने आराध्य का, पाई जाती है कृपा अपने ठाकुर की.

कंस और पूतना की कथा :- पूतनावधकंस ने मथुरा के राजा वसुदेव से उनका राज्य छीनकर अपने अधीन कर लिया स्वयं शासक बनकर आत्याचार करने लगा. एक भविष्यवाणी द्वारा उसे पता चला कि वसुदेव और देवकी का आठवाँ पुत्र उसके विनाश का कारण होगा. यह जानकर कंस व्याकुल हो उठा और उसने वसुदेव तथा देवकी को कारागार में डाल दिया. कारागार में जन्म लेने वाले देवकी के सात पुत्रों को कंस ने मौत के घाट उतार दिया. आठवें पुत्र के रूप में कृष्ण का जन्म हुआ और उनके प्रताप से कारागार के द्वार खुल गए. वसुदेव रातों रात कृष्ण को गोकुल में नंद और यशोदा के घर पर रखकर उनकी नवजात कन्या को अपने साथ लेते आए. कंस ने जब इस कन्या को मारना चाहा तो वह अदृश्य हो गई और आकाशवाणी हुई कि कंस को मारने वाले तो गोकुल में जन्म ले चुका है. कंस यह सुनकर डर गया और उसने उस दिन गोकुल में जन्म लेने वाले हर शिशु की हत्या कर देने की योजना बनाई. इसके लिए उसने अपने आधीन काम करने वाली पूतना नामक राक्षसी का सहारा लिया. वह सुंदर रूप बना सकती थी और महिलाओं में आसानी से घुलमिल जाती थी. उसका कार्य स्तनपान के बहाने शिशुओं को विषपान कराना था. अनेक शिशु उसका शिकार हुए लेकिन कृष्ण उसकी सच्चाई को समझ गए और उन्होंने पूतना का वध कर दिया. यह फाल्गुन पूर्णिमा का दिन था अतः पूतनावध की खुशी में होली मनाई जाने लगी.

कई रंग होली के :- बसंतोत्सव पर्व होली के कई रंग हैं. यानि होली अलग अलग रूपों में माने जाती है. ब्रज के बरसाना गाँव में होली एक अलग तरह से खेली जाती है जिसे लठमार होली कहते हैं. यहाँ की होली में मुख्यतः नंदगाँव के पुरूष और बरसाने की महिलाएं भाग लेती हैं, क्योंकि कृष्ण नंदगाँव के थे और राधा बरसाने की थीं. नंदगाँव की टोलियाँ जब पिचकारियाँ लिए बरसाना पहुँचती हैं तो उन पर बरसाने की महिलाएँ खूब लाठियाँ बरसाती हैं. पुरुषों को इन लाठियों से बचना होता है. और साथ ही महिलाओं को रंगों से भिगोना होता है. नंदगाँव और बरसाने के लोगों का विश्वास है कि होली की लाठियों से किसी को चोट नहीं लगती है. अगर चोट लगती भी है तो लोग घाव पर मिट्टी मलकर फ़िर शुरु हो जाते हैं. इस दौरान भाँग और ठंडाई का भी ख़ूब इंतज़ाम होता है. होली उत्तर भारत के अलावा अन्य प्रदेशों मे भी मनाई जाती है, हाँ थोड़ा बहुत रुप स्वरुप बदल जाता है. जैसे हरियाणा की धुलन्डी. हरियाणा मे होली के त्योहार मे भाभियों को इस दिन पूरी छूट रहती है कि वे अपने देवरों को साल भर सताने का दण्ड दें. इस दिन भाभियां देवरों को तरह तरह से सताती है और देवर बेचारे चुपचाप झेलते है, क्योंकि इस दिन तो भाभियों का दिन होता है. देवर अपनी प्यारी भाभी के लिये उपहार लाता है. इसके अलावा होली का एक और रंग है. वह है, बंगाल का बसन्तोत्सव. गुरु रबीन्द्रनाथ टैगोर ने होली के ही दिन शान्तिनिकेतन मे वसन्तोत्सव का आयोजन किया था, तब से आज तक इस यहाँ बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है. पूरे बंगाल मे इसे ढोल पूर्णिमा अथवा ढोल जात्रा के तौर पर भी मनाया जाता है, लोग अबीर गुलाल लेकर मस्ती करते है. श्रीकृष्ण और राधा की झांकिया निकाली जाती है. महाराष्ट्र में रंग पंचमी और कोंकण का शिमगो प्रसिद्द हैं. महाराष्ट्र और कोंकण के लगभग सभी हिस्सों मे इस त्योहार को रंगों के त्योहार के रुप मे मनाया जाता है. मछुआरों की बस्ती मे इस त्योहार का मतलब नाच,गाना और मस्ती होता है. इसके अलावा पंजाब का होला मोहल्ला भी होली मानाने का अपना ही अंदाज़ है. पंजाब मे भी इस त्योहार की बहुत धूम रहती है. सिक्खों के पवित्र धर्मस्थान श्री अनन्दपुर साहिब मे होली के अगले दिन से लगने वाले मेले को होला मोहल्ला कहते है. सिखों के लिये यह धर्मस्थान बहुत ही महत्वपूर्ण है. साथ ही तमिलनाडु की कामन पोडिगई जो कि कामदेव को समर्पित होता है. इसके पीछे भी एक किवदन्ती है. प्राचीन काल मे देवी सती (भगवान शंकर की पत्नी) की मृत्यू के बाद शिव काफी क्रोधित और व्यथित हो गये थे. इसके साथ ही वे ध्यान मुद्रा मे प्रवेश कर गये थे. उधर पर्वत सम्राट की पुत्री भी शंकर भगवान से विवाह करने के लिये तपस्या कर रही थी. देवताओ ने भगवान शंकर की निद्रा को तोड़ने के लिये कामदेव का सहारा लिया. कामदेव ने अपने कामबाण के शंकर पर वार किया. शंकर भगवान को बहुत गुस्सा आया कि कामदेव ने उनकी तपस्या मे विध्न डाला है इसलिये उन्होने अपने त्रिनेत्र से कामदेव को भस्म कर दिया. अब कामदेव का तीर तो अपना काम कर ही चुका था, सो पार्वती को शंकर भगवान पति के रुप मे प्राप्त हुए. उधर कामदेव की पत्नी रति ने विलाप किया और शंकर भगवान से कामदेव को जीवित करने की गुहार की. ईश्वर प्रसन्न हुए और उन्होने कामदेव को पुनर्जीवित कर दिया. यह दिन होली का दिन होता है. आज भी रति के विलाप को लोक संगीत के रुप मे गाया जाता है और चंदन की लकड़ी को अग्निदान किया जाता है ताकि कामदेव को भस्म होने मे पीड़ा ना हो. साथ ही बाद मे कामदेव के जीवित होने की खुशी मे रंगो का त्योहार मनाया जाता है.

आधुनिकता का रंग :- होली रंगों का त्योहार है, हँसी-खुशी का त्योहार है, लेकिन होली के भी अनेक रूप देखने को मिलते है. प्राकृतिक रंगों के स्थान पर रासायनिक रंगों का प्रचलन, भांग-ठंडाई की जगह नशेबाजी और लोक संगीत की जगह फ़िल्मी गानों का प्रचलन इसके कुछ आधुनिक रूप हैं. लेकिन इससे होली पर गाए-बजाए जाने वाले ढोल, मंजीरों, फाग, धमार, चैती और ठुमरी की शान में कमी नहीं आती. अनेक लोग ऐसे हैं जो पारंपरिक संगीत की समझ रखते हैं और पर्यावरण के प्रति सचेत हैं. इस प्रकार के लोग और संस्थाएँ चंदन, गुलाबजल, टेसू के फूलों से बना हुआ रंग तथा प्राकृतिक रंगों से होली खेलने की परंपरा को बनाए हुए हैं, साथ ही इसके विकास में महत्वपूर्ण योगदान भी दे रहे हैं. रासायनिक रंगों के कुप्रभावों की जानकारी होने के बाद बहुत से लोग स्वयं ही प्राकृतिक रंगों की ओर लौट रहे हैं. होली की लोकप्रियता का विकसित होता हुआ अंतर्राष्ट्रीय रूप भी आकार लेने लगा है. बाज़ार में इसकी उपयोगिता का अंदाज़ इस साल होली के अवसर पर एक अंतर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठान केन्ज़ोआमूर द्वारा जारी किए गए नए इत्र होली है से लगाया जा सकता है.

होली की शुभकामनाएं ..........

खेलें इको फ्रेंडली होली........(होली विशेष)



(कमल सोनी)>>>> यदि आप इस बार होली को किसी नए अंदाज़ में सेलीब्रेट करना चाहते हैं. तो रंगों के इस त्यौहार को इको फ्रेंडली बनायें. होली ऐसी हो जिसमें ज्यादा से ज़्यादा प्राकृतिक रंगों का प्रयोग हो. सबसे ज्यादा अप होली को तभी इंजॉय कर सकेंगे जब वह सूखी होगी. इससे आप जल सरंक्षण भी कर सकते हैं. गौर करें गर्मी की दस्तक होली से ही प्रारम्भ होती है. साथ ही गर्मी की दस्तक के पहले ही जलस्तर गिरावट आने लगती है जो कि एक चिंता का विषय है. इसके फलस्वरूप पानी में रंग मिलाकर हजारों लीटर पानी बर्बाद कर देने से पानी की समस्या और विकराल हो सकती है. पानी की कमी को देखते हुए लोगों को चाहिए कि वह सूखी होली खेलें. इस तरह वह जल संरक्षण में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे. हालांकि कई सामाजिक संस्थाएं और आमजन इस दिशा में लोगों को जागरूक करने का प्रयास कर रहे हैं. पानी की बर्बादी रोकने के लिए सबको मिल-जुलकर प्रयास करने होंगे. वर्तमान जलसंकट को देखते हुए लोगों को होली की उमंग भारी पड़ सकती है एक अनुमान के मुताबिक उमंग व उल्लास के साथ रंगों से सराबोर होकर होली मनाने पर एक शहर में एक दिन में 1 करोड़ 52 लाख 57 हजार 946 लीटर पानी अतिरिक्त खर्च होता है. होली खेलने वालों ने अगर प्राकृतिक रंग या गुलाल से होली खेली तो कुल 36 लाख 95 हजार 518 लीटर पानी की बचत होगी. आज भी कुछ लोग हैं जो प्रकृति से प्राप्त फूल-पत्तियों व जड़ी-बूटियों से रंग बना कर होली खेलते हैं. उनके अनुसार इन रंगों में सात्विकता होती है और ये किसी भी तरह से हानिकारक नहीं होते. विशेषज्ञों के अनुसार सामान्य तौर पर नहाने में 20 लीटर पानी प्रतिदिन प्रति व्यक्ति खर्च होता है. सूखे रंग या गुलाल से होली खेलने के पश्चात 40 लीटर पानी खर्च होगा पर अगर यही होली कैमिकल युक्त रंगों से खेली जाती है तो रंग छुड़ाने व नहाने में 60 लीटर पानी की खपत होगी. साथ ही पानी मिले रंगों से जो पानी बर्बाद होगा वो अलग.

जल है तो कल है :- जल बचाने के लिए आमजनमानस को स्वयं विचार करना होगा. क्योंकि जल है तो कल है. हमें स्वयं इस बात पर गौर करना होगा कि रोजाना बिना सोचे समझे हम कितना पानी उपयोग में लाते हैं. यहाँ खास बात यह गौर करने लायक है कि आगामी २२ मार्च “विश्व जल दिवस” है. जी हाँ पानी बचाने के संकल्प का दिन. पानी के महत्व को जानने का दिन और पानी के संरक्षण के विषय में समय रहते सचेत होने का दिन. आँकड़े बताते हैं कि विश्व के १.४ अरब लोगों को पीने का शुद्ध पानी नही मिल रहा है. प्रकृति जीवनदायी संपदा जल हमें एक चक्र के रूप में प्रदान करती है, हम भी इस चक्र का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं. चक्र को गतिमान रखना हमारी ज़िम्मेदारी है, चक्र के थमने का अर्थ है, हमारे जीवन का थम जाना. प्रकृति के ख़ज़ाने से हम जितना पानी लेते हैं, उसे वापस भी हमें ही लौटाना है. हम स्वयं पानी का निर्माण नहीं कर सकते अतः प्राकृतिक संसाधनों को दूषित न होने दें और पानी को व्यर्थ न गँवाएँ यह प्रण लेना आज के दिन बहुत आवश्यक है. यह दिवस हमें होली के दिन भी पानी बचाने का संदेश दे रहा है. आज हमें एक अहम सवाल खुद से पूछने की आवश्यकता है. कि क्या आप पूरा एक दिन बिना पानी के गुजारने की कल्पना कर सकते हैं ? जाहिर है नहीं. पानी अनमोल है, इसलिये संकल्प करें कि इस होली पर पानी बचाकर न सिर्फ़ आप अपने बल्कि समूचे विश्व को एक नए रंग में रंग देंगे.

मंडावा की सूखी होली की बात ही अलग :- मंडावा की सूखी होली में जयपुर, दिल्ली व बंबई ही नहीं विदेशों से भी सैलानी यहां आते हैं. यहां की होली में ना फुहड़पन, ना कीचड़, ना पानी और ना ही पक्का रंग, फिर भी रंग ऐसा चढ़े की छुटाए ना छूटे. चेहरे पर लगाया जाता है तो सिर्फ अबीर-गुलाल. पक्के रंग व पानी के प्रयोग पर पब्लिक का प्रतिबंध है. सूखी व शालीन होली की यह परंपरा करीब सौ साल से चली आ रही है. कुछ सालों से यहां होली पर पर्यटकों की संख्या भी बढ़ने लगी है.

स्वयं अपने घर पर बनायें प्राकृतिक रंग :- होली रंगों का त्योहार है जितने अधिक से अधिक रंग उतना ही आनन्द, लेकिन इस आनन्द को दोगुना भी किया जा सकता है प्राकृतिक रंगों से खेलकर, पर्यावरण मित्र रंगों के उपयोग द्वारा भी होली खेली जा सकती है और यह रंग घर पर ही बनाना एकदम आसान भी है. इन प्राकृतिक रंगों के उपयोग से न सिर्फ़ आपकी त्वचा को कोई खतरा नहीं होगा, परन्तु रासायनिक रंगों के इस्तेमाल न करने से कई प्रकार की बीमारियों से भी बचाव होता है.

ऐसे बनायें लाल रंग :-
<<*>> लाल गुलाब की पत्तियों को अखबार पर बिछाकर सुखा लें, उन सूखी पत्तियों को बारीक पीसकर लाल गुलाल के रूप में उपयोग कर सकते हैं जो कि खुशबूदार भी होगा.
<<*>> रक्तचन्दन (बड़ी गुमची) का पावडर भी गुलाल के रूप में उपयोग किया जा सकता है, यह चेहरे पर फ़ेसपैक के रूप में भी उपयोग होता है.
<<*>> रक्तचन्दन के दो चम्मच पावडर को पाँच लीटर पानी में उबालें और इस घोल को बीस लीटर के पानी में बड़ा घोल बना लें… यह एक सुगन्धित गाढ़ा लाल रंग होगा.
<<*>> लाल हिबिस्कस के फ़ूलों को छाया में सुखाकर उसका पावडर बना लें यह भी लाल रंग के विकल्प के रूप में उपयोग किया जा सकता है.
<<*>> लाल अनार के छिलकों को मजीठे के पेड़ की लकड़ी के साथ उबालकर भी सुन्दर लाल रंग प्राप्त किया जा सकता है.
<<*>> टमाटर और गाजर के रस को पानी में मिलाकर भी होली खेली जा सकती है.

पीला रंग :-
<<*>> दो चम्मच हल्दी को चार चम्मच बेसन के साथ मिलाकर उसे पीला गुलाल के रूप में उपयोग किया जा सकता है.
<<*>> अमलतास और गेंदे के फ़ूलों की पत्तियों को सुखाकर उसका पेस्ट अथवा गीला रंग बनाया जा सकता है.
<<*>> दो चम्मच हल्दी पावडर को दो लीटर पानी में उबालें, गाढ़ा पीला रंग बन जायेगा.
<<*>> दो लीटर पानी में 50 गेंदे के फ़ूलों को उबालने पर अच्छा पीला रंग प्राप्त होगा…

हरा रंग :-
<<*>> गुलमोहर, पालक, धनिया, पुदीना आदि की पत्तियों को सुखाकर और पीसकर हरे गुलाल के रूप में उपयोग किया जा सकता है.
<<*>> किसी भी आटे की बराबर मात्रा में हिना अथवा दूसरे हरे रंग मिलाकर भी हरे गुलाल के रूप में उपयोग किया जा सकता है.
<<*>> एक लीटर पानी में दो चम्मच मेहंदी को घोलने पर भी हरे रंग का प्राकृतिक विकल्प तैयार किया जा सकता है.

नीला :-
<<*>> एक लीटर गरम पानी में चुकन्दर को रात भर भिगोकर रखें और इस बैंगनी रंग को आवश्यकतानुसार गाढ़ा अथवा पतला किया जा सकता है.
<<*>> 15-20 प्याज़ के छिलकों को आधा लीटर पानी में उबालकर गुलाबी रंग प्राप्त किया जा सकता है.
<<*>> नीले गुलमोहर के फ़ूलों को सुखाकर उसके पावडर द्वारा तैयार घोल से भी अच्छा नीला रंग बनाया जा सकता है.
<<*>> नीले गुलमोहर की पत्तियों को सुखाकर बारीक पीसने पर नीला गुलाल भी बनाया जा सकता है.

भगवा रंग :-
<<*>> हल्दी पावडर और चन्दन पावडर को मिलाकर हल्का नारंगी पेस्ट बनाया जा सकता है.
<<*>> परम्परागत रूप से जंगलों में पाये जाने वाले टेसू के फ़ूलों को उबालकर भी नारंगी केसरिया रंग प्राप्त किया जाता है.

ऐसे खेलें होली :-
<<*>> अधिक से अधिक सूखे रंगों से होली खेलें, अधिक से अधिक प्राकृतिक रंगों से होली खेलें, आजकल प्राकृतिक रंग आसानी से बाजार में उपलब्ध होते हैं.
<<*>> होली खेलने से पहले पूरे शरीर और खासकर बालों पर अच्छी तरह से तेल मालिश कर लें या किसी लोशन का लेप लगा लें, इससे होली खेलने के बाद बालों और त्वचा का रंग छुड़ाने में आसानी होगी.
<<*>> होली खेलने से पहले नाखून को पॉलिश कर लें, ताकि होली खेलने के बाद भी वे वैसे ही चमकते हुए दिखेंगे और उसकी अधिक सफ़ाई नहीं करना पड़ेगी.
होली की शुभकामनाएं ..........

February 26, 2010

खंड-खंड होते देश में सुरक्षा के बढ़ते खतरे ?



(कमल सोनी)>>>> पूरी दुनिया में शायद भारत ही एक मात्र ऐसा देश है. जहाँ धर्मवाद, क्षेत्रवाद, जातिवाद, नक्सलवाद और आतंकवाद अपने पैर पसार रहा है. और आज स्थिति यह है कि इसका नियंत्रण एक चुनौती बन गया है. परिणामस्वरूप एक ओर जहां देश टुकड़ों में बाँट रहा है. तो दूसरी ओर आतंरिक और बाहरी सुरक्षा के खतरे भी देश में बढ़ रहे हैं. एक तरफ चीन भारत में घुसपैठ की कोशिशों को अंजाम देता है तो दूसरी तरफ पकिस्तान सीमा पर गोलीबारी की आड लेकर आतंकवादी गतिविधियों को अंजाम दे रहा है. इस मामले में बाग्लादेश भी पीछे नहीं है. इन सबके बावजूद देश के राजनेता सिवाय खोखली राजनीती के अलावा कोई ठोस कदम नहीं उठा रहे. बल्कि इसी धर्मवाद, क्षेत्रवाद, जातिवाद, नक्सलवाद और आतंकवाद का सहारा ले अपने राजनैतिक स्वार्थ की रोटियां सेंकने में लगे हुए हैं. देश की जनता भी सब जानती है. अब वह जागरूक हो रही है. यही वजह है कि मुंबई में हुए आतंकी हमले के बाद जिस तरह से जनता इन राजनेताओं के खिलाफ सड़क पर उतरकर आई. लेकिन राजनेताओं ने इससे कोई सबक लिया इसके कोई प्रमाण अब तक नहीं मिले. धर्मवाद, क्षेत्रवाद, जातिवाद पर राजनीती होती रही. आज भले ही वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने आतंरिक और बाहरी सुरक्षा के मद्देनज़र सिर्फ चार फीसदी बढ़ोतरी करते हुए बजट 2010-11 में रक्षा के लिए 1,47,344 करोड़ रुपये आवंटित किए हैं. लेकिन सुरक्षा के दृष्टिकोण से बजट निर्धारित कर देना ही काफी नहीं होता. इसमें कोई दो मत नहीं कि आज हम जिस दुनिया में जी रहे हैं. वह पूरी तरह से अस्थिर है. और हम भी इस अस्थिरता के साये में जीने को मजबूर हैं.

आजादी के बाद 1947 में जिस नए भारत की कल्पना की गई थी. क्या आज हम उस कल्पना पर खरे उतरे हैं ? यह एक अहम सवाल है. इतने लंबे अरसे के बाद देश में 'एकता की भावना' खोती हुई नज़र आ रही है. परिणाम स्वरुप धर्मवाद, क्षेत्रवाद, जातिवाद, नक्सलवाद जैसी समस्याएँ बढ़ीं हैं. लेकिन इनके समाधान के लिए ज़्यादा से ज़्यादा बंद कमरे में बैठकें आयोजित कर फैसले कर लिए जाते हैं. लेकिन इन फैसलों पर अमल नहीं किया जाता. बाबरी विध्वंस और गोधरा कांड जैसे गंभीर मामलों पर आयोग गठित कर दिए जाते हैं. और सालों की जाँच प्रक्रिया के बाद इन आयोगों की रिपोर्ट ही कटघरे में खड़ी हो जाती है. इन समस्याओं का एक मुख्य कारण यह भी रहा कि देश में जातीय और भाषाई अस्मिता पुनः सतह पर आ गई. जिसके बाद महाराष्ट्र में जातिवाद से प्रेरित नारे, जाती और क्षेत्रीयता के आधार पर लोगों से मारपीट, तेलंगाना मुद्दा इत्यादि उभर कर सामने आये. इन सबके बीच पड़ोसी मुल्कों से जेहाद के नाम पर देश में आतंकवाद को बढ़ावा देने से देश की आतंरिक और बाहरी सुरक्षा पर कई सवाल खड़े कर दिए हैं. जिस विषय पर गंभीर चिंतन की आवश्यकता है. देश में हिंदूवादी संगठनों का जन्म हों और उनका राजनितिक सपोर्ट होना भी कई सवाल जन्म लेता है. कुछ राजनेताओं का मानना है कि हिन्हुवादी संगठनो के जन्म के पीछे मुस्लिम आबादी में बढोत्तरी, पड़ोसी मुल्कों से गैरकानूनी घुसपैठ, और मुस्लिम अलगाववाद कारण रहे हैं. लेकिन इन सब का क्या ? कहीं न कहीं देश आतंरिक रूप से बंटता और कमजोर होता जा रहा है. धर्मवाद, क्षेत्रवाद, जातिवाद को बढ़ावा मिल रहा है. और वोट बैंक की राजनीती अभी भी जारी है. कोई राजनैतिक दल प्रत्यक्ष रूप से धर्म, क्षेत्र और जाति का सहारा लेकर वोट बैंक की राजनीती कर रहा है. तो कोई अप्रत्यक्ष रूप से. लेकिन इसका खामियाजा भुगतना पड़ रहा है देश के उस जनता को जो कमाने-खाने और आगे बढकर देश हित में कुछ करना चाहते हैं.

वोट बैंक की राजनीती का ही नतीजा है, कि पिछले दो दशकों में मुस्लिम समुदाय में से सबसे ज़्यादा संख्या में आतंकवादी और अलगाववादी उभरकर सामने आये हैं. मालेगांव धमाको के बाद एटीएस ने हिंदू आतंकवाद की बात कही थी. हिंदू आतंकवाद जैसी कोई चीज़ इस देश में है, या नहीं इस पर संदेह अभी भी बरकरार है. लेकिन कहीं न कहीं यह भी वोट बैंक की राजनीती का ही नतीज़ा है. इस बात में कोई संदेह नहीं कि देश में कुछ लोग जेहादी विचारधारा से प्रभावित हुए हैं. और देश में अपनी गतिविधियां चला रहे हैं. सिमी जैसे संगठन ऐसी ही विचारधारा की उपज है. लेकिन देश के आम मुस्लिम और इन जेहादियों में ज़मीन-आसमान का फर्क दिखता है. लेकिन इन सबसे दोनों समुदायों के बीच जो दरार पैदा हुई है. भले ही वह आतंकवाद न हो. लेकिन देश में सम्प्रदायिक विभाजन जैसी संभावनाएं ज़रूर उत्पन्न हुई हैं. इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता.

यहाँ बात हिंदू या मुस्लिम की ही नहीं है. भारत के ऊतर पूर्व के नगा क्षेत्रों में सबसे पहले अलगाववाद की आग लगी थी. जिसके बाद यह आसाम, त्रिपुरा और पश्चिम बंगाल तक फ़ैली. इन क्षेत्रों में अलगाववाद के पीछे यहाँ के निवासियों की उपेक्षा तो है ही साथ ही पड़ोसी मुल्कों से इस चिंगारी को भडकाने में मदद भी हैं. आसाम भी वर्षों तक बंगलादेशी घुसपैठ, अल्फा विद्रोह और उसके विदेशी संबंधो के चलते अशांत रहा है. अब जम्मू काश्मीर है. हालांकि भारत-बंगलादेश के बीच हुए समझौते के बाद आसाम में स्थिति में कुछ सुधार हुआ है.

भारत के अंदर एक अलग भारत नहीं होना चाहिए. यह समस्या धीरे-धीरे विकराल रूप धारण करती जा रही है. इस समस्या का निदान नौकरशाही से नहीं हो सकता. अराजकता का क्रम अगर आगे चलता रहा. तो आने वाले समय में हमें और भी कई परेशानियों का सामना करना पड़ेगा, इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता. आज भी भारत आर्थिक और सामाजिक तौर पर विभाजित है. दो धर्मो के बीच की खाई, शहरी और ग्रामीण जनता के बीच की खाई तथा क्षेत्रवाद की खाई को पाटना इतना आसान नहीं होगा. भारत में भले ही हाल ही के वर्षों में आर्थिक सुधारों ने रफ़्तार पकड़ी हो. लेकिन इसके अलावा दूसरे मोर्चे पर पर आतंरिक अराजकता के साथ बाहरी खतरे ने नई चिंताओं को जन्म दे दिया है. इन सभी समस्याओं का समाधन तभी संभव है जब कुशल राजनीतिक नेतृत्व, आर्थिक वृद्धी तथा सैन्य ताकत में बढोत्तरी के साथ-साथ नागरिकों की एकजुटता जो क्षेत्रवाद, धर्मवाद, और जातिवाद से परे हो.

February 22, 2010

डीएलएफ-आईपीएल : खेल या खेल का व्यावसाय ?

(कमल सोनी)>>>> डीएलएफ-आईपीएल एक खेल नहीं खिलवाड है. इसका सीधा अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब आईपीएल के तीसरे संस्करण के लिए बोली लगे जा रही थी. तब किसी भी टीम ने पाकिस्तानी खिलाडियों को नहीं चुना. यकीनन इससे पाकिस्तान क्रिकेट बोर्ड और पाकिस्तानी खिलाडियों की बेइज्जती हुई है. दरअसल भारत पकिस्तान के बीच मौजूदा तनाव की कीमत इन पाकिस्तानी खिलाडियों को चुकानी पडी है. लेकिन एक अहम सवाल यहाँ जन्म लेता है कि जिस देश में क्रिकेट एक जूनून की तरह है. वहाँ इस खेल को सरहदों में बांधना कितना उचित है. हलाकि इस खिलवाड की कीमत सिर्फ पाकिस्तान क्रिकेट बोर्ड और पाकिस्तानी खिलाडियों को ही नहीं चुकानी पडी. बल्कि शाहरुख, अमिताभ, आमिर खान, समेत कई बड़ी हस्तियों को भी इसकी कीमत चुकानी पडी. जब इस खिलवाड पर राजनीति हावी हुई. जिसके बाद शिवसेना ने वोट बैंक की राजनीती करनी शुरू की. और यह सिलसिला अभी भी जारी है. चारों तरफ से आरोप प्रत्यारोपों का दौर चल रहा है. और तमाम वॉलीवुड हस्तियों को शिवसैनिकों के गुस्से का सामना करना पड़ रहा है.

पाकिस्तानी खिलाडियों के साथ जो कुछ भी हुआ वह कम नहीं है. भारत पकिस्तान मौजूदा तनाव के मद्देनज़र पहले पाकिस्तानी खिलाडियों से पीसीबी से अनापत्ति प्रमाण पात्र लेन को कहा गया. जब उन्होंने अनापत्ति प्रमाण पत्र ले लिया. तो उनसे सरकार से एनओसी लें. खिलाडियों के एनओसी ले लेने के बाद उनसे कहा गया कि वे भारत से वीजा ले लें. जब उन्होंने वीजा के लिए आवेदन किया तो उन्हें कहा गया कि यदि उन्हें आईपीएल में चुन लिए जाएगा तो उन्हें वीजा मिल जायेगा. जिसके बाद आईपीएल ने ११ पाकिस्तानी खिलाडियों को उन खिलाडियों की सूची में शामिल कर लिया जिनकी बोली लगाईं जानी थी. जिसके बाद बोली लगी तो सभी पाकिस्तानी खिलाड़ी इस बात का इन्तेज़ार करते रहे कि कौन उन्हें खरीदेगा. लेकिन किसी भी पाकिस्तानी खिलाड़ी पर किसी भी टीम ने कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई. यकीनन यह पाकिस्तानी खिलाडियों के लिए ही नहीं बल्कि एक खेल के लिए भी अपमानजनक है.

बीसीसीआई और टीम मालिकों ने झाडा पल्ला :- इस पूरे घटना क्रंम के बाद जब चौतरफा आरोप प्रत्यारोप का दौर शुरू हुआ तो बीसीसीआई और आईपीएल टीम मालिकों ने इस विवाद से अपना पल्ला झाड लिया. बीसीसीआई और आईपीएल टीम मालिक अलग अलग तर्क दे रहे हैं. बीसीसीआई का कहना है कि आईपीएल एक अलग संस्था है. उसका बीसीसीआई से कोई लेना देना नहीं है. आईपीएल के सभी फैसले लेने के लिए वह स्वतंत्र है. दूसरा टीम मालिकों ने भी अपने को शुद्ध व्यावसायी दर्शाते हुए कहा कि भारत पाकिस्तान के मौजूदा हालत यही दर्शाते हैं कि दोनों देशों के रिश्तों का कोई भरोसा नहीं. ऐसे में वे अपनी पूंजी ऐसे खिलाडियों पर नहीं लगा सकते जो उनके लिए असमय संकट पैदा कर दें. हलकी यह सच भी है कि टेम मालिकों के लिए आईपीएल सिर्फ एक टूर्नामेंट न होकर एक धंधा है. और धंधे में भावनाओं की नहीं सिर्फ मुनाफे की जगह होती है. उन्हें किसी खिलाड़ी के जस्बात और किसी देश के अपमान से कोई मतलब नहीं. ऐसे में पाकिस्तानी क्रिकेटरों के साथ सहानुभूति के अलावा उनके पास कुछ और नहीं था. खेल मंत्री एमएस गिल ने भी आईपीएल को क्रिकेट में एक व्यापारिक आंदोलन करार देते हुए यह कह दिया कि सरकार इसमें कुछ नहीं कह सकती. हालाकि गृह मंत्री पी चिदंबरम ने अपने एक बयान में कहा था कि आईपीएल में पाकिस्तानी खिलाडियों को मौक़ा दिया जाना चाहिए था. इस कदम से क्रिकेट का नुक्सान हुआ है.

पहले से नहीं की स्थिति साफ़ :- मुबई हमलों के बाद पहले ही साफ कर दिया गया था कि पाकिस्तानी खिलाडियों की खेल पाना संभव नहीं होगा. लिहाजा बगैर पाकिस्तानी खिलाडियों के आईपीएल साउथ अफ्रिका में अपनी पूरी चमक धमक के साथ संपन्न हुआ. लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ. यदि आईपीएल की तरफ से पहले ही यह कह दिया जाता कि किसी भी पाकिस्तानी खिलाड़ी को आईपीएल में खेलने की अनुमति नहीं मिलेगी. तो शायद यह विवादास्पद स्थिति निर्मित नहीं होती. हलाकि पाकिस्तानी खिलाडियों के बिना अब यह तमाशा कितनी चमक धमक के साथ होगा यह देखना बेहद दिलचस्प होगा.

बहलहाल भारत-पाकिस्तान के रिश्तों में पहले भी कडूआहट और मिठास का सिलसिला चलता रहा है. और आगे भी चलता रहेगा. जब कभी कोई बड़ा आतंकी हमला होता है. भारत पाकिस्तान के रिश्तों में कडूआहट आ जाती है. और समय के साथ बातचीत का दौर भी शुरू हो जाता है. फिर कभी भारत पकिस्तान मैत्री मैच खेल दोनों देशों में मधुरता लाने का प्रयास करते हैं. लेकिन फिर इन प्रयासों पर आतंकी संगठन पानी फेर देते हैं. और दोनों देशों के बीच कडूआहट आ जाती है. लेकिन दोनों देशो के बीच की इस तपिश को राजनीतिक रंग न देते हुए इसे मैदान से दूर रखा जाना चाहिए. क्योंकि अभी राष्ट्र मंडल खेलों का आयोजन होगा वहाँ भी पाकिस्तानी टीम आयेगी. इसके बाद क्रिकेट वर्ल्ड कप आयोजन भी भारत में ही होना है. इसके लिए भी पाकिस्तानी क्रिकेट टीम आयेगी. इसीलिये यह ज़रूरी है कि यदि कहीं कि आग जल रही है. तो खोखली राजनीति से प्रेरित होकर उस पर घी डालने के बजाय उस पर पानी डाला जाए तो ज़्यादा बेहतर होगा.

February 20, 2010

असिस्टेड सुसाइड, 'ह्त्या या मदद' ?


(कमल सोनी)>>>> किसी को आत्महत्या में मदद करना 'हत्या है या फिर सहायता' इस विषय पर एक नई बहस छिड़ गई है. असिस्टेड सुसाइड को लेकर इसके समर्थकों और विरोधियों में वैचारिक मतभेद उभरकर सामने आये हैं. आत्म ह्त्या में मदद करने वाले भाले ही अपने परिचितों, रिश्तेदारों और दोस्तों की मौत आसान बना रहे हों. लेकिन इसको लेकर कई विवाद हैं. लोगों का यह भी कहना है कि असिस्टेड सुसाइड एक ह्त्या है. लोगों का कहना है कि असिस्टेड सुसाइड को कानूनी मान्यता मिल जाने पर इसका दुरुपयोग होने लगेगा. और अपराधी इस कानून का सहारा लेकर बच निकलेंगे. हालाकिं विश्व में कई देश ऐसे हैं. जहां असिस्टेड सुसाइड को कानूनी मान्यता है. स्विटज़र लैंड को इस मामले में सबसे आगे जाना जाता है. इसके अलावा बेल्जियम, कनाडा, चीन और अमेरिका में भी असिस्टेड सुसाइड को कानूनी मान्यता है. इसके अलावा दुनिया भर की कई संस्थाएं भी असिस्टेड सुसाइड का समर्थन करती हैं.

असिस्टेड सुसाइड सही या गलत :- असिस्टेड सुसाइड यानी आत्म ह्त्या में मदद करना सही है या गलत इसको लेकर विवाद है. विवाद का मुख्य कारण एक निजी समाचार चैनल की एंकर गोसलिंग है . जिसने अपने प्रेमी को आत्महत्या में मदद की थी. गोसलिंग ने स्वीकार किया है कि उन्होंने दर्द से पीड़ित प्रेमी को आत्महत्या में मदद कर उसे हमेशा के लिए राहत दी है. मामला यह है कि गोसलिंग का प्रेमी घातक बीमारी एड्स से पीड़ित था. गोसलिंग का कहना है कि "कुछ समय पहले मेरे प्रेमी ने मुझसे एग्रीमेंट किया था. जिसमें लिखा है कि जब उसे बहुत दर्द हो और मौत के अलावा कोई रास्ता न हो तो में उसे मौत की नींद सुला दूं. और मैंने जो कुछ भी किया एग्रीमेंट के तहत किया."

असिस्टेड सुसाइड को लेकर कोई सहमति दर्शा रहा है तो कोई असहमत हैं. नेशनल काउन्सिल फॉर पैलियातिव केयर, एज कंसर्न, हेल्प द होस्पीशीज इत्यादि के किये गए सर्वे में ३७३३ डॉ. को शामिल किया गया. जिसमें ६५ फेआसदी डॉ. ने आत्महत्या में मदद को गलत करार दिया है. उन्होंने यह भी कहा कि इसे कानूनी मान्यता दिया जाना गलत है. वहीं दूसरी और अमेरिका में १५६० नर्सों पर किये गए सर्वे में यह तथ्य निकलकर सामने आया है कि "दर्द से मौत के करीब पहुंचे मरीज़ के लिए यह सही है. उनका कहना है कि गंभीर रूप से बीमार, और मरणासन्न स्थिति में यदि कोई मरीज हो. या फिर उसके शारीरिक अंगों एन काम करना बंद कर दिया हो ऐसी स्थिति में उसे दर्द से छुटकारा दिलाना पाप नहीं है. कुछ लोगों ने असिस्टेड सुसाइड को "ह्त्या का लाइसेंस" करार दिया है.

कई देशो में है कानूनी मान्यता :- बेल्जियम में सुसाइड के लिए आवेदन कर अनुमति मंगाने के इजाजत है. वह व्यक्ति जो बीमार है, और वयस्क है और उसकी बीमारी का कोई उपचार न हो सकता हो, ऐसी स्थिति में यदि मरीज के साथ दो डॉ. सहमती प्रमाण पत्र दे. तो असिस्टेड सुसाइड की अनुमति मिल सकती है. विपरीत कनाडा में भी असिस्टेड सुसाइड और सुसाइड करना जुर्म नहीं है बल्कि अपने शरीर को किसी तरह की कोई क्षति पहुँचाना अपराध ज़रूर है. वहीं चीन तथा अमेरिका के तीन राज्यों में भी असिस्टेड सुसाइड के लिए अनुमति लेने का प्रावधान है. इन मामलों में स्विट्जरलैंड सबसे आगे है. लोग जाकर मर्सी किलिंग, असिस्टेड सुसाइड, सुसाइड के लिए स्विट्जरलैंड जाते हैं. यही वजह है कि स्विट्जरलैंड को दुनिया का सुसाइड पॉइंट कहा जाता है.

बदल सकता है आत्महत्या का मददगार कानून :- स्विट्जरलैंड सरकार जल्द ही अपने देश के एक विवादित कानून में संशोधन कर सकती है जिसके तहत लोगों को आत्महत्या करने में मदद मिलती है। सरकार ने अब इसमें बदलाव की ठान ली है और संशोधन के प्रस्ताव पेश किए जा रहे हैं। दरअसल, इस नीति के तहत गम्भीर रूप से बीमार लोगों को डॉक्टरी सलाह पर आत्महत्या करने का हक दिया गया है। लेकिन इसकी आड़ में ऎसे लोगों को अपना जीवन खत्म करने में मदद की जा रही है जो गम्भीर रोगी नहीं हैं।

इस विषय में आपके क्या विचार हैं ?


February 19, 2010

दुष्कर्म के लिए महिलाएं भी ज़िम्मेदार - रिपोर्ट


* "द वेक अप टू रेप" रिपोर्ट पर विवाद

(कमल सोनी)>>>> दुनिया भर में आये दिन बलात्कार के कई मामले सामने आते हैं. इसीलिये बलात्कार जैसे संगीन मामलों के पीछे छिपे कारणों का आंकलन करने के लिए ब्रिटेन में एक अध्ययन के आधार पर एक रिपोर्ट तैयार की गई है. हाल ही में जारी यह रिपोर्ट विवादों में घिर गई है. रिपोर्ट के मुताबिक "५४ % महिलाओं का मानना है कि बलात्कार की घटना के लिए महिलाएं ही ज़िम्मेदार होती हैं" रिपोर्ट के इस खुलासे के बाद विवाद की स्थिति निर्मित हो गई है. और कई स्वयंसेवी संगठन इसका जमकर विरोध कर रहे हैं. रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि बलात्कार के लिए अपराधी हे नहीं पीडिता भे ज़िम्मेदार होती हैं. वहीं इस रिपोर्ट का विरोध करने वालों का अपना तर्क है. विरोधियों ने रिपोर्ट की विश्वसनीयता पर सवाल उठाते हुए कहा कि बलात्कार एक अपराध है. और इसके लिए महिलायें और हालात ज़िम्मेदार नहीं होते.

खास बात यह है कि जिन संगठनो ने इस रिपोर्ट के खिलाफ मोर्चा खोला है उनमें कई संगठन पुरुष प्रधान हैं. जिनका कहना है कि "रिपोर्ट सिर्फ आपत्तिजनक ही नहीं बल्कि सिरे से ख़ारिज करने लायक है" उनका यह भी कहना है कि रिपोर्ट के तथ्यों को यदि आधार बना लिया जाए तो बलात्कार की पीड़ित महिला को न्याय मिलने में बेहद मुश्किलें पैदा होंगी. कुछ महिलाओं ने भी इस रिपोर्ट पर आपति जताई है उनका कहना है कि जो पीड़ित महिला खुद यह कैसे कह सकती है कि वह भी जिम्मेदार है. हालाकि दुष्कर्म के ऐसे कई मामले भी सामने आये हैं. जिनमें पीडिता का बयान सच नहीं था. सुप्रीम कोर्ट ने भी बलात्कार के एक मामले की सुनवाई के दौरान कहा था कि इस तरह की घटनाएँ और आरोप झूठे भी हो सकते हैं. इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने आरोपी को 'बेनिफिट्स ऑफ डाउट' के आधार पर रिहा कर दिया था.

रिपोर्ट के मुताबिक ५४%महिलाएं मानती हैं कि दुष्कर्म के लिए महिलाएं भी ज़िम्मेदार होती हैं. तो २४ प्रतिशत महिलाओं ने माना कि छोटे और भडकाऊ कपडे तथा नशे की हालत अजनबियों को दुष्कर्म के लिए प्रेरित करता है. रिपोर्ट में यह भी खुलासा किया गया है कि दुष्कर्म की शिकार ५ महिलाओं में से १ महिला शर्मिन्दिगी और बदनामी के डर से रिपोर्ट नहीं लिखवाती हैं. परिणाम स्वरुप अपराधियों के हौसले और बुलंद होते हैं. रिपोर्ट में यह भी खुलासा किया गया है कि १३ प्रतिशत पुरुषों ने इस बात को स्वीकार किया है कि उन्होंने अपने महिला साथी के नशे के हालत का फ़ायदा उठाया है. वहीं १४% महिलाओं ने यह भी माना कि दुष्कर्म के सभी मामले सच नहीं होते. कई मामलों में द्वेष या बदला लेने की प्रवृत्ति के चलते झूठे आरोप लगाये जाते हैं. ब्रिटेन के पोर्टमैन ग्रुप ने इस रिपोर्ट के बारे में कहा है कि "दुष्कर्म की शिकार तीन में से एक महिला अत्यधिक नशे में होती है. ऐसी महिलायें नहीं जानते कि वे कहाँ और किसके साथ हैं. और वे रेप जैसी घटनाओं का शिकार होती हैं ऐसे में उन्हें भी अपराध में शामिल माना जाना चाहिए." रिपोर्ट में पारिवारिक यौन उत्पीडन के मामले में कुछ भी नहीं कहा गया है.

भारत में भी पिछले कुछ समय में बलात्कार की घटनाओं में इजाफा हुआ है. नेशनल क्राइम रिकोर्ड ब्यूरों के आंकड़ों पर नज़र डालें तो पता चलता है कि भारत में वर्ष २००७ में दुष्कर्म के २०,७३७ मामले दर्ज हुए हैं. वर्ष २००३ - २००७ के बीच बलात्कार के मामलों की संख्या में बढोत्तरी हुई है. वर्ष २००४ में ही १५% की वृद्धी दर्ज की गई. वहीं २००५ में २००३-२००४ के मुकाबले ०.७% की बढोत्तरी हुई. तथा वर्ष २००६ में ५.४% २००५ के मुकाबले में. व ७.२% २००७ में २००६ के मुकाबले वृद्धी दर्ज की गई है. बलात्कार के मामले में चौकाने वाला तथ्य यह है कि इन मामलों में मध्यप्रदेश अव्वल रहा है. मध्यप्रदेश में सर्वाधिक ३०१० मामले दर्ज हैं. जो कि पूरे भारत में दर्ज बलात्कार के मामलों से लगभग १४% से भी अधिक है.

February 13, 2010

आओ मनाएँ प्रेम दिवस (वेलेंटाइन डे विशेष)

दुनिया में शायद ही कोई शख्स ऐसा होगा जो प्यार के एहसास से अछूता होगा. प्यार चाहे वह किसी भी रूप में क्यों न हो. एक ऐसा सुखद एहसास देता है. जिसे शब्दों में बयान कर पाना बेहद कठिन होता है. इसलिए 14 फरवरी को वेलेंटाइन डे मनाया जाता है. वेलेंटाइन डे संत वेलेंटाइन की स्मृति में मनाया जाता जिन्हें प्रेम का पक्ष लेने पर 14 फरवरी को फांसी पर चढ़ा दिया गया था. वेलेंटाइन डे यानि प्रेम दिवस. वैसे तो यह दिन हर उम्र वर्ग के व्यक्तियों के लिए होता है. लेकिन इस दिन को लेकर सबसे ज़्यादा उत्साह और इन्तेज़ार होता हैं युवा पीढी में. नया साल आते ही युवाओं को इंतजार होता है इस प्रणय दिवस का. और हर युवा चाहता है कि इस दिन वह कुछ अलग, कुछ खास दिखे ताकि हर एक की नजरें उनकी तरफ हों. युवा प्रेमी युगल इस दिन को मनाने काफी तैयारियां करते हैं. वैसे भी जब बात प्रिय से मिलने की आती है तो आईने के साथ आपका रिश्ता गहरा हो जाता है और जब दिन वेलेंटाइन जैसा खास हो तो किसी प्रश्न की कोई गुंजाइश ही नहीं होती. वाकई जब प्यार किसी से होता है तो हर दिन कोई नया अफसाना बनता है और फिर आगे बढ़ती है प्रेम कहानी. हर प्रेमी युगल अपने प्यार को हमेशा अपने साथ रखने का ख्वाहिशमंद होता है. हर कोई चाहता है कि महबूब के साथ गुजरे हर पल का लेखा-जोखा उसके पास हो ताकि तन्हाइयों में वह उन पलों को याद करके एक बार फिर उस सुखद अहसास की अनुभूति कर सके. आज हर दिल धड़क रहा है, प्यार के इज़हार के लिए, प्यार एक सुहाना अहसास है. साथ ही मन की सबसे प्रभावशाली प्रेरणा भी है. दुनिया में ऐसा कोई भी नहीं जो इस खुशनुमा एहसास से अछूता हो. प्यार के बारे में सदियों से बहुत कुछ लिखा पढा और कहा जाता रहा है. लेकिन फिर भी प्यार एक अबूझ पहेली ही रहा हैं. तभी तो इसे समझ पाने में भूल हो जाती है सिर्फ इसीलिये क्योंकि वास्तव में इसे शब्दों में बयाँ कर पाना हर किसी के बस की बात नहीं. 14 फरवरी एक ऐसा दिन है जो प्रेमियों के लिए सभी त्योहारों से भी बढ़कर है. इस दिन उनका जीवन अपने वेलेंटाइन के प्यार की सतरंगी रोशनी से जगमगा उठता है और हल्की मीठी सर्दी की तरह सुस्त पड़े जीवन में गुनगुनी धूप की तरह प्यार की दस्तक लेकर आता है.

प्यार वास्तव में किसी के प्रति त्याग और समर्पण की प्रवृत्ती है। प्रेम के कई रूप हैं, प्रेम में सत्य, निष्ठा, आस्था, भरोसा सब है, लेकिन लादा गया समझौता नहीं है प्रेम. इसमें किसी प्रकार की अपेक्षा और स्वार्थ नहीं रह जाता. प्यार तभी प्यार कहा जा सकता है जब उसमें पवित्रता, संवेदना, त्याग, गहराई, साधना, श्रद्धा, और विश्वसनीयता हो. प्यार को सच और झूठ के तराजू में भी नहीं तौला जा सकता. प्यार हमेशा झुकना सिखाता है. बुराई से लड़ने को प्रेरित करता है. सदा आगे बढ़ने का मार्ग दिखाता है. प्रेम का यह पर्व वेलेंटाइन डे महज प्रेम करने या फिर सिर्फ एक त्यौहार की तरह मना लेने का ही अवसर नहीं है, बल्कि प्रेम को समझने का वाला दिन है. वेलेंटाइन-डे भले ही पश्चिम से आया है, जिसकी परिणिति में विरोध के स्वर निकल रहे हैं. लेकिन हम उस देश के वासी हैं जहाँ राधा कृष्ण के अमर प्रेम की पूजा की जाती है. हाँ महज़ कुछ मिथ्यावादी और घटिया राजनीति से प्रेरित लोगों के कारण प्यार को ही पूरी तरह से नकारना या फिर उसे धर्म और संस्कृति के खिलाफ बताना भी उचित नहीं है.

क्यों मनाया जाता है वेलेंटाइन डे :- रोम में तीसरी शताब्दी में सम्राट क्लॉडियस का शासन था। उसके अनुसार विवाह करने से पुरूषों की शक्ति और बुद्धि कम होती है. उसने तानाशाह पूर्ण आदेश जारी कर कहा कि उसका कोई सैनिक या अधिकारी विवाह नहीं करेगा. संत वेलेंटाइन ने इस क्रूर आदेश का विरोध किया. उन्हीं के आह्वान पर अनेक सैनिकों और अधिकारियों ने विवाह किए. आखिर क्लॉडियस ने 14 फरवरी सन् 269 को संत वेलेंटाइन को फाँसी पर चढ़वा दिया. तब से उनकी स्मृति में प्रेम दिवस मनाया जाता है.

आज हमें वेलेंटाइन डे मनाने की ज़रूरत है क्योंकि आज हमारे समाज में प्रेम को गलत नज़रिए से देखा जाता है. आज हमारे समाज में व्याप्त रूढीवादी परम्पराएँ रोम के सम्राट क्लॉडियस की तानाशाह रवैये से कम नहीं हैं. संत वेलेंटाइन भले ही पाश्चात्य संस्कृति से रहे हो लेकिन वे हमारे भी संत हो सकते हैं. यदि उनके सन्देश हमारी जीवन में खुशहाली ला सकते हैं तो क्यों नहीं हम भी 14 फरवरी को प्रेम दिवस मनाएं. प्रेम करने की आजादी प्रत्येक स्त्री-पुरुष का नैसर्गिक अधिकार है. लेकिन हमारे परंपरागत समाज में लडके और लडकी के जीवन के हर फैसले को उसकी इच्छा या अनिच्छा जाने वगैर उस पर थोपे जाते है. वे सभी परिस्थितियां हमारे यहां भी मौजूद हैं जिनमें राजा की तो नहीं, पर परिवार और समाज की तानाशाही से युवा हृदयों की तमन्नाओं का गला घोंट दिया जाता है. धर्म और समाज मूलतः धरती पर जीवन की समस्याओं के समाधान के लिए अस्तित्व में आये थे. इनके अस्तित्व का एक मुख्य कारण यह भी रहा कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी और समूह में रहना पसंद करता है. जिसे हम समाज कहते हैं. लेकिन हमारे समाज में बने नियम क़ानून आज की मौजूदा परिस्तिथियों में हमारे युवाओं की तमन्नाओं का गला घोंट रहे हैं. संत वेलेंटाइन की स्मृती में मनाया जाने वाले प्रेम दिवस एक ऐसा पर्व है. जिसके माध्यम से युवा धर्म और समाज के तानाशाह रवैये को तोड़ सकते हैं......
हैप्पी वेलेंटाइन डे

February 11, 2010

सबसे ज़्यादा होशियार शार्क पर विलुप्ती का संकट

(कमल सोनी)>>>> आप सभी ने शार्क का नाम तो अवश्य सुना होगा. आइये उसके बारे में जाने कुछ खास बातें. शार्क समुद्र में रहती है, यह तो सभी जानते हो, लेकिन यह समुद्र के अन्य प्राणियों में सबसे बेहतरीन शिकारी तो होती ही है. समुद्री जानवरों में सबसे ज़्यादा होशियार भी होती है. साथ ही अन्य मछलियों से ज़्यादा खूंखार भी. शार्क के विशाल जबड़े ओर बड़े बड़े दांतों के बाल पर यह कछुआ ओर सील जैसे बड़े जानवरों को भी आसानी से अपना निवाला बना लेती है. अपने दाँतों और जबड़ों से यह दूसरी मछलियों, कछुओं यहाँ तक की लकड़ी की नावों तक को काट देती है. यह अपने दाँतों की सहायता से चमड़ी को काट सकती है और हड्डियों को भी चबा सकती है. कुछ दिनों बाद इसके दांत अपने आप ही घिस जाते हैं और उस जगह नए दाँत आ जाते हैं. टाइगर शार्क और सफेद शार्क कभी-कभी मनुष्यों पर भी हमला कर देती हैं, लेकिन ज्यादातर शार्क मनुष्यों से डरती हैं और उन्हें देख कर दूर चली जाती हैं. शार्क की सबसे खास बात होती है उसकी सूंघने की क्षमता. शार्क लगभग १०० किमी दूर से ही अपने शिकार की मौजूदगी का पता लगा लेती है. यह अपने सर पर मौजूद छिद्रनुमा एंतीनों के ज़रिये इस बात का पता लगा लेती है कि शिकार कहाँ छिपा है. वैसे तो सभी एनिमल थोड़ी-बहुत मात्रा में बिजली पैदा करते हैं, लेकिन मात्रा कम होने के कारण यह महसूस नहीं होती है. शार्क ही ऐसी मछली है, जिसमें बिजली महसूस की जा सकती है. अन्य मछलियों की तरह इसमें भी गिल्स स्लिट पाई जाती हैं, जिनकी संख्या 10 होती है. ये पाँच-पाँच दोनों तरफ मौजूद होती हैं. शार्क के तैरने का तरीका बिलकुल अलग होता है. सबसे पहले यह सिर घुमाती है, उसके बाद शरीर और आखिर में अपनी लंबी पूँछ. शार्क की पूँछ नीचे से छोटी और ऊपर से बड़ी होती है. इसके ऐसा शेप होने से इसे तैरने में सहायता मिलती है.

कैसी होती है शार्क :- शरीर बहुत लम्बा होता है जो शल्कों से ढका रहता है. इन शल्कों को प्लेक्वायड कहते हैं. त्वचा चिकनी होती है. त्वचा के नीचे वसा (चर्बी) की मोटी परत होती है. इसके शरीर में हड्डी की जगह उपास्थि (कार्टिलेज) पाई जाती है. शरीर नौकाकार होता है. इसका निचला जबड़ा ऊपरी जबड़े से छोटा होता है. अतः इसका मुँह सामने न होकर नीचे की ओर होता है जिसमें तेज दाँत होते हैं. यह एक माँसाहारी प्राणी है. शार्क के शरीर में देखने के लिए एक जोड़ी आँखें, तैरने के लिए पाँच जोड़े पखने और श्वांस लेने के लिए पाँच जोड़े क्लोम होते हैं. ग्रेट व्हाइट शार्क 15 वर्ष की युवा अवस्था में पूर्ण विकसित होकर लगभग 20 फीट से अधिक हो जाती है. वहीं टाइगर शार्क युवा अवस्था में लगभग 16 फीट की हो जाती है. इन दोनों को ही आक्रामक और घातक प्रजातियों में रखा जाता है. शार्क की स्किन स्मूथ नहीं होती है. इसे छूने पर बिलकुल सैंड पेपर पर हाथ लगाने का अहसास होता है. शार्क बहुत प्रकार की होती है. कुछ शार्क को उनके शेप के अनुसार वर्गीकृत किया जाता है जैसे- कुकीकटर शार्क, हेमरहेड शार्क, प्रिकली डॉम फिश शार्क, वूबबिगांग शार्क और ग्रेट व्हाइट शार्क.

बन सकती हैं डॉलफिन जैसी :- अभी तक यह माना जाता रहा है कि शार्क मछलियां खतरनाक होती हैं. उनका मकसद ही दूसरों को नुकसान पहुंचाना होता है लेकिन अमेरिका के वैज्ञानिकों ने एक चौंकाने वाला रिसर्च पेश किया है, जिसके मुताबिक शार्क मछलियां भी डॉलफिन की तरह आपकी दोस्त बन सकती हैं. यदि उन्हें ट्रेनिंग दी जाए तो वह सभी मनोरंजक कारनामे कर सकती हैं, जिन्हें डॉलफिन्स को ही करते देखा गया है. अमेरिका के सी लाइफ सेंटर्स पर शार्क मछलियों पर कुछ प्रयोग किये गए है. यहां सौ से भी अधिक शार्क मछलियों को डॉलफिन्स की तरह ट्रेनिंग दी गई है. वैज्ञानिकों का मानना है कि शार्क केवल मनुष्यों पर हमले ही नहीं करतीं, बल्कि उन्हें लोगों के मनोरंजन के लिए ट्रेंड भी किया जा सकता है. इन सेंटर्स पर ट्रेनर्स शार्क मछलियों को रंगीन बोर्डस और म्यूजिक के जरिए ट्रेनिंग दी हैं. वैज्ञानिक इवान पैवलोव शार्क को उसी तरह से प्रशिक्षण दे रहे हैं जैसे कुत्तों को दिया जाता है.

विलुप्ती की कगार पर :- शार्क की कई प्रजातियों पर लुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है. ये आकलन पर्यवारण संरक्षण के लिए बने अंतरराष्ट्रीय संघ (आईयूसीएन) ने किया है. इस सूची में 64 प्रकार की शार्क का विवरण है जिनमें से 30 फ़ीसदी पर लुप्त होने का खतरा है. आईयूसीएन के शार्क स्पेशलिस्ट ग्रुप से जुड़े लोगों का कहना है कि इसका मुख्य कारण ज़रूरत से ज़्यादा शार्क और मछली पकड़ना है. हैमरहेड शार्क की दो प्रजातियों को लुप्त होने वाली श्रेणी में रखा गया है. इन प्रजातियों में अक्सर फ़िन या मीनपक्ष को हटाकर शार्क के शरीर से हटा कर फेंक दिया जाता है. इसे फ़िनिंग कहते हैं. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पशु-पक्षियों पर नज़र रखने की कोशिश के तहत आईयूसीएन ने नई सूची जारी कर चेतावनी दी थी. संगठन का कहना है कि शार्क ऐसी प्रजाति है जिसे बड़े होने मे काफ़ी समय लगता है और नए शार्क कम पैदा होते हैं.

रक्षा के लिए पर्याप्त कदम नहीं :- आईयूसीएन शार्क ग्रुप के उपाध्यक्ष सोंजा फ़ॉर्डहैम का कहना है कि ख़तरे के बावजूद शार्क की रक्षा के लिए पर्याप्त क़दम नहीं उठाए गए हैं. उन्होंने कहा है कि राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इन प्रजातियों को बड़े पैमाने पर पकड़ा जा रहा है जिसका मतलब है कि वैश्विक स्तर पर कदम उठाने की ज़रूरत है. संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन ने करीब एक दशक पहले शार्क को होने वाले खतरों से आगाह किया था. कई बार शार्क ग़लती से उन जालों में फँस जाते हैं जो मछली पकड़ने के लिए फेंके जाते हैं लेकिन पिछले कई सालों से शार्क को भी निशाना बनाया जा रहा है ताकि उन्हें माँस, दाँत और जिगर का व्यापार किया जा सके. हैमरहैड जैसी प्रजातियों ख़ास तौर पर शिकार बनती हैं क्योंकि उनके फ़िन काफ़ी उच्च गुणवत्ता के होते हैं. गौरतलब है कि शार्क के फ़िन की एशियाई बाज़ार में काफ़ी माँग है.


February 10, 2010

संगाई हिरण के अस्तित्व पर संकट के बादल.....?



भोपाल (कमल सोनी) 10/फरवरी/2010/(ITNN)>>>> संगाई दक्षिण इसे वर्मी में थमीं ओर मणिपुरी भाषा में संगाई कहते हैं. दक्षिण एशिया में इस प्रजाती के तीन हिरन पाए जाते हैं पहला थाईलैंड का संगाई, दूसरा वर्मा का संगाई ओर तीसरा मणिपुर का संगाई. भारत में यह हिरन सिर्फ मणिपुर में पाया जाता है. मणिपुर पृथ्‍वी पर एक मात्र ऐसा स्‍थान है जहां ब्रो एंट लर्ड हिरण पाया जाता है जिसे स्‍थानीय भाषा में संगाई कहते हैं। जहां यह संगाई पाए जाते हैं उस स्थान को 1997 में एक नेशनल पार्क घोषित किया गया था, जिसका नाम लोकतक झील रहा गया. जहां का क्षेत्रफल 40 वर्ग किलो मीटर है। यह अनोखी भौतिक विशेषताओं वाला पार्क है जहां लगभग पूरा पार्क पानी की सतह के नीचे डूबा है और जहां वनस्‍पतियों के टुकड़े गुच्‍छा बनाकर तैरते दिखाई देते हैं जैसे घास, झाडियां और मिट्टी जिसे फुमडी कहते हैं। वैसे पर्यटन के लिहाज़ से मणिपुर को संगाई हिरणों के लिए ही जाना जाता है. संगाई के लिए मणिपुर अब अंतिम शरणस्थली है.

किसी समय में सभी जातियों के संगाई हिरण वियतनाम से लेकर मणिपुर तक काफी अधिक संख्या में पाए जाते थे. लेकिन मानवीय अतिक्रमण के चलते लोकतक झील में पाए जाने वाले संगाई का अस्तित्व पर अब संकट के बादल मंडरा रहे हैं. यदि इनके संरक्षण पर ध्यान ना दिया गया तो संगाई हिरण की विलुप्ति निश्चित है. लुप्तप्राय वन्य जीव का दर्ज़ा मिल जाने के बाद भी इनकी संख्या में लगातार गिरावट दर्ज की जा रही है. किसी समय में वियतनाम से लेकर पश्चिमी मणिपुर तक हज़ारों की संख्या में पाए जाने वाले संगाई की संख्या जहां पिछली गणना में १६७ थी तो इस बार वह घटकर १०० रह गई है. अब यदि यह यहाँ से भी समाप्त हो गया. तो धरती से संगाई का नामोनिशान मिट जाएगा. ओर संगाई सिर्फ एक इतिहास बन जायेगा. संगाई की तीनो प्रजातियां लुप्त होने की कगार पर हैं जिनमें सबसे ज़्यादा दयनीय स्तिथि मणिपुर संगाई की है. थाईलैंड में संगाई की एक चौथे प्रजाती भी हुआ करती थी. लेकिन पर्याप्त संरक्षण के आभाव में १९३२ से १९३७ के मध्य यह प्रजाती विलुप्त हो गई.

संगाई का बसेरा :- संगाई का बसेरा लोकतक झील के दक्षिणी हिस्से में तैरती कई की मोटी परत पर उगी हुई घास है. संगाई का यह बसेरा 40 वर्ग किलो मीटर तक फैला हुआ है. इसका मुख्या क्षेत्र १५ वर्ग किमी. है जहां ये संगाई निवास करते हैं. लोकतक झील पूर्वोत्तर भारत की ताज़े पानी की सबसे बड़ी झील है. जिसमें वर्ष भर पानी भरा रहता है. संगाई को इन तैरती घास पर रहना पसंद है. सन १९५२ में मणिपुर सरकार ने इस प्रजाति को विलुप्त घोषित कर दिया था. लेकिन कुछ समय बाद इनका झुण्ड दिख जाने पर इनके संरक्षण ओर इनकी संख्या बढ़ाने की दिशा में काम शुरू हुआ. लेकिन कोई सार्थक परिणाम नहीं मिले.

कैसे दिखते हैं :- संगाई एक सुदर ओर शानदार हिरण है. तथा दूर से दिखने पर साम्भर की तरह ही दिखता है. लेकिन इसका आकार संभार से छोटा होता है. संगाई के कन्धों की लम्बाई १०० सेंटीमीटर से लेकर १२० सेंटीमीटर तक होती है. पूंछ को मिलाकर इनकी कुल लम्बाई १२० सेंटीमीटर से १५० सेंटीमीटर रहती है. नर संगाई का रंग कालापन लिए हुए गहरा भोरा या बादामी होता है. इसकी एक खूबी ओर यह होती है कि यह मौसम के अनुसार अपना रंग बदलता है. सर्दियों में गहरा भूरा तथा गर्मियों में हल्का भूरा हो जाता है.

दिवाचार होते हैं :- संगाई हिरण दिवाचार होते हैं अर्थात ये दिन में भोजन करते हैं ओर रात्री में आराम करते हैं. ये मुख्यतः झुंडों में प्रातः काल से ही चरना आरम्भ कर देते हैं. इसे खुले मैदानों, झाडी वाले समतल वनों, तथा दलदल वाले जंगलों में चरना पसंद है.

संरक्षण के लिए स्थानीय प्रयास :- विलुप्ती की कगार पर पहुँच चुके संगाई के संरक्षण के लिए स्थानीय स्तर पर भी कई प्रयास किये जा रहे हैं. संगाई की लगातार कम संख्या होते देख पार्क के आसपास के लोगों ने इनके संरक्षण के लिए क्लब का गठन किया है. इसके अलावा उनके साथ कुछ गैर सरकारी संगठन ने मिलकर इन्वायरमेंटल सोशल रिफौर्मेशन एंड संगाई प्रोटेक्शन फोरम बनाया है. इनकी इकाइयां झील के चारों तरफ हैं जो संगाई के साथ साथ अन्य दुर्लभ प्राणियों के संरक्षण की दिशा में काम कर रहे हैं.

शिकार विलुप्ती का कारण :- संगाई की लगातार कम होती संख्या के पीछे इसका शिकार मुख्या कारण माना जा रहा है. मानवीय हस्तक्षेप की वजह से संगाई का अस्तित्व तो वैसे भी संकट में था रही सही कसर उग्रवादियों ने पूरे कर दी. दूसरी ओर संगाई का मुख्या बसेरा लोकतक झील का विनाश भी आरम्भ हो गया. जो कि संगाई के लिए शुभ नहीं है.

February 8, 2010

करोड़ों खर्च: फिर भी नहीं सुधरी नदियों की दशा

(कमल सोनी)>>>> देश में बहने वाली नदियों का बढता प्रदूषण बेहद चिंता का विषय बनता जा रहा है. इसका मुख्य कारण है कारखानों ओर शहरों का गंदा पानी प्रवाहित किया जाना. जो नदियाँ प्रदूषण का दंश झेल रही हैं उनमें यमुना, नर्मदा ओर गंगा देश की प्रमुख नदियाँ भी शामिल हैं. यमुना के प्रदूषण स्तर का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि यमुना में ओक्सिजन लेवल शून्य तक पहुँच गया है. सबसे अलग भारत जैसे सांस्कृतिक देश में धार्मिक महत्व वाली इन नदियों में कारखानों ओर शहरों का गंदा जल प्रवाहित किया जाना बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है. इन नदियों की सफाई के लिए जहां करोड़ों खर्च किये जा रहे हैं वहीं इन्हें प्रदुषण मुक्त करने के कोई सार्थक परिणाम सामने नहीं आ रहे. मध्यप्रदेश की जीवनदायनी और धार्मिक महत्व रखने वाली नर्मदा नदी भी अब प्रदूषित नदियों की श्रेणी में आ गई है चिंता की बात तो यह है कि नर्मदा अपने उदगम स्थल अमरकंटक में ही सबसे ज़्यादा मैली हो गई है मध्यप्रदेश प्रदूषण निवारण मंडल की एक रिपोर्ट के मुताबिक पुण्य दायनी नर्मदा अब मैली हो गई है और यदि अभी इसके प्रदूषण मुक्त करने के प्रयास नहीं किया गए तो आगे इसके और भी अधिक मैली होने की संभावना है रिपोर्ट में यह भी खुलासा किया गया है कि अपने उदगम स्थान से रेवा सागर संगम तक के लगभग १२५० किमी के सफ़र में नर्मदा नदी का जल यदि सबसे ज़्यादा प्रदूषित है तो वह है धार्मिक घाटों पर. साथ ही शहरों का प्रदूषित जल भी नर्मदा में प्रवाहित किया जाता है. दूसरी ओर यमुना के प्रदुषण के बारे में तो सभी परिचित हैं.

सभी प्रयास असफल :- इन नदियों को प्रदूषण मुक्त करने के लिए केंद्र ओर राज्य सरकारें कई सालों से प्रयासरत हैं. लेकिन सरकार के ये प्रयास बिलकुल नाकाफी साबित हो रहे हैं. केंद्र ओर राज्य सरकारों के तमाम प्रयासों के बावजूद देश में लगभग १५० नदियाँ प्रदूषित हैं. इनमें कई तो ऐसी नदियाँ हैं जो कि गंदे नाले में परिवर्तित हो गई हैं. इसका सीधा उदाहरण है मध्यप्रदेश का जबलपुर शहर. जहां का मोती नाला कभी मोती नदी हुआ करता था. लेकिन शहर का गंदा पानी कई दशकों से इसमें बहाए जाने के कारण अब यह मोती नाले में तब्दील हो गया है. ठीक इसी तरह एक रिपोर्ट के अनुसार नदियों को पर्दूशन मुक्त करने के लिए केंद्र सरकार द्वारा नदी संरक्षण योजना चलाई जा रही है. यह योजना देश के २० राज्यों की ३८ नदियों को प्रदूषण मुक्त करने का काम कर रही है. इस योजना में १६७ शहरों को शामिल किया गया है. केंद्र सरकार ने गंगा को प्रदूषण मुक्त करने के लिए गत वर्ष गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण का गठन किया. तथा वर्ष २००९-१० में गंगा की साफ़ सफाई के लिएय २५० करोड रु. आवंटित भी किये गए. इससे पूर्व भी १९८५ में तत्कालीन केंद्र सरकार ने गंगा कार्य योजना प्रारम्भ कर ८३७ करोड रुपये गंगा की साफ़ सफाई पर खर्च किये थे बाद में गंगा कार्ययोजना फेज २ प्रारम्भ की गई जिसमे अन्य नदियों यमुना, गोमती, दामोदर ओर महानंदा को भी शामिल कर लिया गया.

बचाया का सकता है यमुना को :- यदि समय रहते सार्थक प्रयास किये गए तो बेहद प्रदूषित नदी यमुना को बचाया जा सकता है. इस बात का खुलासा केंद्रीय जल संसाधन मंत्रालय की एक रिपोर्ट में किया गया है. केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने केंद्रीय जल संसाधन मंत्रालय की रिपोर्ट में कहा है कि अब भी कोशिश कर नर्मदा को बचाया जा सकता है. बोर्ड का कहना है कि यद्दपि यमुना का ओक्सिजन लेवल शून्य तक पहुँच गया है लेकिन फिर भी इसे बचाया जा सकता है. जिसके लिए शीघ्र अतिशीघ्र कार्यवाही करनी होगी. इससे पहले भी केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड दिली जल बोर्ड ओर पर्यावरण मंत्रालय के चेतावनी दे चुका है. लेकिन इच्छाशक्ति के अभाव में इस दिशा में कोई सार्थक प्रयास नहीं किये जा रहे. यमुना के प्रदूषित होने का अंदाजा बोर्ड की एक रिपोर्ट से लगाया जा सकता है. रिपोर्ट के मुताबिक गंगा अपने बहाव क्षेत्र का कुल २ प्रतिशत दिल्ली में बहती है लेकिन इतनी दूरी में ही इसका पानी ७० प्रतिशत प्रदूषित हो जाता है. जिसके बाद यमुना का पानी पीने के लिए तो दूर खेती ओर कपडे धोने के लायक भी नहीं रह जाता. बोर्ड का कहना है कि यमुना को प्रदूषण मुक्त करने के लिए काफी प्रयास किये जाने की आवश्यकता है. युमना के विषय में इस बात का खुलासा भी हुआ है यमुना के २२ किमी बहने से पहले यमुना का पानी इस्तेमाल के लयक होता है लेकिन दिल्ली के बाद इसका पानी इस्तेमाल के लायक नहीं रहता.

कई एजेंसिया प्रयासरत :- मध्यप्रदेश राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अलावा कुछ एजेंसियां भी राज्य की नदियों को प्रदुषण मुक्त करने के लिए प्रयासरत हैं. ये एजेंसियां प्रदेश की जीवनदायनी नर्मदा सहित बेतवा, तापी, बाणगंगा, केन, क्षिप्रा, चम्बल, ओर मन्दाकिनी की साफ सफाई में लगी हुई हैं. इसके अलावा पश्चिम बंगाल में कोलकाता मेट्रोपोलिटन विकास प्राधिकरण गंगा को, उत्तरप्रदेश जल निगम गंगा, यमुन, गोमती को प्रदूषण मुक्त करने प्रयासरत हैं.

क्या हो सार्थक हल :- इन नदियों को यदि जल्द से जल्द स्वच्छ न किया गया तो वो दिन दूर नहीं जब ये नदियाँ सिर्फ इतिहास बनकर रह जायंगी. इन नदियों के प्रदूषण का मुख्य कारण है इसमें प्रवाहित किया जाने वाला कचरा. चाहे वह किसी भी रूप में क्यों न हो. दूसरा सबसे बड़ा कारण है धार्मिक कारण. इन नदियों में प्रतिदिन लोग अपने घरों से पूजा के बाद के अवशेष लाकर बहा देते हैं साथ ही प्रतिदिन स्नान और उसमें कपडे धोना जानवरों को नहलाना इत्यादि अनेकों कारण नर्मदा को प्रदूषित कर रहे हैं. इन सबसे अलग कारखानों का रासायनिक कचरा भी इन नदियों में बहा दिया जाता है. लेकिन यदि इन नदियों में कचरा प्रवाहित होना बंद हो जाए तो इन नदियों का पानी स्वतः स्वच्छ हो सकता है. अन्यथा सारे प्रयास विफल ही साबित होंगे. इन रासायनिक कचरों के नदियों में प्रवाहित होने के कारण इन नदियों में स्वयं को साफ़ करने की क्षमता भी कम हुई है. एक रिपोर्ट के मुताबिक नदियों में एक प्रकार का जीव पाया जाता है जो पत्थरों को जोड़ता है पानी को फिल्टर करता है यह प्रकृति का ही एक स्वरुप है जिससे नदियाँ स्वयं को स्वच्छ रखती हैं लेकिन पिछले कुछ सालों में इसमें कमी के चलते नदियों में स्वयं को स्वच्छ करने की क्षमता में भी कमी आई है यदि आज इन नदियों को बचाने की मुहिम न छेड़ी गई तो वह दिन दूर नहीं जब या तो नदियाँ पूरी तरह से प्रदूषित हो जायेगी या उनका अस्तित्व भी खतरे में पड़ जायेगा इन नदियों को स्वच्छ रखने में धार्मिक, सामाजिक, राजनितिक और प्रशासनिक सभी के सहयोग की आवश्यकता है साथ ही ज़रुरत है आमजनमानस में नदियों के महत्व और आगामी भविष्य में नदियों की ज़रुरत को प्रसारित कर जागरुक बनाया जाए ताकि लोग स्वतः ही इन्हें प्रदूषित करने से परहेज़ करें.

February 4, 2010

क्या भारत में भी वोटिंग अनिवार्यता कानून ज़रूरी....?



(कमल सोनी)>>>> क्या भारत में भी वोटिंग अनिवार्यता ज़रूरी है ? इस सवाल ने एक नई बहस को छेड़ दिया है. बहस इसलिए भी जरूरी है. कि क्या देश की जनता अपने अधिकारों के प्रति जागरूक नहीं है ? या फिर वह नेताओं की वादाखिलाफी से तंग आ चुकी है ? कई बार जनता अपने अधिकारों के मायने भी नहीं जानती. यही मुख्य वजह है कि देश में होने वाले लोकसभा चुनावों से लेकर, विधानसभा, नगरिय निकाय तथा पंचायत स्तर के चुनावों में ज्यादा से ज्यादा ६० प्रतिशत मतदान की खबरें आती हैं. क्या बाकी की ४० प्रतिशत जनता अपने अधिकारों से अनभिज्ञ है. या वह अपने अधिकारों के मायने नहीं जानती. आज़ादी के ६३ साल बीत जाने के बाद मतदान के लिए आमजनमानस को जागरूक करने न जीन कितने जागरूकता कार्यक्रम चलाये गए. फिर भी जनता जागरूक कैसे नहीं हुई ? देश में पहली बार स्थानीय निकाय चुनावों में वोटिंग को अनिवार्य बनाया गया है. इस दिशा में सबसे पहला कदम उठाया है गुजरात सरकार ने. गुजरात विधानसभा में पारित अनिवार्य वोटिंग बिल ने नई बहस को जन्म दे दिया है. इस बिल के पारित हो जाने के बाद कुछ ने इसका स्वागत किया है तो कुछ ने इसे गैर संवैधानिक.

अनिवार्य वोटिंग कानून :- अनिवार्य वोटिंग क़ानून के तहत उसमें एक नियमावली बनाई गई है. क़ानून के अंतर्गत इस नियमावली में उल्लेखित कारणों के अतिरिक्त अगर कोई मतदाता मतदान नहीं करता तो चुनाव आयोग उसे डिफाल्टर वोटर घोषित कर देगा. इतना ही नहीं चुनाव आयोग उस मतदाता को जिसने अपने मताधिकार का प्रयोग नहीं किया उसे दण्डित भी करेगा. यानि नियमावली में उल्लेखित कारणों के अलावा अन्य कोई भी कारण हो आपको मतदान करना की होगा अन्यथा मतदाता को इसका खामियाजा भी भुगतना होगा.

अन्य देशो में भी बना है कानून :- अनिवार्य वोटिंग कानून अन्य देशो में भी बन है. दुनिया के १९ देशों में अनिवार्य वोटिंग कानून लागू है. जिन देशों में अनुवार्य वोटिंग कानून लागू है. उनमें आस्ट्रेलिया, अर्जेंटीना, ब्राजील, सिंगापूर, तुर्की आड़े देश भी शामिल हैं. जिन देशों में अनिवार्य वोटिंग लागू है उनमें से अधिकांश देशों ने ७० वर्ष से अधिक के बुजुर्गों को अनिवार्य वोटिंग कानून के दायरे से बाहर रखा है.

कहीं स्वागत कहीं विरोध :- गुजरात सरकार द्वारा अनिवार्य वोटिंग कानून बनाने के बाद चुनाव की दिशा में क्रांतिकारी परिवर्तन आएंगे या नहीं इस बात का पता तो आने वाले समय में ही चलेगा लेकिन फिलवक्त अनिवार्य वोटिंग कानून को लेकर दो पक्ष आमने सामने हैं. केंद्र की कांग्रेस नीट यूपीए सरकार इस कानून का विरोध कर रही है. कांग्रेस का कहना है कि मतदाता पर दबाव डालकर मतदान करवाना गैर संवैधानिक है. मतदाता अपना मत देने और न देने के लिए स्वतंत्र है. लेकिन ठेक इसके विपरीत चुनाव सुधार के समर्थकों ने इस कानून का स्वागत किया है चुनाव सुधार समर्थकों ने इस कानून को एक ऐतिहासिक कदम बताया है उनका कहना है कि अनिवार्य मतदाक के साथ नकारात्मक वोटिंग का अधिकार मिलने से मतदाता उम्मीदवारों के प्रति अपने गुस्से का इज़हार खुलकर कर सकेंगे. उनका यह भी कहना है कि इससे निर्वाचन प्रणाली में गुणात्मक सुधार आएगा और धीरे-धीरे मतदाता अपने मतदान के अधिकारों का मूल्य समझने लगेगा. परिणाम स्वरुप मतदान को और अधिक सकारात्मक बनाया जा सकेगा. इस क़ानून के लागू हो जाने के बाद उम्मीदवारों को भय रहेगा कि यदि जनहित में काम न किये तो मतदाता का गुस्सा भी झेलना पड़ेगा.

बहरहाल चुनावों में प्रत्येक मतदाता की भागीदारी जब तक नहीं होगी. तब तक मज़बूत लोकतंत्र की कल्पना नहीं की जा सकती. हमें किसी न किसी रूप में वोटिंग का प्रतिशत बढ़ाना होगा. धन बल के बल पर जीते हुए बाहुबली देश के सच्चे प्रतिनिधि कभी नहीं हो सकते. और ऐसे में देश न ही मज़बूत लोकतंत्र बन सकता. नरेन्द्र मोदी के इस कदम को चुनाव सुधारों से जोडकर देखा जा रहा है. अब गुजरात में इस कानून के लागू हो जाने के बाद गुजरात में ज्यादा से ज़्यादा लोग मतदान के लिए आगे आयेंगे. लेकिन यहाँ देखने वाली दिलचस्प बात यह होगी कि इस क़ानून को कैसे लागू किया जाता है और मतदाता इस पर क्या प्रतिक्रया देते हैं. अगर अनिवार्य और नकारात्मक वोटिंग कानून गुजरात में सफल रहा तो यह गुजरात सरकार का सही कदम होगा. तथा गुजरात पूरे देश में एक रोल मोडल बन जायेगा. और इसे अन्य राज्यों समेत देश भर में लागू किया जा सकेगा. हलाकि इससे पूर्व भी लोकसभा में बीजेपी के एक सांसद अनिवार्य वोटिंग विधेयक लाये थे लेकिन वह पारित न हो सका. लेकिन गुजरात में अनिवार्य वोटिंग कानून बनने के बाद यह देखना दिलचस्प होगा कि यह कितना सफल रहता है.

February 3, 2010

दहेज एक ऐसी राक्षसी कुप्रथा, जो बन गई विकराल समस्या

(कमल सोनी)>>>> एक ज़माना था जब बेटी के विवाह के बाद दुल्हन की खुशी के लिए दहेज दिया जाता था. लेकिन आज लडकी के माता-पिटा को उनकी हैसियत से ज़्यादा दहेज दिए जाने के लिए मजबूर किया जाने लगा है. इतना ही नहीं शादी के बाद भी ससुराल पक्ष और पति के द्वारा दुल्हन से दहेज की मांग की जाती रही है. मांग पूरी न कर पाने की स्तिथि में या तो बहू को ज़िंदा जला दिया जाता है या फिर ससुराल पक्ष से तंग आकर वह आत्महत्या कर लेती है क्योंकि हमारे समाज ने उस कन्या के लिए दूसरा कोई विकल्प छोड़ा ही नहीं. हर लडकी को यही तो सिखाया जाता है कि शादी के बाद उसकी ससुराल ही उसका घर है. दहेज एक ऐसी राक्षसी कुप्रथा है जिसने भारतीय जनता को संतृप्त, भयभीत, दुर्बल और रोगी बना छोड़ा है. दहेज के कारण सुन्दर से सुन्दर और योग्य से योग्य पुत्री का पिता भयभीत और चिन्तित है तथा जिसके कारण हर भारतीय का सिर लज्जा और ग्लानि से झुक जाता है. दहेज के अभाव में पिता को मन मारकर अपनी लक्ष्मी सरीखी़ बेटी को किसी बूढ़े, रोगी, अपंग, और पहले से ही विवाहित तथा कई सन्तान के पिता के हाथ सौंप देना पड़ता है. मूक गाय की तरह बेटी को यह सामाजिक अनाचार चुपचाप सहन करना पड़ता है. इसके अतिरिक्त केवल एक ही विकल्प उसके पास बच रहता है अपनी जीवन-लीला समाप्त कर दे. दहेज के इस दानव ने समाज में जाने कितनी फूल सी नारियों को असमय ही क्रूरतापूर्वक निगल लिया हे. कितनी लड़कियां आज निर्दयता पूर्वक दहेज के लोभी सास-ससुर द्वारा जलाई जा रहीं हैं. दहेज़ हर माता पिता के लिए परेशानी का सबब है जिनकी बेटियां ब्याह के योग्य है. सर्वगुण संम्पन्न होने के बाद भी मात्र दहेज़ की पूर्ति न होने के कारण या तो लड़कियां कुंवारी बैठी रहती है या फिर शादी के बाद आत्महत्या के जैसे कदम उठाने के लिए मजबूर हो जाती है या फिर उन्हें समाज की उपेक्षा और उलाहना का सामना करना पड़ता है.

स्त्री पुरुष लिगानुपात हुआ प्रभावित :- समाज में व्याप्त दहेज प्रथा का परिणाम यह हुआ कि अनेक निर्धन माता-पिता बेटी के जन्म लेते ही क्रूरता पू्र्वक बेटी का गला दबाकर हत्या करने लगे. इस संबंध में कठोर कानून सरकार को बनाने पड़े फ़िर भी बालिका वध को नहीं रोका जा सका. कन्याओं की गर्भ में ही ह्त्या करवाई जाने लगी. परिणाम स्वरुप समाज में स्त्री पुरुष लिंगानुपात प्रभावित हुआ. आज भी कड़े नियमों की बावजूद भ्रूण लिंग परीक्षा करवाकर कन्याओं को गर्भ में ही ह्त्या करवाने के मामले सामने आते रहते हैं. जो हमारे समाज के लिए बेहद चिंता का विषय है.

दहेज़ है क्या और इसकी शुरुआत कहा से हुई? :- आम तौर पर विवाह के समय कन्या पक्ष द्वारा जो भेट दी जाती है उसे दहेज़ कहते है. दूसरे शब्दों में दहेज़ वह नगद भुगतान व सामान होता है जो दुल्हे को दुल्हन के परिवार द्वारा विदाई के समय दिया जाता है. भारतीय वैवाहिक संस्कृति में कन्यादान एक महत्वपूर्ण रिवाज है इसी के साथ दहेज़ को भी जोड़ के देखा जा सकता है. दरअसल, भारत की अपनी एक परंपरा और संस्कृति रही है. यहाँ लड़की को सदेव पराया धन समझा जाता रहा है. लड़की को धूम धमाके से विदा किया जाता रहा है. पहले पहल दहेज़ के लेन देन में दोनों ही पक्षों की आपसी सद्भावना प्रकट होती थी. विवाह के बाद पुत्रि पराई हो जाती थी और पिता की संपत्ति पर उसका कोई अधिकार नहीं रह जाता था. यही वजह है कि पिता इसी सम्पति का कुछ भाग अपनी इच्छा से प्रसन्नता पूर्वक दहेज़ के रूप में विदाई के समय अपनी बेटी को देता है. तब दहेज़ देने का उद्देश्य यह होता था कि शादी के बाद यदि लड़की पर कोई विपत्ति आये या फिर उसके पति की मृत्यु हो जाए तो वह पिता द्वारा दिया गए धन का उपयोग अपनी आजीविका आदि में कर सके. ज्यादातर यही माना जाता रहा है कि दहेज़ जैसी कुप्रवृति हमारे समाज की संस्कृति नहीं रही है यह तो विदेशी सभ्यता की देन है. लेकिन एक पुत्री को वस्तु तथा साथ में दिए जाने वाले सामान को उपहार समझना इसी समाज की बहुत पुराणी परंपरा है हमारे पुराणों में कई प्रकार के विवाहों का उल्लेख किया गया है, जिनमे आदर्श विवाह ब्रह्म विवाह को माना गया है. इस विवाह में विद्या और आचार युक्त वर को बुलाकर उसे उत्तम वस्त्रो व अन्य वस्तुओ सहित कन्या का भी दान किया जाता था जो कन्यादान कहा जाता है. तब कन्या एक दान की वस्तु (न कि एक मनुष्य ) मानी जाती थी तथा इस दान के साथ उत्तम वस्त्र तथा अलंकार (आभूषण, उपहार आदि ) भी दिया जाता था. इस प्रकार यहाँ से दहेज़ की शुरुआत मानी जा सकती है. राजाओ के समय में भी दहेज़ में हजारो नौकर चाकर, दास दासियों, हाथी घोड़े दिया जाना सर्वविदित है. अन्य संस्कृति में भी दहेज़ लेने देने का रिवाज है लेकिन वह थोडा अलग है. मसलन मुस्लिम संस्कृति के अनुसार निकाह काजी के सामने दूल्हा दुल्हन को दिए जाने वाले तय मेहर की रकम अदा करेगा तथा दोनों पक्ष विवाह कुबूल करके निकाहनामे में अपने अपने दस्तखत करेंगे. यहाँ पर दूल्हा दुल्हन को मेहर के रूप में कुछ धन देता है. इन समुदायों के अतिरिक्त अन्य समुदायों में भी यह प्रथा अब ज्यादा प्रचलित होने लगी है, जिसके प्रमाण यदा कदा सामने आते रहते है.

दहेज बना स्टेटस सिम्बल :- वर्त्तमान समय में हालात ये हैं दहेज एक स्टेटस सिम्बल बन गया है. दैनिक उपभोग की वस्तुतों के अलावा, नकद में मोटी रकम, भौतिक सुख सुधाओं की वस्तुएं जैसे लेटेस्ट गाड़ी, फ्रीज़, टीवी, या अन्य महंगी वस्तुएं शामिल हैं. दहेज आज एक स्टेटस सिम्बल बना है इसका सीधा उदाहरण इस बात से ही लगाया जा सकता है जिसमें शादी के पहले ही वर पक्ष अपनी प्रतिष्ठा के अनुसार कन्या पक्ष को दहेज देने के दबाव बनाता है. कहने का सीधा मतलब यह है कि जिसको जितना ज़्यादा दहेज मिलता है उसका उतना ज्यादा रुतबा रहता है. लेकिन ऐसा अक्सर देखने में आता है कि शादी के समय वर पक्ष की मांग पूरी कर देने के बाद भी शादी के बाद वर पक्ष और पैसों की मांग करता है. तथा इस बात की कोई गारंटी नहीं होती कि वर पक्ष की हर मांग को मानने के बाद भी कन्या अपनी ससुराल में सुखी रहेगी. दूसरी और इस समस्या के विकराल रूप धारण करने के पीछे एक कारण दहेज देने की होड भी हैं. कन्या पक्ष द्वारा भी ज़्यादा से ज़्यादा दहेज देकर समाज में अपना रुतबा अपन स्टेटस बनाये रखने की भी मंशा रहती है.

दहेज प्रतिषेध अधिनियम :- दहेज बुरी प्रथा है. इसको रोकने के लिये दहेज प्रतिषेध अधिनियम १९६१ बनाया गया है पर यह कारगर सिद्घ नहीं हुआ है. इसकी कमियों को दूर करने के लिये फौजदारी (दूसरा संशोधन) अधिनियम १९८६ के द्वारा, मुख्य तौर से निम्नलिखित संशोधन किये गये हैं:
* भारतीय दण्ड संहिता में धारा ४९८-क जोड़ी गयी.
* साक्ष्य अधिनियम में धारा ११३-क, यह धारा कुछ परिस्थितियां दहेज मृत्यु के बारे में संभावनायें पैदा करती हैं.
* दहेज प्रतिषेध अधिनियम को भी संशोधित कर मजबूत किया गया है.
पर क्या केवल कानून बदलने से दहेज की बुराई समाप्त हो सकती है. - शायद नहीं. यह तो तभी समाप्त होगी जब हम दहेज मांगने, या देने या लेने से मना करें. उच्चतम न्यायालय ने भी १९९३ में, कुण्डला बाला सुब्रमण्यम प्रति आंध्र प्रदेश राज्य में कुछ सुझाव दिये हैं. एक प्रकरण में उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि दहेज की बुराई केवल कानून से दूर नहीं की जा सकती है. इस बुराई पर जीत पाने के लिये सामाजिक आंदोलन की जरूरत है. खास तौर पर ग्रामीण क्षेत्र में, जहां महिलायें अनपढ़ हैं और अपने अधिकारों को नहीं जानती हैं. वे आसानी से इसके शोषण की शिकार बन जाती हैं.
न्यायालयों को इस तरह के मुकदमे तय करते समय व्यावहारिक तरीका अपनाना चाहिये ताकि अपराधी, प्रक्रिया संबन्धी कानूनी बारीकियों के कारण या फिर गवाही में छोटी -मोटी, कमी के कारण न छूट पाये. जब अपराधी छूट जाते हैं तो वे प्रोत्साहित होते हैं और आहत महिलायें हतोत्साहित. महिलाओं के खिलाफ आपराधिक मुकदमे तय करते समय न्यायालयों को संवेदनशील होना चाहिये.

अधिनियम के दुरुपयोग :- दहेज प्रथा को रोकने के लिए दहेज प्रतिषेध अधिनियम भी बनाया गया लेकिन यह अधिनियम भी विवादों के घेरे में आ गया. इस अधिनियम के दुरुपयोग की भी खबरें आने लगीं. कई बार ससुराल पक्ष की कुंवारी लडकी या फिर बुज़ुर्ग व्यक्ति को भी शिकायत के आधार पर जेल भेज दिया जाता है. तथा जब अदालती कार्यवाही के बाद में जब फैसला आता है तो ससुराल पक्ष के उन लोगों को बरी कर दिया जाता है. ऐसे में वर पक्ष का भी समाज में सर नीचा हो जाता है. कई बार वर पक्ष निर्दोष होते हुए भी इस कदर उलझ जाते हैं कि वे स्वयं को बेगुनाह साबित नहीं कर पाते.

बहरहाल आज अगर यह कहा जाए कि दहेज एक नारीवादी समस्या है तो यह गलत होगा. क्योंकि दहेज एक सामाजिक समस्या है. भले ही समाज में दहेज प्रथा को बंद करने के लिए नियम बने हों लेकिन इस समस्या को तब तक काबू नहीं किया जा सकता जब तक की समाज ज्यादा से ज़्यादा दहेज लेने और देने की होड समाप्त न हो जाए. समाज में अमीर गरीब और माध्यम सभी वर्गों के लोग रहते हैं अमीर वर्ग को दहेज लेने और देने की होड से कोई फर्क नहीं पडता. माध्यम और गरीब परिवारों में इसके गंभीर परिणाम सामने आते हैं. आज यदि इस दहेज प्रथा पर रोक लगानी है तो इसके लिए समाज के योवाओं को ही आगे आना होगा. महिलाओं को शिक्षित होना होगा. महिलायें यदि आर्थिक रूप से स्वतंत्र होंगी, शिक्षित होंगी तो अपने हक की लड़ाई ज्यादा बेहतर तरीके से लड़ सकती हैं साथ ही शोषण होने से भी खुद को बचा सकती हैं. जब तक सारा समाज ही दहेज दानव के विरुद्ध उठ खड़ा नहीं होता तथा दहेज लेने वालों के मुंह काले करके सारे नगर में घूमाने की प्रथा सामान्य नहीं हो जाती, तब तक दहेज का दानव अपने दुष्ट खेल ही खेलता रहेगा.